रंग बता देता है कि कौन सा मौसम है। दिल्ली में ऐसा
कभी लगता नहीं था। एक मौसम दूसरे मौसम पर लदा हुआ सा आता था
जैसे कि उसके अपने हाथ पैर ही न हो। और
बाहर धूप चमक रही थी और मैं ड्राइंग रूम में बालकनी के सामने
अपनी मेज पर बैठा कम्प्यूटर पर टाइप कर रहा था। सामने के लॉन
के पार राजमार्ग पर गाड़ियाँ तेज़ी से भागती जाती थी। मैं ऐसे
में शोर से बचने के लिए बालकनी के शीशे वाला दरवाज़ा बन्द ही
रखता था। पेड़ की शाखाएँ फिर से हरी भरी हो गई थीं। कुछ समय
पहले ये नंगी थी पतझड़ में पत्तों के गिर जाने के कारण और फिर
सर्दी भर ये बर्फ में ठिठुरती रही थी। इन्हें देखकर मुझे कई
बार हिम्मत सी आ जाती हैं। मैं टाइप करने में तल्लीन ही रहता
अगर मैंने बालकनी पर अचानक चिड़ियों का शोर न सुना होता। मुझे
चिड़ियों की कुछ पहचान नहीं लेकिन वे देखने में भारत में पाई
जाने वाली गौरेये की जाति की लगती थीं। बचपन से चिड़ियों से मैं
आकर्षित रहा हूँ जो साधारण सी बात है लेकिन मैं चकित तब रह गया
था जब मैंने अपने सप्ताह भर के जापान प्रवास में कभी आकाश में
किसी भी चिड़िया को देखा नहीं था। किसी ने बाद में बताया कि
वहाँ चिड़िया होती ही नहीं। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि ऐसा हो भी
सकता है। उत्तर भारत में बहुत नहीं तो कम से कम कुछ किस्म की
चिड़िया तो हरदम ही नज़र आती हैं और यह एक आदत सी बन जाती कि
उन्हें आकाश में, लॉन में, बगीचे में यहाँ तक कि छत या आँगन
में सूखते कपड़ों पर बैठे देखना।
मैं मेज पर झुका थोड़ी देर
तक उन्हें देखता रहा। वो आपस में नोंक झोंक कर रही थीं या उससे
बढ़कर लड़ाई लेकिन केक का एक टुकड़ा लहुलुहान अपने आपको उनसे
बचाता हुआ बालकनी पर औंधा पड़ा हुआ था। मुझे समझ में आया कि
आखिर इतना शोर किसी मामूली सी बात तो हो नहीं सकता। चिड़ियों के
इस आपसी संघर्ष में केक अपने आपको बचा नहीं सका और मैं मौन
दर्शक की तरह शीशे के उस पार से उसे
टुकड़ों में बिखरता और फिर नन्हीं चोंचों से चुगते जाते देखता
रहा। मेरा ध्यान फिर एक चिड़िया की तरफ खिंच गया जो अकेली
बालकनी की रेलिंग पर बैठी थी। वो उनमें सबसे छोटी मालूम होती
थी। उसे पता था इस शक्ति संघर्ष में उसका कोई मूल्य नहीं और वो
कुछ सोचने की मुद्रा में बार बार
अपने सर को झटक देती थी। शायद
वो आने वाले दिनों में बड़ी होकर इस तरह के संघर्ष में छोटों के
समुचित अधिकार की माँग को लेकर अभी से चिंतित हो उठी थी। देखते
देखते केक का सफाया हो गया था कि एक बचे टुकड़े को लेकर एक मोटी
और तंदुरुस्त सी चिड़िया फुर्र हो गई। उसके पीछे बाकी चिड़ियों का
झुंड भी उड़ चला। लेकिन उस रेलिंग पर सोचने
में तल्लीन नन्हीं
सी चिड़िया वही बैठी रही।
उसका ध्यान तब टूटा जब मैंने हल्के से बालकनी के शीशे का
दरवाज़ा खोला। वह एकदम से घबराहट के कारण उड़ने की कोशिश में
लड़खड़ा सी गई लेकिन फिर उसने अपने आपको सम्भाल लिया। मैंने देखा
