पालने
में आँखें खोलते ही उसने रवि और पम्मी को खिलौने नहीं, अपना
नाम, अपने सपनों का इन्द्रधनुष दिया। और अबोध बच्चों ने भी,
उसी उमर से, नतमस्तक हो, वह इंद्र–धनुष सँभाल लिया। मन में
उतार लिया... उन रंगों से खेले बिना ही, जीने की हिम्मत किए
बगैर ही। क्योंकि उनका काम तो बस उस धरोहर को सँभालना भर ही था
– ना इससे ज्यादा और ना ही इससे कुछ कम। वह आम बाप तो था नहीं,
वह तो एक जादूगर था, जो बोलता तो उसकी साँसों में काँटें उगते
और देखता तो, पलकों पर गुलाब खिल आते। फूलों की महक तो हवाओं
के संग चारों तरफ फैल जाती, सबको ही ललचाती और सुख देती, पर
काँटे अपनों को ही छीलते, जो आस–पास होते उन्हींके हिस्से में
आते।
आज उन्हीं काँटों से बिन्धा हेमंत सोच रहा था... शायद वह
जादूगर नहीं, आम आदमी ही था। एक जिम्मेदार और महत्वाकांक्षी
बाप, जो जानता था कि सफल जीवन के लिए, सफल परिवार का होना भी
जरूरी है। विचारों और संस्थाओं से जुड़े रहना जरूरी है। समाज भी
तभी इज्जत देता है और अपने अस्तित्व की पूर्णता का बोध भी तभी
होता है। भावनाओं की कमजोर पुलिया पर जीवन गाड़ी नहीं चलती।
संयम और नियंत्रण चाहिए इसे। और ये दोनों तो उसके लिए
सोने–जगने जैसे थे, विरासत में मिले थे। कर्नल और मेजर लाम्बा
जैसे बाप दादाओं की वंश–परंपरा से था वह। यह तो विलायत देखने
की, फिरंगियों से मिलकर किस्मत आजमाने की ललक थी, जो उसे यहाँ
तक खींच लाई थी... वरना वहाँ, अपने देश में कोई कमी नहीं थी –
न किसी नाम की और ना ही किसी काम की।
पर मन में पलते–चुभते ये इच्छाओं के शूल और इनकी दिन रात बढ़ती
कँटीली डालें ही तो हमें भटकाती रहती है। तरह–तरह के सब्ज बाग
दिखाती हैं। हमारो होठों और आँखों पर जब ये गुलाब बनकर खिलती
है... तो सबकुछ भुलवा देती हैं। इनकी महक से मदमस्त, हम चुभन
को ही दवा समझ लेते हैं। उस दर्द और भटकन को ही अपना ध्येय बना
लेते हैं। ऐसा बस गुरबख्स के साथ ही नहीं हुआ, हर उस इन्सान के
साथ होता है जिसे सपनों की लत लग जाती है। बंद आँखों से चलना आ
जाता है। ये काँटें बारबार चुभकर जगाने की कोशिश तो करते हैं –
कभी अपनी खामियों का एहसास दिलाकर तो कभी जुड़ने और टूटने की
पीड़ा से अवगत कराकर। पर रोज ही तो दौड़ जाते हैं हम उसी ओर...
अपने ही खून की बहती लकीरों पर पैर रखते हुए। भूल जाते हैं कि
ये सपने तो हम से भी ज्यादा कमजोर हैं। लाचार होते हैं। इन्हें
तो जगना और बिखरना भी पड़ता है। फुनगियों की ऊँचाई से उतरकर
अपने ही काँटों पर गिरना पड़ता है। बिखरें, तो भी उन्हीं काँटों
से छिलकर और टूटें... तो भी वही कसक और पीड़ा लिए हुए। जिस धूप
में पककर ये रंग चटकें, उसी में उड़ भी जाएँ। यही नियम है
प्रकृति का। यही नियम है जीवन का। साँस जो जीवन देती है, जीवन
लेती भी वही है।
पर अगर काँटों के खेत में ही पलो–बढ़ो, तो उनकी भी तो आदत पड़
सकती है? उनसे भी तो पोर चीरते–काटते कोई दुख नहीं होगा? कोई
दर्द मन को नहीं सालता क्योंकि पत्तों से मन के पोर भी तो पक
सकते हैं? उसकी पम्मी के साथ भी शायद कुछ ऐसा ही हुआ हो?