कि वो लॉन के एक पेड़ पर जाकर बैठ गई। मैं शीशे का दरवाज़ा खोलकर
बालकनी में आ गया था। बाहर की हवा में अभी भी सर्दी की बची
खुची ठंड थी। मैं थोड़ी देर तक चिड़िया को देखता रहा कि शायद वो
फिर लौट आए लेकिन वो मेरी भूल थी। वह इतनी भी बच्ची नहीं थी कि
किसी आदमी पर एकदम से भरोसा कर ले। इतना तो उसे उसकी प्रजाति
वालों ने बताया ही होगा। यह सोचकर मैं फिर दरवाज़ा खुला छोड़कर
अपनी कुर्सी पर बैठ कर टाईप करने लगा। मैं पता नहीं कितनी देर
तक टाइप करता रहा लेकिन मेरा ध्यान तब टूटा जब मैंने बालकनी पर
किसी के फुदकने की आवाज़ सुनी। मैंने देखा वही चिड़िया केक के
कुछ नगण्य अवशेष पर अपना श्रम और समय दोनों बरबाद कर रही थी।
मैंने रसोई से लाकर कुछ बिस्किट के टुकड़े डालने चाहे तो वो फिर
उड़ गई। मैं परेशान, आखिर मैंने कुछ टुकड़े वहाँ डाल दिए कि अगर
उसे अकल आए तो उसे समझना चाहिए कि मैं उसके उस समुदाय वालों
में नहीं था जो सब कुछ हड़पकर उसे अकेला और भूखा छोड़ चम्पत हो गए
थे।
लेकिन, पुरानी सीख और हिदायतें मुश्किल से साथ छोड़ती है और
यह तो मामला मनुष्य और चिड़िया के बीच का था। सदियों से चला आ
रहा अविश्वास पल भर के सौहार्द्र से मिटने वाला तो था नहीं।
खैर मैंने उसकी नादानी पर ज्यादा वक्त बरबाद करना बेकार समझा
और लौटकर फिर से टाइप करने लगा। मैंने थोड़ी देर के बाद जब नज़र
उठाकर देखा तो नन्हीं सी चिड़िया बिस्किट खाने में मगन थी लेकिन
थोड़ा सतर्क भी। वो घूमकर एक बार मुझे देख भी लेती थी फिर खाने
लगती। कुछ देर के बाद बिस्किट जब लगभग निबट गया तो उसने अपने
पंख में मुंह पोछा, फिर एक बार मेरी तरफ सतर्क निगाह डालती हुई
वह उड़ चली। मैंने भी अब अपने काम पर ध्यान केंद्रित कर लिया
था।
अगले दिन मैं कॉलेज से लौट कर आने के बाद ड्राइंग रूम में ही
सो गया था। पता नहीं मुझे दिन के समय खुली धूप में सोना अच्छा
लगता है। भारत में अक्सर मैं छुट्टी के दिन छत पर चला जाया
करता था। दोपहर को उन्नींदा सा लेटकर रेडियो पर गाना सुनना
मुझे हमेशा से पसन्द रहा है। खासकर नींद के झोंके के संग
रेडियो से आती डूबती गीतों की स्वर
लहरी जब टकराती या बल खाती हो।
पास में ही कहीं रस्किन बांड, निर्मल वर्मा या मोहन राकेश की
किताब अधखुली सी पड़ी रहती थी। अमेरिका में छत पर सोने का सुख
तो नहीं मिलता लेकिन मैं शीशे वाले दरवाज़े का परदा बगल में कर
देता हूँ तो धूप सीधे मेरे बिस्तर पर पड़ती है। मैं ज्यादा देर
तक सो नहीं पाया था कि मेरी नींद खुली थी बार बार किसी चीज़ का
शीशे से टकराने के कारण। थोड़ी देर तो मैं यूँ ही पड़ा रहा आलस
में लेकिन जब आवाज़ बढ़ने लगी तो मैंने
पलटकर देखा, एक चिड़िया बार बार
शीशे से टकराती और फिर रेलिंग पर जाकर बैठ जाती थी। मुझे थोड़ा
अजीब सा लगा। मैं उठा और जा कर मैंने शीशे का
दरवाज़ा हल्के खोल दिया। चिड़िया रेलिंग पर बैठी मेरी तरफ जैसे
देख रही थी। मुझे फिर कल वाली घटना याद आई। मैंने लौटकर रसोई
से कुछ बिस्किट लाकर वहाँ टेरेस पर बिखेर दिए। चिड़िया रेलिंग
से उतरकर बिस्किट के टुकड़े खाने लगी। मैं वहीं बिस्तर के
किनारे बैठकर देखने लगा। चिड़िया इस बार तनिक भी घबराई नहीं
यहाँ तक कि वो मुझे इस बार ज्यादा देख भी नहीं रही थी।
इसके बाद यह सिलसिला चल पड़ा और हमारे बीच की पहचान धीरे धीरे
एक विश्वास में बदलने लगी थी। अब हमारे बीच लेन देन के सिवा एक
प्रकार का अपनापा व्यापने लगा था। मैं कॉलेज से लौटकर लेट जाता
या फिर सोफे पर बैठकर टेलीवीज़न देखता हुआ उसके आने की
प्रतीक्षा करता। उसके आने का समय लगभग निश्चित हुआ करता था,
तीन से चार के बीच। मैं कई बार चकित होकर सोचता कि वो समय का
हिसाब कैसे रखती होगी। धूप या कि एक प्रकार का अंतर्ज्ञान
लेकिन ये मेरे मानवीय अनुमान और कलन की सीमा के परे था। अक्सर
मैं शुरू के दिनों में धूप से समय का ठीक ठीक अनुमान कर लिया
करता था। और शायद अब भी भारत के गाँवों में लोग करते होंगे
लेकिन यह अनुमान तब काम नहीं करता जब बादल घिरे हो और धूप के
दर्शन न हुए हो। खैर मैं तो ये मानता हूँ कि आज भी स्वयं को
सबसे विकसित प्राणी मानने वाले मनुष्य को अपने परिवेश से बहुत
कुछ सीखना रह गया है जो अपने दम्भ या अनभिज्ञता के कारण वह
इससे अब तक वंचित रहा है।
खैर, मैं बिस्किट या केक को डालकर अपने काम में लग जाता और वो
अपने नन्हीं चोंच से उसे चुगती रहती। जब उसका पेट भर जाता तो
मेरे कम्प्यूटर के पास आकर बैठ जाती। मेरे ज्यादा ध्यान न देने
पर वो कभी मेरे सर या कंधों पर चहककर अपनी उपस्थिति का आभास
कराने की कोशिश करती। मैं तब अपना काम रोककर उसके कौतुक में
शामिल हो जाता। थके हुए मन को उसके सहज मनोविनोद से थोड़ी ताजगी
मिलने लगती। मैं देखता कि जब मैं उसके खेलों में शामिल हो जाता
तो वो कमरे में उड़ती हुई कई चक्कर लगाती। किताबों के शेल्फ से
लेकर टीवी तक वह उड़ती, भटकती और बैठती फिरती। ऐसे में कई बार
पैरों के फिसल जाने से नन्हीं सी जान डर भी जाती थी। तब वो
उड़कर मेरे फैले हुए कागज़ों पर आकर सुस्ताने लगती। मैं देखता
उसकी भूरी काली आँखों से भय धीरे धीरे फिर तिरोहित हो जाता और
वो फिर आनन्दातिरेक में वहीं चक्कर लगाती हुई नाचने लगती।
मैंने उसके कई फोटों भी लिए। पहली बार कैमरे के फ्लैशलाईट से
वो डर गई थी लेकिन फिर उसे आदत पड़ गई।
बाद के दिनों में रिसर्च का काम बढ़ जाने के कारण दोपहर को
लौटना हो नहीं पाता था। उस दिन मैं कॉलेज जाने से पहले बालकनी
में बिस्किट या केक डाल गया था। लौटकर जब मैंने शाम को देखा तो
वो ज्यों का त्यों वहीं पड़े थे। फिर बिजली के प्रकाश में मैंने
देखा कुछ पंख वहाँ बिखरे हुए पड़े थे। मुझे लगा उसके अन्दर आने
की कोशिश में दरवाज़े के
शीशे से बार बार टकराने के कारण ये पंख टूट कर बिखरे होंगे।
मुझे अफसोस हुआ यह जानकर कि उसे लगा होगा कि मैं अन्दर घर में
हूँ लेकिन दरवाज़ा बन्द करके बैठा हूँ और शायद इसी कारण उसने
बिस्किट या केक को छूआ तक नहीं। हो सकता है कि मेरा कोरा