अचानक हेमंत के सर में एक विस्फोट हुआ और सर में घूमते वे सभी
शब्द, मति से संधि–विच्छेद कर, एक मनमानी पदयात्रा को निकल
पड़े। गलेसे निकलती उन बेतरतीब आवाजों को जब उसने एक क्रम, एक
नियंत्रण देना चाहा, तो गले से गुर्रर्–गुर्रर् और घड़–घड़ के
सिवाय कुछ भी बाहर नहीं निकल पाया। दर्द मानो आज स्त्रोत से
फूट कर बह चला हो और किसी तरह का क्रम या नियंत्रण अब संभव ही
नहीं था क्योंकि अन्दर ही अन्दर सब कुछ ही शॉर्ट–सर्किट हो
चुका था। पर ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ था... बस रोज की ही तरह आज
भी जब वह स्क्वाश खेलने क्लब आया था तो बस पम्मी वहाँ नहीं थी।
पम्मी जो साँसों सी अब उसकी जरूरत बन गई है।
बचपन में उसने दादी से सुना था कि यहाँ, इसी सृष्टि में, एक
कल्पतरु है जिसके नीचे बैठकर जो माँगो, वही मिल जाता है।
कल्पतरु सी खड़ी यह जिन्दगी हमें यहीं, इसी दुनिया में सब कुछ
देने की सामथ्र्य रखती है। बस माँगना आना चाहिए। अपनी इच्छाओं
का सच्चा बोध होना चाहिए। पर हेमंत को तो कभी कुछ माँगने की
जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि पम्मी तो सदैव उसके साथ ही रहती थी
– बिना माँगे ही मिल गई थीं। फिर वह क्यों माँगता और किससे
माँगता? शायद वह कल्पतरु दुनिया में नहीं, हमारे अंदर ही होता
है।
पूरा क्लास जानता था कि पढ़ाई खतम होते ही, दोनों शादी कर
लेंगे। क्लास ही क्या, अब तो दोनों के घरवाले भी जानते थे यह
सब। माँ ने तो बहू के जेवर और कपड़े तक जोड़ने शुरू कर दिए थे,
वह भी हर चीज उसे दिखा और पसंद करवाकर ही। दादी तो सुर्ख
बीर–बहूटी–सी पम्मी की बलैयाँ लेते–लेते न थकती थीं। कल तो हद
ही कर दी थी... अपने हाथ की चूड़ियाँ तक पम्मी को पहनाकर देख
रही थीं... वह भी, इस हिदायत के साथ, ' देख पम्मी, जबतक जीउँ
मेरी और मरने पर तेरी। बस मेरे हेमंत का ठीक से ध्यान रखना। अब
तो हेमंत को तुझे सौंपकर ही चैन से जा पाऊँगी।' और तब पम्मी ने
भी तो शरमाकर बस 'ठीक है दादी,' ही कहा था।
फिर आज अचानक सब मौसम–सा पलट कैसे गया। क्यों अपने नाम–सा
शिशिर और बसंत के बीच खड़ा, वह नहीं जान पा रहा कि यह शिशिर की
ताजगी और बसंत की बहार उसकी क्यों नहीं? क्या उसके हिस्से में
बस चन्द महकती बयारों के, चन्द बीती यादों की पुलक के, और कुछ
नहीं आ पाएगा? क्या वह कभी नहीं जान पाएगा कि वास्तव में
जिन्दगी क्या होती है... रंग और रूप का एक सुन्दर–सा गुलदस्ता
या ठंडी बर्फ की सख्त चादर... जिसके नीचे दबा हर सपना आनेवाले
बसंत के इन्तजार में बस सोता ही रह जाता है? पर क्या ऐसा लम्बा
इन्तजार वह कर पाएगा? हेमंत करता भी तो क्या करता – समझता भी
तो कैसे? वह कोई बहार की बात तो नहीं कर रहा था जिसमें बस कुछ
फूल खिलते और मुरझा जाते हैं। वह तो अपनी पम्मी की बात कर रहा
था। नागफनी सी फैली इस जिन्दगी की बात कर रहा था। उस अटूट
जिजीविषा की बात कर रहा था... काँटों से बिंधी होकर भी जो सजल
होती है। आस नहीं छोड़ती.। पत्ते–पत्ते में पानी और उमंग छुपाती
है। मरूस्थल में खड़ी, आँखों में फूल खिलाती है। फूल, जो
सर्दी–गरमी से कुम्हलाते नहीं। मौसम के मुहताज नहीं होते...
पम्मी की तरह... पम्मी की सदाबहार मुस्कुराहट की तरह।
हाँ, वही हेमंत की पम्मी, जो दिनभर उससे फालतू के काम करवाती
है। तरह–तरह के हुक्म चलाती है और नाराज होने से पहले, खुद ही
मनाने भी आ जाती है और फिर मानते ही, अगले पल ही, टूटी चप्पलें
सिलवाने मोची के पास दौड़ा देती है। सैर–सपाटे के लिए ड्राइवर
बनाती है और फिर सारा सामान भी उसी से ढुलवाती है। खुद
लेटे–लेटे गाने सुनती है और उससे होमवर्क करवाती है। जी हाँ
वही हेमंत की चंचल – शरारती पम्मी। आजाद झरने–सी खिलखिलाती
पम्मी। चौबीसों घंटे परेशान करने वाली, बात–बातपर हँसने–रूलाने
वाली पम्मी। बच्चों–सी सीधी–सरल पम्मी।
हेमंत को भी तो पम्मी की कोई बात, कभी बुरी नहीं लगी। कोई
मान–सम्मान का काँटा उसके मन में भी तो नहीं चुभा क्योंकि उसकी
अपनी त्वचा भी तो प्यार की अनगिनत पर्तों से सुरक्षित रही है।
सभी नैसर्गिक रिश्तों की तरह वे भी तो एक दूसरे से पूर्णतः सहज
थे। हेमंत जानता था कि पम्मी चाहे किसीके भी साथ हँसे –
मुस्कुराए, घूमे–फिरे, पर अंत में उसीको सबकुछ बताती है...