अनुमान हो लेकिन ये सच भी हो सकता है। मैं अगले दिन जल्दी आ
गया था और प्रतीक्षा कर रहा
था कि अगर वो आ जाए तो मैं फिर वापस जा सकता हूँ, लेकिन इसी
बीच फोन आ जाने के कारण मुझे आखिर निकलना पड़ा। मैंने इस बार
केक बिस्तर के पास फर्श पर बिखेर दिए और शीशा वाला दरवाज़ा खुला
छोड़ दिया। काम करते हुए मेरा ध्यान अक्सर उसकी तरफ चला जाता
था। मैं उस रात देर से लौटा। लौटकर देखा कि केक गायब था इसका
मतलब था कि अन्दर आकर उसने खाए होंगे। मुझे तसल्ली हुई। यह
सिलसिला कुछ दिनों तक चलता रहा जब
तक कि मेरी परीक्षाएँ खत्म नहीं
हो गईं।
जून के आते आते धूप तेज़ हो जाती है। गर्मी उतनी नहीं जितनी कि
थकान होती है। कालेज से लौटते हुए बस ले लेता था। बस–स्टॉप से
घर का रास्ता सिर्फ दस मिनट का था लेकिन, कई बार लगता कि एक
उम्र भर की थकान अपने कंधों पर लिए ढ़ो रहा हूँ। उत्तरी गोलार्ध
में पड़ने के कारण अमेरिका में धूप बड़ी चमकीली होती हैं। तापमान
कभी भी तीस पैंतीस डिग्री से उपर नहीं जाता लेकिन धूप की तासीर
चेहरे और दिमाग को तपा और झुलसा देने के लिए काफ़ी होती है। उस
दिन मैं लाईब्रेरी से छुट्टी लेकर जल्दी ही आ गया था, तबियत
कुछ अज़ीब सी हो रही थी। लेकिन, परीक्षा के परिणाम
आने और उसके आधार पर स्कालरशिप
मिलने की उम्मीद से एक तरह का उत्साह भी था। मैंने घर लौटते
हुए बादल घिरते देखे थे। मैं सोच रहा था कि खूब
तेज़ बारिश हो और मैं चादर तान कर बस सो जाऊँ ...आज और कल को
भूलकर। ऐसा कम ही समय आता है हमारे जीवन में जब बीते कल का बोझ
उतर जाए और आने जाने वाले कल के बारे
में सोचने की जरूरत न हो।
मैं ऐसे पलों की तलाश में रहता हूँ, लेकिन वो हर चीज़ मिलती भी
तो नहीं जिस चीज़ की हमें तलाश हो...
घर लौटा तो दरवाज़ा खोलते ही चिड़िया की फड़फड़ाहट सुनी। इस बार एक
नहीं दो। उनमें से एक को मैं पहचानता ही था लेकिन दूसरी शायद
उसकी कोई मित्र रही होगी। पहली बार उड़कर मेरे कंधे पर आकर बैठ
गई इसके पहले कि मैं अपने जूते उतार पाता। दूसरी वाली चिड़िया
थोड़ी तकल्लुफ से काम ले रही थी। और ये ठीक भी था, अचानक किसी
पर यूँ ही भरोसा भी नहीं करना चाहिए चाहे वो अपने मित्र के
मित्र ही का ही क्यों न हो। मैं दोनों में फर्क इसलिए भी कर
पाया कि दूसरी वाली गर्दन पर एक काली धारी थी। मैंने बस्ता
वहीं सोफे पर रख दिया और रेफ्रिजेरटर से केक निकाल फर्श पर
बिखेर दिए। कुछ बिस्किट भी मैंने डाले जो खास इनके लिए मुझे
लाना पड़ा था कल। दोनों केक खाने में व्यस्त हो गई तो मैं वहीं
सोफे पर लेट गया। दरवाज़े का परदा हटाकर देखा तो बाहर तेज़ वर्षा
होने लगी थी। पानी की तेज़ धार गिर रही थी और शीशे से पानी की
धाराएँ विभिन्न धाराओं में बंटकर अलग आकृतियाँ बनाती थी।
दरवाजे से अन्दर आती ठंडी हवा के झोंके के साथ पानी की हल्की
फुहार पड़ने से अब तक की ठहरी तपिश धीरे धीरे धुलने लगी थी। मन
में एक आनन्द का संचार होने लगा। इस बीच दोनों चिड़िया केक का