बिल्कुल वैसे ही, जैसे मम्मी पापा को सुनाती है... फिर पापा,
चाहें सुनें या न सुनें? पर वह तो पम्मी की हर बात बड़े ध्यान
से सुनता है। सुनता ही नहीं, समझता भी है। जो वह कहे वह भी और
जो न कहे वह भी। जितना वह पम्मी को जानता है उतना तो शायद
खुदको भी नहीं।
अब जब दोनों एक–दूसरे की पहचान बन ही गए हैं तो क्या फर्क पड़ता
है कि वह हिन्दू है और पम्मी सरदार। वह हेमंत मिश्रा है और
पम्मी परमिन्दर लाम्बा। ये सरदार भी तो अपने ही होते हैं। माँ
बतलाती है पहले एक ही घर में, एक सरदार होता था तो दूसरा
हिन्दू। यह हिन्दू और सिखों की अलग–अलगाव की बातें, तो अब हाल
ही में सुनाई पड़ने लगी हैं। फिर यह तो विदेश है। यहाँ अपने लोग
ही कितने हैं जो मनों में एक और भेद बढ़ाया जाए? अगर आज उसके
बाप और भाई उसे पसंद नहीं करते, उसकी कद्र नहीं करते तो कोई
बात नहीं। कल निश्चय ही वे भी उसे पसंद करने लगेंगे जब जान
जाएंगे कि उनकी बेटी को –– उनकी बहन को उससे ज्यादा प्यार करने
वाला, खुश रखने वाला पति मिल ही नहीं सकता। इसी तरह
सोचते–सोचते, पम्मी को जीते–जीते, बीस साल का हेमंत कब चौबीस
साल का हो गया, उसे खुद ही पता न चल पाया। अब तो उनकी पढ़ाई भी
खतम होने वाली थी पर आज भी पम्मी नज़र नहीं आ रही थी। आज ही
क्या, पिछले पूरे तीन दिनों से वह नहीं दिखी है। हेमंत की
आँखों में आती–जाती धूप–छाँवी निराशा और बेचैनी रीमा दूर से ही
खड़ी पढ़ पा रही थी। जब और नहीं सह पाई तो उसने सब कुछ बता देना
ही उचित समझा, कि अब हेमंत को पम्मी का और इंतजार नहीं करना
चाहिए क्योंकि पम्मी अब कभी नहीं आ पाएगी। पिछले हफ्ते ही उसकी
शादी हो गई है।
रेगिस्तान में आई आँधी की तरह एक ही पल में सबकुछ हेमंत की
आँखों के आगे से ढक गया... काला और डरावना हो गया। वह जान गया
कि पूरे डंके की चोटपर, सबके सामने ब्याहकर ले गया है कोई और
उसकी पम्मी को... इसका मतलब क्या है वह अच्छी तरह से जानता था।
पर, आखिर कहाँ – कब और कैसे? पम्मी तो उससे कुछ नहीं छुपाती
थी? और हेमंत मिश्रा भी अपना साधारण काम भी बड़ों के आशीर्वाद
के साथ ही करता था फिर बड़ों के आशीष बिना पम्मी के साथ जीवन
कैसे शुरू कर पाता?
हेमंत की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। अभी पिछले हफ्ते की ही तो
बात है जब वे मिले थे... कॉलेज के बाद यहीं ओडियन में।
ग्लैडिएटर फिल्म भी देखी थीं उन्होंने साथ–साथ। और स्लेव–प्रथा
पर गुर्राती पम्मी ने घंटों भाषण दिया था, "जानते हो हेमंत
जिन्दगी एक स्वच्छंद नदी की तरह होनी चाहिए... एक सड़े–मटमैले
पोखरे सी नहीं। इसे बाँधने और सीमाओं में रोकने का, मनचाहा मोड़
देने का अधिकार किसी को भी नहीं... हमें खुद भी नहीं।"
"पर मेढ़की तो पोखरे में आराम से रहती है पम्मी?" हेमंत ने उसे
छेड़ते हुए पूछा था।
"मैं मेढ़की नहीं, मछली हूँ हेमंत। मछली, जो बस ताजे पानी में
ही जी सकती है। यदि मेरे साथ जीवन बिताने का, साथ रहने का
इरादा है तो तुम यह बात अच्छी तरह से समझ लो। याद कर लो कि मैं
बस जिन्दा रहने के लिए, कभी कोई समझौता नहीं करूँगी।"
"अच्छा बाबा" और सहमति में मुस्कुराते हुए हेमंत ने काँपती
पम्मी को बाहों में समेट लिया था... यही सच का कसैलापन ही तो
उसे अपनी पम्मी में बेहद पसंद था फिर इतना बड़ा धोखा क्यों...
वह भी चुपचाप – कब और कैसे?
विक्षिप्त, कुरसी से लटके, झाग फेंकते हेमंत को देखकर सीमा डर
गई। उसे वही आराम से बिठाकर, चौके से पानी ले आई। कुछ पिलाया,
कुछ मुँह पर छिड़कने लगी। बारबार उसे समझाने और आश्वस्त करने
लगी।
"क्या तुम जानती हो उसकी ससुराल कहाँ है? कौन है वह लोग? कैसे
और कहाँ मिला जा सकता है उससे?" खुद से बेखबर हेमंत होश में
आते ही, रीमा से सवाल पर सवाल पूछने लगा।
"नहीं" कहकर रीमा गांगुली बस चुप हो गई। थोड़ी देर बाद फिर खुद
ही बोली, "मुझे तो बस जाते–जाते पम्मी इतना ही बता पाई थी कि
पंजाब में उसकी दादी बहुत बीमार है और वह उनसे मिलने, कुछ दिन
उनके पास रहने के लिए भारत जा रही है।"
सवालों का एक अजगर अब हेमंत के आगे मुँह बाए खड़ा था... क्या यह
सब इसीलिए तो नहीं, कि वह दोनों जल्दी ही शादी करने वाले थे?
यदि वह सँभला नहीं तो उसे... उसकी पम्मी तक को पूरा का पूरा
निगल जाएगा यह। कहानी न सिर्फ अविश्वसनीय थी, वरन् उसमें से
षड़यंत्र की भी बू आ रही थी। जब उसका ही सर घूम रहा है तो
बिचारी पम्मी इस दुर्गन्ध में कैसे साँस ले पा रही होगी? उसे
ही कुछ करना होगा। मस्तिष्क की घड़ी ने फिरसे टिकटिक करना शुरू
कर दिया... "तो क्या शादी वही पंजाब में, भारत में ही हुई है?"