सफाया करने के बाद खुले दरवाज़े से बाहर उड़ चली। मैं भी बाहर आ
गया। वर्षा की तेज धार चेहरे पर चाबुक की तरह पड़ती थी। ज़मीन और
पेड़ों से धुंध का एक गुब्बारा उठता हुआ वर्षा की गिरती धारों
में गुम हो जाता था। मैं भीगने लगा था।
दोनों चिड़िया जो अब तक
पेड़ की शाखों पर बैठी थी मुझे बाहर आया देख मेरे कंधों पर आकर
बैठ गई। मैंने हल्के से उन्हें छुआ, उनके पंखों को जो पानी में
पू्री भीगे थे। उनके पर आपस में चिपक गए थे जिस कारण वो अलग
दीख रही थीं। भींगे परों के कारण उनमें भेद कर पाना भी मुश्किल
जान पड़ता था। उनमें से एक जो उड़ी तो मैं उसके पीछे पीछे
भागा
लॉन में, फिर मैंने तेज़ी से उसे पकड़ लिया। यह हमारी फुर्ती थी
या उसकी लापरवाही लेकिन अब वो मेरी हथेलियों के बीच वर्षा की
तेज़ धार से महफूज़ थी। शायद वो थोड़ी काँप भी रही थी ठंड के
कारण।
'मजे ले रहे हो बारिश में!' पीटर, मेरे पड़ोसी ने बालकनी वाले
दरवाज़े के अन्दर से कहा।
'हाँ, आज मौसम कितना अच्छा है!' मैंने लगभग चहकते हुए कहा, 'आज
ऑफिस भी नही गए आप?'
'कल रात मेरी ड्यूटी थी' पीटर यहाँ किसी ऑफिस में सुरक्षा
अधिकारी है।
'ओह, तो अभी आपको सोना चाहिए था।' मैंने कहा।
'हाँ, मैं सोने ही गया था कि वर्षा शुरू हो गई। फिर मैं भी उठ
बैठा। क्या भारत में भी ऐसी वर्षा होती है, अमर?' पीटर ने पूछा
था।
'भारत में मैं जहाँ से हूँ, बहुत वर्षा होती है वहाँ। क्या
आपने मानसून के बारे में सुना है?'
'हाँ, क्यों?'
'मानसून के आने के बाद वर्षा कई बार हफ्तों तक होती रहती है।'
इस बीच मेरे हाथों से निकल कर चिड़िया हवा में उड़ गई। दूसरी जो
अब तक मेरे कंधों पर बैठी वर्षा से बचने का प्रयास कर रही थी
वो भी उसके पीछे पीछे भागी।
पीटर ने कहा, 'ये कहाँ से पकड़ लिया आपने चिड़ियों को?'
मैंने कहा, 'मैंने पकड़ा नहीं। ये खुद मेरे पास आई हैं।'
'ओह, तो आपने इन्हें पाल रक्खा है।' पीटर इसके पहले कुछ और
कहते कि किसी ने उन्हें पुकारा था और वो माफी माँगकर घर के
भीतर चले गए। मैं और कुछ देर तक वर्षा में चिड़ियों के साथ
भागता और भींगता रहा जब तक कि ठंड
नहीं लगने लगी थी।
दोनों चिड़ियाँ जब वापस उड़ चलीं तो मैंने भीतर आकर अपने कपड़े
बदले और तौलिए से सर को पोंछा। कुछ छींक भी आने लगी थी। मैं
फिर बाद में सो गया। पता नहीं वर्षा कब तक होती रही। जब नींद
खुली तो देखा सूरज की अंतिम किरणें बिस्तर पर गिर रही थी।
मैंने चाय बनाई और बैठकर चाय पीते हुए टीवी देखने लगा।
रात को जब सोने गया तो बदन टूट रहा था, शायद बारिश में भींगने
के कारण बुखार आने लगा हो। मैंने कुछ गोलियाँ गरम दूध के साथ
लीं और सो गया। मुझे पता था अगर तबियत खराब हुई तो कम से कम
कुछ दिन तक तो छुट्टी रहेगी। रोज का वही काम, सुबह उठना और
कालेज पहुँचकर पहले लायब्रेरी में कुछ घंटे काम करना फिर
रिसर्च के लिए पेपर ढूँढना और फिर उनको बैठकर घंटों पढ़ते हुए
हाइलाईटर से रँगना। हालाँकि लायब्रेरी में काम करते हुए मुझे
कभी बोरियत नहीं होती थी। वहाँ नित्य नई किताबों को देखने का
मौका मिलता था। मैं तो कई बार किसी किताब में इतना खो जाता था
कि ध्यान ही नहीं रहता था कि मैं अध्ययन के लिए बैठा हूँ या कि
लाईब्रेरी का एक अदना सा पार्ट टाईम वर्कर हूँ। लेकिन, मेरा
सुपरवाइज़र मेरी बहुत कद्र करता था, उसे पता था कि मुझे
लाइब्रेरी में काम क्यों करना पड़ता है। वो स्वयं एक उपन्यासकार
था। उसे देखकर मुझे हमेशा एक श्रद्धाजनित सहानुभूति घेर लेती
थी। वह दाढ़ी में बहुत प्रभावशाली दीखता था, ठीक यूनान के
मध्यकालीन चित्रों के एक पुरूष पात्र की तरह। वह मूलतः इटली का
निवासी था और उसके पूर्वज
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में अमेरिका आकर बस गए थे। वो
अक्सर अपने अप्रकाशित उपन्यासों के कथा तत्वों की चर्चा करते
करते खो जाया करता था, फिर अचानक हँसने लगता था। उसकी हँसी में
एक बालसुलभ चंचलता और निष्कपटता होती थी। वह कई बार अपने लेखन
के प्रति उत्पन्न हो रही उदासीनता का जिक्र करता और फिर जल्दी
से फाइलें पलटने लगता जैसे एक प्रकाशित और सफल लेखक होने की
गुत्थियाँ उसी फाइल में कहीं दबी पड़ी हों। मैं कहता कि वो दिन
जरूर आएगा जब उसके उपन्यास छपेंगे और लोग उसे पसन्द भी करेंगे,
तो वो मेरी तरफ देखता और उसकी दृष्टि मुझे भेदती हुई कहीं
किताबों की उस शेल्फ पर जाकर टिक जाती जहाँ ताजा प्रकाशित
पुस्तकों को डिसप्ले के लिए रखा जाता है ...
सुबह कहें या कि दोपहर मेरी जब नींद खुली तो शरीर बुखार से तप
रहा था। मैंने घूम कर घड़ी देखी तो डेढ़ बज चुका था। शरीर में
तेज़ दर्द था मैंने अपने को चादर में सर से पाँव तक लपेटकर करवट
बदल ली। चादर के पार खिड़की से आती धूप सीधे मेरी आँखों में पड़
रही थी जिसे मैंने अपने दाये हाथ से ढंक दिया। मैं चाहता था कि
उठकर मुँह हाथ धोकर दवा ले लूँ या फिर डिस्पेंसरी चला जाऊँ,
लेकिन उनमें से कुछ भी होना या करना सम्भव नहीं लगा। मैं वैसे
ही पड़ा रहा, तेज़ बुखार में टूटता, तपता और सुलगता हुआ। मुझे कई
बार बुखार आना अच्छा लगता है, बुखार के बाद लगता है हमने अपने
शरीर बदल लिए हों, सब कुछ हल्का सा हो जाता है। बचपन में मुझे
बहुत बुखार होता था, अक्सर एक के बाद दूसरा, बदपरहेज़ी के कारण,
माँ हमेशा यहीं कहती थी जब बुखार कभी दोहरा जाता था। मैं कम्बल
में दुबका सुनता रहता था। लेकिन बुखार ठीक होने के बाद फिर
भागता फिरता जैसे हाथ पैर में नई जान फूँक दी गई हो। माँ
डाँटती फिरती कि मत भागो, लेकिन मैं मानता नहीं था और नतीज़ा कि
शाम होते होते मैं कम्बल में लिपटा हुआ बुखार में फिर तपता नज़र
आता। मुझे यह सोचते सोचते फिर नींद सी आने लगी। बुखार में एक
खास बात और होती है आदमी एक साथ कई दुनिया में होता है,
डूबता–उतराता हुआ, पीड़ा और सुख, तपन और हल्कापन फिर मूर्छा और
मौन। कुछ स्वर दैहिक और कुछ अंतर्मन के सुनाई पड़ते हैं वहीं एक
गुनगुनी सी गूंज तेज़ होकर डूबने सी लगती है ...