"हाँ शायद – पता नहीं" रीमा गांगुली और नहीं सोचना चाहती थी।
बंगाली ही सही, पर थी तो वह भी हिन्दुस्तानी लड़की ही। कल उसकी
भी किसी लड़केसे घनिष्टता के बारे में सबको पता चल सकता है।
उसके साथ भी वही सब जोर जबर्दस्ती हो सकती है। वह अमित नहीं,
बेटा नहीं, कि मनमानी शादी कर ले। गोरी बहू ले आए और माँ
चुपचाप अगवानी करने आ जाएँ। बेटियाँ तो आज भी बस घर की इज्जत
ही है। उसकी भी दादी बीमार हो सकती है। उसकी शादी भी, ऐसे ही
हो सकती है। किसी भी अनजान के साथ। बिना प्यार और पहचान के। और
उसे भी सबकुछ चुपचाप ही मानना पड़ेगा... सिर्फ इसलिए कि यह सौदा
उसके अपनों ने किया होगा... सोच–समझकर किया होगा। उसके और
परिवार के भले के लिए किया होगा। सोचकर ही रीमा का दम घुटने
लगा... उबकाई आने लगी। छुट्टियों पर जाना बात और है, पर पूरी
जिन्दगी वहाँ, उस देश में, इस माहौल से दूर? हर जानी पहचानी
आराम और सुविधा से दूर? एक साफ–सुथरा, सुनहरा भविष्य छोड़कर,
दमघोटू, गन्दे और गरीब वातावरण में?
नहीं, दादी–नानी की तरह घर बैठे–बैठे बस बच्चे पैदा करना उसके
बस की बात नहीं। उसे छोड़ो, अब तो शायद उसकी माँ भी वहाँ न रह
पाए? अच्छी परिस्थितियों से अभ्यस्त होना जितना आसान है, विषम
से जूझना उतना ही कठिन। उसकी ही क्या अब तो शायद पम्मी की माँ
भी वहाँ न रह पाएँ? हर महीने उन्हें भी तो अपने रूट्स करवाने
जाना पड़ता है। हर इतवार को फिश और चिप्स खाए बगैर उनका भी तो
पेट नहीं भरता। कैसे रह पाएँगी वह वहाँ... अपने घर से दूर...
अपनों से दूर... उस विदेश में? फिर क्यों नहीं सोचा किसीने कि
उसकी सहेली के बारे में? कैसे रह पाएगी वह? उसी से इस बलिदान
की अपेक्षा क्यों? क्या सोचकर उसकी पढ़ाई अधूरी छुड़वा दी? क्या
बेटियाँ आज भी बस पराया खेत ही है जिनपर ध्यान देने की, सींचने
की कोई जरूरत नहीं? चिड़ियाँ हैं जिन्हें बस उड़ने तक ही दाना
देने का फर्ज है? कहाँ गई... मरी या जी पाई... जानने की कोई
जरूरत नहीं?
परमिन्दर तो उसकी सहेलियों में सबसे ज्यादा दिलेर और जिन्दादिल
थी फिर गाय सी चुपचाप अनजान खूँटे से कैसे बँध गई? रीमा को समझ
में आने लगा कि ठंड और एक्सीडेंट से ही नहीं, कैन्सर की तरह
साहस की कमी से भी हम अकाल–मौत मर सकते हैं। आखिर कौन सा देश
है उसका... यह ब्रिटेन जहाँ वह पैदा हुई, जिसकी कोख में
पली–बढ़ी या फिर दूर बसा वह भारत, उसके पूर्वजों का देश... जहाँ
उनके वंश का मूल–बीज उगा और पनपा? आस्था और उत्तरदायित्व की इस
लड़ाई में रीमा की सोच, पुल की तरह दोनों किनारों से जुड़ी रहना
चाहती थी, पर रह न पाई।
"... क्यों हेमंत, ऐसा नहीं हो सकता कि हम पम्मी और उसके पति
को यहीं बुला लें...?"
"क्यों नहीं...," परिस्थिति की परवशता ओर जटिलता में डूबता
हेमंत इधर–उधर हाथ–पैर फेंकने लगा... उबरने का उपाय ढूँढ़ने
लगा। वह जानता था कि किनारा आँखों से कितना ही ओझल क्यों न हो,
कहीं–न–कहीं होता जरूर है। और नदी के दोनों किनारे ही होता है।
बस तैरना आना चाहिए। हौसला चाहिए। पानी के बहाव से नहीं, थककर
हिम्मत छोड़ देने से ही हम डूबते हैं।
वह यह भी जान गया था कि उसे अब और इन्तजार नहीं करना चाहिए...