मैंने सुनी कुछ फड़फड़ाहट, किसी चिड़िया के पंखों की। आँख खुलती
नहीं थी या कि सपना मैं देख रहा था। फड़फड़ाहट एक बेचैनी की तरह
मेरे आसपास बढ़ती जाती थी। हवा का झोंका खिड़की से होकर आता हुआ
मेरी चादर को भेद जाता था, मैं अपने को और सिमटा लेता था। मैं
जागना चाहता था लेकिन मेरी आँखें खुलती नहीं थी। यह संघर्ष पता
नहीं कितनी देर चलता रहा, फिर मैंने कोशिश करनी छोड़ दी, मैं
निढ़ाल होकर पड़ा रहा ...मुझे लग रहा था कि प्रतिरोध से मैं और
निर्बल होता जा रहा हूँ ठीक उस पंजे लड़ाने वाले की तरह जो शुरू
में ज्यादा ताकत लगाकर निढ़ाल पड़ जाता है। धीरे धीरे मैं थोड़ा
संयत होने लगा फिर एकदम अवसन्न, निश्चेष्ट, एकांतिक और
अंतर्मुखी ...
आँख खुलते ही मेरी नज़र पड़ी मेरे सिरहाने में खड़ी चिड़िया पर। वो
खुली खिड़की से अन्दर आ गई थी शायद। उसकी आँखों में घिरे भय को
मैं महसूस कर सकता था। उसने आँखें मींची, पंख हवा में हिलाए और
गर्दन घूमाकर मुझे एक बार फिर गौर से देखा। शायद वो अपने को
आश्वस्त करना चाहती थी कि स्थिति इतनी चिंताजनक तो नहीं। मुझे
देखता देख उसकी आँखों में भय अब कम होने लगा था। मैं उठना
चाहता था लेकिन अपने हाथ सिर्फ चादर से बाहर निकाल कर चिड़िया
पर रख सका। मेरे हाथों की जलन या उसकी आकुलता लेकिन वह एक बार
को सिहर उठी और उसका कम्पन मेरे हाथों से होता हुआ मेरे
स्नायुओं तक रेंग गया। मैंने उसे अपने हाथों में उठाकर करवट
बदल ली। अब वो मेरी हथेलियों के बीच खड़ी मुझे निरंतर देख रही
थी। फिर उड़कर मेरे चादर से ढंके पाँव के पास जाकर बैठ गई। मुझे
लग रहा था कि मैं अब शायद उठ सकता हूँ। इसके पहले कि मैं उठ
पाता वो मेरे चेहरे के पास उड़ती हुई आ पहुँची। उसके नन्हें
पंखों से उड़ती हवा मेरे चेहरे पर अमृत की तरह बहने लगी। कहते
हैं कि कबूतर के पंखों की हवा से बुखार उतर आता है, लेकिन यहाँ
स्नेह और अपनापन का असर ज्यादा था कि मैं अपने को जल्दी ही
बेहतर महसूस करने लगा। मैंने घड़ी देखी, छह बजने को थे। मैंने
सोचा चिड़िया को भूख लगी होगी। मैं उसे छोड़ उठा, मेरे पाँव जमीन
पर सही पड़ते न थे। मैंने चावल के कुछ दाने लाकर मेज़ पर बिखेर
दिए। चिड़िया मुझे कुछ देर देखती रही मानो कह रही हो इसकी क्या
जरूरत थी अगर तुम स्वस्थ नहीं थे। यह सोच कर मैं मन में
मुस्करा उठा।
चिड़िया उड़कर मेज़ पर आई और दाना चुगने लगी। मैं वही दीवार के
सहारे सर टिकाए चादर में अपने पैर समेट कर उसे देखता रहा।
मिनटों में उसने दाने निबटा दिए, शायद भूख कुछ ज्यादा ही लगी
थी उसे। फिर कप में रखा पानी उसने पिया और मेरे पास घुटनों पर
आकर बैठ गई। सूरज कब का ढल चुका था और खिड़की के बाहर अँधेरा
घिरने लगा था। मैंने हल्के से उसे छुआ, और वो मुझे लगातार देख
रही थी मानो पूछ रही थी कि अब और देर करना ठीक नहीं, उसे अब
जाना चाहिए। मैं उसे अपने हाथों में लेकर खिड़की तक आया और अपनी
हथेली को खिड़की के बाहर कर दिया। उसने मुड़के एक बार फिर मुझे
देखा और पंख हिलाती, उड़ती हुई बाहर चली गई। वो जाकर एक खम्भे