ना किसी आनेवाले बसंत का और ना ही भयावह शिशिर का। समय आ गया
था कि वह उठे और स्वयं ही पम्मी को ढूँढ़े। पम्मीके घरवालों ने
तो स्पष्ट शब्दों में बात खुलासा कर दी थी कि जब पम्मी से उसका
कोई सम्बन्ध नहीं तो उसके बारे में सोचना छोड़ दे वह। उसकी राह
तक देखना छोड़ दे, अगर उसकी तरफ आँख उठाकर भी देखा तो आँखें
निकाल ली जाएँगी।
पर नदी किनारे उगे जड़ों तक पानी में डूबे, प्यासे विलो पेड़ सी
उसकी सोच पम्मी की तरफ ही झुकती चली गई क्योंकि प्यास का
रिश्ता पानी से तो नहीं, पीनेवाले से ही होता है। हेमंत का
इन्तजार करती आँखें हरपल उसी सड़क पर बिछी रहती जो पम्मी के घर
तक जाती थी। शायद पम्मी इधर से कभी गुजरे? शायद पता लग जाए? कब
तक छुपाए रक्खेंगे ये घर और ससुराल वाले उसकी पम्मी को? कभी न
कभी तो हर लड़की मायके आती ही है। खुशबू भी उड़ती है तो आसपास की
हवाओं में पता छोड़ जाती है फिर पम्मी तो जीती जागती, साढ़े पाँच
फुट की लड़की है। ऐसे कैसे गायब हो सकती है? किसी को तो पता
होगा... कोई तो बताएगा उसे, पम्मी कहाँ है... कैसी है? और फिर
उसे भी अभी पम्मीसे बहुत कुछ पूछना और जानना है –– क्या उससे
बिछुडकर, दूर अजनबियों के बीच, बेगाने रीत–रिवाज निभाती, वह
खुश है या यूँ ही बस परवश घुट रही है? ईक्कीसवीं सदी है आखिर।
फिर खुदही संशय में डूब जाता... एक पढ़ी–लिखी प्रबुद्ध लड़की है
उसकी पम्मी, चाहती तो किसी न किसी की मदद ले सकती थी?
इसी तरह इन्तजार करते, दिन गिनते, दो महीने निकल गए। पम्मी का
कोई पता नहीं चल पाया। बेचैन हेमंत ने सोते–जागते डरावने सपने
देखने शुरू कर दिए... कभी वह पम्मी को घोड़े पर सवार राक्षस के
मुँह से बचाकर लाता तो कभी उसके पास पहुँचते–पहुँचते उसका घोड़ा
दम तोड़ देता। गढ्ढे में गिर जाता। और तब उदास पम्मी की आत्मा
उसके सामने आकर गुमसुम–सी खड़ी हो जाती... बिखरे रूखे बालों और
गढ्ढ़े में घुसे गालों के संग... एक डरावना कंकाल बनकर। हेमंत
की समस्याओं का चक्रव्यूह दिन–प्रतिदिन अभेद्य होता जा रहा था।
पहली आशा की किरन उस दिन हाथ लगी जब छुट्टियों पर जाने से पहले
उसने विदेशों में मुसीबत में फँसे ब्रिटिश नागरिकों के
अधिकारों और उनके लिए उपलब्ध सुविधाओं के बारे में पढ़ा और
आनन–फानन वह ब्रिटिश हाइकमीशन जा पहुँचा, मदद माँगता हुआ। मिस
रूथ विलकिन्स काफी सहृदय और सुलझी हुई महिला थीं। पहली बार
किसीने हेमंत की बातें ध्यान से सुनीं। उसके दर्द को समझा।
यहीं नहीं हफ्ते भर के अन्दर ही पम्मी के गाँव का पता भी हेमंत
के हाथ में दे दिया।
अगले दिन ही हेमंत ने खुदको रूथ विलकिन्स के साथ इंदिरा गांधी
एयर पोर्ट पर खड़े पाया, वह भी मनसा की टैक्सी पकड़ते हुए।
दिल्ली से मनसा का चार घँटे का वह सफर, तरह–तरह की संभावनाओं
से बेचैन था... मीठी कसैली यादों में डूबा हुआ। पेड़, चिड़िया,
आदमी सब उसके संग–संग दौड़ जरूर रहे थे पर मनसा की तरह अभी भी
उसकी पकड़ से बहुत दूर थे। रूथ उसकी मनःस्थिति समझ रही थी।
ध्यान बटाने के लिए कभी उसे अद्भुत–अनजान रंग–बिरंगी चिड़ियाँ
दिखलाती, तो कभी नाचता मोर। पर हेमंत की आँखें तो मनसा गाँव पर
ही टिकी हुई थी... पम्मी के सिवाय कुछ भी देखने से इन्कार कर
रही थीं। एक कर्कश आवाज के साथ ड्राइवर ने ब्रेक लगाया और
एकसाथ ही सबकुछ रुक गया। सामने गेरू–चूने से पुते, एक आधे
कच्चे–पक्के मकान के आगे खड़ा वह बता रहा था, "४४/५६ यही घर है
साहब।" दरवाजे पर बँधा बंदनवार और दीवारों पर कढ़े मोर और सतिए
आगामी मंगल कार्य की घोषणा कर रहे थे।
घिरती शाम के धुँधलके में भी हेमंत ने देख लिया कि सामने पीपल
के पेड़ के नीचे खड़ी, गाय–भैसों की हौद में चारा डालती वह युवती
कोई और नहीं, उसकी अपनी पम्मी ही थी। पिछले तीन महीनों से
हेमंत ने बारबार इतना उसे याद किया था कि अब तो वह उसकी परछाई
तक पहचान सकता था। हेमंत ने एक बार फिर गौर से देखा, निश्चय ही
उसकी तरफ पीठ किए, दीन–दुनिया से क्या खुद से भी बेखबर वह
युवती कोई और नहीं, पम्मी ही थीं। हेमंत का मन किया दौड़कर गले
लगा ले। कम से कम हाथ से चारे की बाल्टी तो ले ही ले... जाकर
कुछ भी मदद करे... बातें करे... पूछे... क्यों पम्मी, क्या
दबाव था तुम्हारे ऊपर, जो एक बेबाक बहती नदी, इस तरह अचानक ही,
किचड़ की दलदल में पलट गई? मन दौड़कर पम्मी से गले मिल आया, लाड़
और शिकायतें कर आया, पर हेमंत चुपचाप टैक्सी में ही बैठा
रहा... भावनाओं के आवेग से अपाहिज–सा।
मिस रूथ उतरी और रंग–उचड़ते पुराने दरवाजे की जंग लगी कुंडी
खड़खड़ा दी। अंदर से आवाज आई... "पम्मी कुड़िए देखना जरा...
दरवाजे पर कौन है... तुस्सी ही देख ले?" इसके पहले कि पम्मी
पलटे, रूथ खुद ही पम्मी तक पहुँच गई। हेमंत के मुँह से बारबार
सुनकर वह भी जान गई थी कि परमिन्दर लाम्बा ही पम्मी है। परिचय
में हाथ बढ़ाते हुए बोली, "मैं रूथ विल्किन्स हूँ... ब्रिटेन
से। तुम्हारी मदद के लिए आई हूँ। मुझे स्पष्ट बताओ, तुम यहाँ
खुश तो हो न... किसी दबाव में तो नहीं रह रहीं? देखो, मेरे साथ
तुम्हारे मित्र हेमंत भी आए हैं।"
पम्मी की बेचैन आँखों ने तुरंत ही हेमंत को ढूँढ़ लिया। एक
क्षीण मुस्कान से उसका स्वागत भी किया। मानो मन के किसी कोने
में अभी भी विश्वास था कि हेमंत जरूर ही आएगा। फिर बुझकर, खुद
झुक भी गईं। मानो बहुत देर हो गई हो। स्थिति की विषमता से जूझ
पाना... अब दोनों के लिए ही संभव नहीं था। हेमंत और गाड़ी में
बैठा न रह सका, "यह क्या हालत बना डाली है पम्मी तुमने? मैंने
तुम्हें कहाँ–कहाँ नहीं ढूँढ़ा?" अस्त–व्यस्त रूखे बालों और
बेतरतीब मैले कुचैले कपड़ों में खुद से इतनी बेपरवाह पम्मी को
देखकर, हेमंत का कलेजा मुँह को आ रहा था।
"कम से कम मुझे तो बताना था कि तुम कहाँ हो, कैसी हो? तुम
जानती हो मैं तुम्हारे किसी भी निर्णय के आड़े नहीं आता?"
गोबर और चारे से सने हाथों को चुन्नी से पोंछती पम्मी, चुपचाप
हेमंत को देखती रह गई मानो उसके इरादों की गहराई नापना चाहती
हो, इससे भी ज्यादा सामने खड़े हेमंत की धातु पहचानना चाहती हो
–क्या वह उसका और उसकी विषम परिस्थितियों का बोझ उठा पाएगा –
बिना मुड़े और टूटे, उसके विकलांग मन की बैसाखी बन पाएगा...
गुरबख्शसिंह लाम्बा और उनके परिवार से लड़ पाएगा? लाम्बा परिवार
जो बस परिवार ही नहीं, एक संस्था भी है... जहाँ किसी भी तरह की
कमजोरी के लिए कोई जगह नहीं है। क्या हेमंत उस संस्थाको,
संस्था के तिरस्कार को झेल पाएगा? उसने तो इस गरीब घास–पूस
खानेवाले ब्राह्मण को भूलने की पूरी कोशिश की थी। बारबार अपनी
यादों को अग्निदाह दिया था।
हेमंत आगे बढ़ा और उसने पम्मी का हाथ अपने हाथों में ले लिया,
"ज्यादा परेशान मत हो – कुछ सोचो भी मत... बस यह बताओ, क्या यह
सब तुम्हारी मरजी से हो रहा है?" पम्मी की सूनी माँग और अस्त
व्यस्त कपड़ों से वह जान गया था कि अभी उतना अनर्थ नहीं हुआ
जितना कि वह डर रहा था। अभी कोई रावण उसकी पम्मी का अपहरण नहीं
कर पाया है। हेमंत को वह पीपल का वृक्ष, वृक्ष नहीं वहीं दादी
का कल्पतरु लगा। और आज जिन्दगी में पहली बार उसके हाथ खुद–बखुद
पम्मी को माँगने के लिए उठ गए। चारों तरफ जो अँधेरा सा घिर आया
था अब ऊपर झिलमिल तारों भरे आकाश में पलट गया। हेमंत के एक ही
स्पर्श से पम्मी के सारे रूके आँसू, बेलगाम बह निकले। दोनों
में से किसी को भी कुछ और कहने–सुनने की जरूरत नहीं थी।
पम्मी को दुख ने रूथ को भी विचलित कर दिया, "कल टुम मेरा साथ
ब्रिटेन में होगा और हम वहाँ पर टुमारा हेमंत से शादी बनाएगा।"
अपनी टूटी–फूटी हिन्दी में वह भी उसे समझा रही थी।
"पर मैं वहाँ, अपने माँ–बाप के घर वापिस तो नहीं जा सकती। वह
तो जीते जी ही मुझे मार डालेंगे। और फिर इस तरह से तुम लोगों
के साथ जाने से हमारे परिवार की बहुत बदनामी भी तो होगी। जब
लोगों को पता चलेगा कि शादी के बस तीन दिन पहले, मैंने किसी और
से शादी कर ली, वह भी भागकर, तो मेरी छोटी बहिन की शादी तो
दूर... बिरादरी में कहीं, रिश्ता तक नहीं हो पाएगा। ना–ना मिस
विलकिन्स, शादी और वह भी बिना मा–बाप के, बिना उनके आसीस के?