पर रूकी थी, शायद उसे जाने में संकोच हो रहा था या कि फिर उसे
किसी बात का अन्देशा था। मैंने उसे हाथ हिलाकर विदा किया। इस
बार वो उड़ी तो रुकी नहीं, पहले आँखों से ओझल हुई उसके बाद घिर
आए अंधेरे में खो गई। मैं बिस्तर के पास फिर लौट आया था।
मेरा बुखार कुछ दिनों तक चलता रहा, मैं हर दिन हॉस्पिटल से लौट
आने के बाद उसकी प्रतीक्षा करता लेकिन वो उसके बाद नहीं आई।
फिर मैं धीरे धीरे स्वस्थ हो गया। समय गुज़रता रहा। इस बीच मुझे
स्कॉलरशिप मिल जाने के कारण मुझे लाईब्रेरी काम करने जाना नहीं
पड़ता था, लेकिन रिसर्च का काम काफी बढ़ गया था। मैं धीरे धीरे
अपने काम में फिर से व्यस्त होने लगा था।
शनिवार को खाना खाने के बाद टीवी देखता हुआ मैं सोफे पर ही सो
गया था। पता नहीं कितनी देर तक सोता रहा। नींद खुली थी शीशे पर
किसी परिन्दे के बार बार टकराने के कारण उत्पन्न आवाज़ से। मुझे
लग रहा था कि मैं फिर से तो सपना नहीं देख रहा हूँ। कई बार
सपने में भी सपने के होने की अनुभूति होने लगती है। यह भी
अवचेतन मन का एक विचित्र खेल है जो स्वयं रचता है और स्वयं
खेलता भी है। मेरी जब आँख खुली तो देखा एक चिड़िया बालकनी के
बाहर मंडरा रही थी। मैंने उठकर शीशे का दरवाज़ा खोला तो वो उड़ती
हुई अन्दर आ गई। जब वो फर्श पर बैठी तो मैं पहचान सकता था कि
वो कोई और नहीं उस चिड़िया की साथी है जो उस दिन पहली और अंतिम
बार उसके साथ आई थी। मैं थोड़ी देर उसे दिखता रहा, वह कुछ बेचैन
और अशांत सी बार बार चौकन्नी होकर चारो तरफ देख रही थी। मैं
काश उससे कुछ पूछ पाता लेकिन यह सम्भव नहीं लगा। मैंने बिस्किट
के कुछ टुकड़े लाकर वहाँ डाल दिए। उसने लेकिन कोई ध्यान नहीं
दिया उसपर न ही उसकी किसी और चीज़ में दिलचस्पी नज़र आ रही थी।
मैं घुटनों के बल बैठ गया उसके आगे। उसकी ओर देखकर मुझे लगा कि
शायद वो कोई सन्देशा लेकर आई है, मन का भ्रम या कोई अनबूझा सा
तार, एक रहस्य जो कभी सुलझाया नहीं जा सका आज तक। लेकिन उसकी
आँखों की आकुलता और ज़र्द चेहरे में छुपे भाव को उसे समझने में
ज्यादा कठिनाई नहीं होगी जिसने अपना कुछ अमूल्य कभी खोया हो
...कहना, सुनना और सुनाना शायद इसके आगे निरर्थक और निर्मूल हो
जाते हैं। मैं दरवाजे. को पूरा खोलकर वहाँ पर खड़ा रहा। चिड़िया
वहाँ बिस्तर के आस पास थोड़ी देर तक घूमती रही फिर वह मेरे
कंधों को एक बार छूती हुई बाहर उड़ चली ...
उस रात में देर तक जागता रहा, नींद आती नहीं थी। बाहर लॉन में
चाँदनी बिखर रही थी। हल्की ठंडी हवा बालकनी के दरवाज़े से सोफे
तक आती थी जहाँ मैं लेटा हुआ था। मैं सोच रहा था कि चिड़िया की
उम्र कितनी होती होगी ...सोचते सोचते मुझे नींद आ गई। जब आँख
खुली तो देखा बाहर सुबह का प्रकाश फैल रहा था। बरसों के बाद
मैं यह देख रहा था। बालकनी के बाहर लॉन में चिड़ियों का एक झुंड
उड़ता हुआ आया और पेड़ पर बैठ गया। उसी क्षण चिड़ियों का दूसरा
झुंड उसी पेड़ से उड़ चला। उड़ता हुआ झुंड उषा की लालिमा पर
बिखरता सा जान पड़ता था। मैंने बालकनी का परदा गिरा दिया। |