मित्रों–रिश्तेदारों के बिना ही... घोड़ी–बारातियों के बिना –
अपनों के बगैर ही? नहीं, माफ करना, मिस रूथ यह नहीं हो सकता।"
"पर इसके अलावा और कोई चारा भी तो नहीं।"
पम्मी का संस्कारी मन बुझ गया। वह बागी नहीं थी, बस एक अनजान
के संग, जल्दी में जुटाई, इस बेमेल और बेमतलब की शादी के लिए
खुदको तैयार नहीं कर पा रही थी। वह यह भी जानती थी कि डाल से
टूटकर फूल वापस नहीं जुड़ पाते... उमड़ आए आँसुओं को रोकने के
लिए उसने आँखें बन्द कर लीं और बचपन से ही सीखी–समझी प्रार्थना
मन–ही–मन दोहराने लगी," देहु शिवा यह शक्ति मुझे सत् कर मन से
कबहुँ नाटरूँ" मासूम हरदम मुस्कुराती गुड़िया सी बहन और माँ को
याद करके वह और भी उदास हो चली थी। पापा तो अपना सर तक न उठा
पाएँगे। बागी ही नहीं खुदको स्वार्थी और परिवार के प्रति
दगाबाज भी महसूस कर रही थी वह। पर और क्या कर सकती थी...
समझौता उसकी आदत में नहीं था और हेमंत उसे यूँ चुपचाप परिवार
के लिए टूटने और मिटने नहीं दे रहा था।
हर सीधी सड़क के दोनों ही किनारे आखिर बस गढ्ढे और नालियाँ ही
क्यों होती है? ये जीवन की सड़कें कुछ और चौड़ी क्यों नहीं होती?
बहुत ही लाचार और अनाथ महसूस कर रही थी वह।
"हौसला रक्खो... अपना घोंसला चुनने और बनाने का अधिकार तो
पक्षियों तक को होता है। तुम पापा के नहीं, अपने घर जाओगी
पम्मी। और वहाँ तुम्हें कुछ भी फिकर करने की जरूरत नहीं,
क्योंकि आज से तुम्हारी सारी फिकरें, मैं करूँगा।"
भक्त को अचानक ही जैसे भगवान मिल जाएँ या मनचाहा वरदान मिल
जाए... कुछ ऐसी ही भावातिरेक में आद्र मनःस्थिति हो चली थी
उसकी। बर्फ-सा जमा मन तरल हो, आँखों से बह निकला और काँपते
पैरों ने शरीर का हिस्सा होने से इन्कार कर दिया। महीनों की
थकी–हारी पम्मीने खुद से लड़ना छोड़ दिया। लाज–शरम भूलकर, बिखरने
के डर से वह आगे बढ़ी और हेमंत की फैली बाहों में सिमट गई।
सशक्त बाजुओं में सिसकती पम्मी बारबार बस वही एक सवाल पूछे जा
रही थी, "पर, तुम्हें पता कैसे चला, कि मैं कहाँ हूँ? ढूँढ़ने
से तो भगवान भी मिल जाते हैं फिर इतनी देर क्यों कर दी तुमने
आने में? मुझे इस दलदल से निकालो हेमंत। जानते हो, खुद मेरी
माँ ने ही मुझे धोखा दिया। सभी शामिल थे इस षडयंत्र में। मुझसे
कहा गया कि मैं दादी से मिलने जा रही हूँ। बहुत बीमार है वह और
विदा के जोड़े–कपड़े, सब मेरे साथ ही रख दिए... गहने–रूपए, सभी
कुछ... यह कहकर कि शायद चाचा की बेटी की शादी में जाना पड़े?
मैं बेवकूफ, अपने कफन का सामान खुद अपने साथ लेकर आई। देखो
हेमंत, क्या मैं अब सच में ही एक मुरदे जैसी नहीं लगती
तुम्हें? मैंने तो पिछले पच्चीस तीस दिनों से शीशा तक नहीं
देखा है क्योंकि मैं खुदसे ही डरना नहीं चाहती। फिर यह तो
बताओ, तुमने कैसे पहचाना मुझे?"
हेमंत चुपचाप सबकुछ सुनता रहा... हर शब्द के दर्द से कटता और
रिसता हुआ। पम्मी अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, "मैंने तो
खुद को हर बलि के लिए तैयार कर लिया था, पर इसे तुम समझौता मत
समझना। हमारे शास्त्र कहते हैं कि सामूहिक हित के लिए किया गया
निर्णय, सौदा नहीं त्याग होता है और मैं ही क्या हमारे यहाँ तो
हजारों पम्मियाँ सदियों से यही करती आ रही हैं। स्वयंवर और
नारीहित की बातें करने वाले इस देश में बस यही होता आया है।
पहले राधा–कृष्ण अलग किए जाते हैं फिर उनके मंदिर बना दिए जाते
हैं। पूजा की जाती है। कितने संयोगिता और पृथ्वीराज हो पाते
हैं यहाँ? हमारे यहाँ तो बस कुर्बान ढोला–मारू और शीरीं–फरहाद
के दर्द भरे गीत ही गाने का रिवाज है। सुख के लिए मीरा हो या
राधा... जंगल में हो या राजमहल में... बस लबालब दुख ही पीती
है। और फिर इसी–सबकी आदत पड़ जाती है। ऐसे ही जीना आ जाता है।
हमारी माँ–दादी वगैरह सभी इसी शृंखला की कड़ी हैं। आदत डाल लो
तो समुन्दर में तैरती मछली भी खुशी–खुशी काँच के बॉल में तैरने
लग जाती है। बस आदत डालने की बात है। परसों मेरी शादी भी
होनेवाली थी, वह भी एक ऐसे आदमी के साथ जिसे मैंने कभी देखा तक
नहीं था।"
हेमंत पम्मी के लिए बेचैन हो उठा... कौन खड़ी है यह उसके सामने?
उसकी पम्मी तो कभी हार नहीं मानती थी। लड़ना ही नहीं, जीतना
जानती थीं। हर उगते सूरज के संग, नये दिन की उमंग लेकर जगती
थीं और अंधेरी से अंधेरी रात में भी बस सुबह के ही सपने देखती
थीं। फिर यह कौन इन गर्तों में खड़ा है? यह तो पूरा जीवन जी
चुकी है। सबकुछ हार चुकी है। नहीं, वह पम्मी को यूँ अँधेरी
खाइयों में फिसलने नहीं देगा।
जमीन पर आँख गड़ाए पम्मी, पैर के अँगूठे से धूल कुरेदती गई...
मानो पूरा खोया सच आज ही ढूँढ़ लेगी... हर रिसते घाव को
कुरेद–कुरेद कर, "तुम्हें मैं कैसे बताती, जब मुझे खुदही कुछ
पता नहीं था। मैंने तो तुम्हें रोज ही आवाज दी थी। पर
कच्चे–काँच–सा कुँवारा तन लेकर, इस पथरीले मौसम में तुम तक
कैसे पहुँच पाती हेमंत? मुझे इस भयावह मौसम की परवाह नहीं थी,
खुदके टूटने–फूटने की फिकर भी नहीं थीं, पर उस आसपास बिखरते
कहर को कैसे रोकती मैं? चारों तरफ जो बिखर जाते, उन नुकीलें
काँचों को कैसे समेटती? वह सारी चुभन मैं तो सह लेती, पर घर
वालों के लहुलुहान मन कैसे सँभालती? जो मेरे साथ दम तोड़ देती,
उस घर की इज्जत को कहाँ दफनाती? सुना है उसी रात मेरी डोली भी
उठ जाती... डोली नहीं शायद अर्थी ही कहो, तो ज्यादा ठीक है।
साथ चलना तो दूर, तुम तो मेरी अर्थी को कंधा तक नहीं दे पाते।
वैसे तो सब ठीक ही था... मोक्ष कब और किसे जीते जी मिल पाया
है।
इसके लिए तो बस मरना ही पड़ता है... और मरा तो अकेले ही जाता है
न?
"ना–ना, ऐसी बातें नहीं करते। ऐसे नहीं सोचते। अब सब ठीक हो
जाएगा" जब हेमंत और बर्दाश्त न कर सका तो बात बीच में ही काटकर
रुँधे गले से बोला और अस्त–व्यस्त बालों को बेचैन उँगलियों से
ठीक करने लगा। बहते आँसूओं को पोंछने की तो किसी ने भी जरूरत
नहीं समझीं।
"बाहर कौन है...किस्से गल्ला कर रही है कुड़िए?" मोतियाबिन्द से
आधी–अँधी, कमर झूकी दादी भी, डंडा टेकते–टेकते, और दीवार
टटोरते–टटोरते वहाँ तक आ पहुँची थीं।
"जी, हमलोग ब्रिटिश हाईकमीशन से हैं। पता चला है कि इनका भारत
का वीसा अभी दो हफ्ते पहले ही खतम हो गया है। अब यह यहाँ
गैरकानून् रह रही हैं। इन्हें हमारे साथ अभी, इसी वक्त दिल्ली
वापिस चलना होगा।" रूथ विलकिन्स ने रौबीले अफसरी अंदाज में
दादी को समझाया। "पर मेरा पुतर होर इसकी माँ तो कल ही आ रहे
हैं विलायत से? परसों इसका लगन भी हैं? सारा इन्तजाम हो चुका
है। कारड तक बँट चुके हैं। फिर यह आपके साथ कैसे जा सकती है?"
दादी ने संशय भरी नजरों से देखते हुए अपनी दलील रखी, "मेरी
निगरानी में छोड़ा है इसके माँ–बाप ने। क्या जवाब दूँगी उन्हें
और इसकी ससुराल वालों को... क्या बताऊँगी, कि कहाँ पर है अब
उनकी अमानत?" "आप चाहें तो आप भी हमारे साथ आ सकती है, पर वीसा
तो आज ही लगवाना पड़ेगा। उसके बिना अब यह यहाँ एक पल नहीं रह
सकती। यह ब्रिटिश नागरिक है और इनके हर भले–बुरे की जिम्मेदारी
हमारी है। आप अपने बेटे को हमारा यह पता दे दीजिएगा। अब वह
पम्मी से वहीं मिल सकते हैं। वैसे भी ये बाइस साल की हैं और
संविधान के अनुसार अपने सब फैसले खुद ले सकती है।"
किस फैसले की बात कर रही है यह... मुँह खोले खड़ी दादी का जवाब
सुने बगैर ही रूथ ने किसी कीमती, खोए खजाने–सी पम्मी हेमंत को
सौंप दी। हेमंत ने भी, उतनी ही लगन और हिफाजत से पम्मी को कार
में बिठाया और खुद भी उसकी बगल में ही बैठ गया, उसका हाथ कसकर
पकड़े–पकड़े ही। पम्मी के थके मनकी हर जरूरत पढ़ते और समझते
हुए... बिल्कुल समुद्री तूफान में उड़ते उस थके पक्षी की तरह,
जो वापस जहाज पर तो आ गया था, पर जिसके थके पंख और चौकन्नी
आँखें को अभी भी आनेवाले तूफान का पूरा अंदेसा था।
धूल के उड़ते गुबार के पीछे से असमंजस में खड़ी दादी देख पा रही
थी... पम्मी ने हेमंत के कंधे पर सर टिका रखा था और हेमंत की
सशक्त बाँहें उसे प्यार से सँभाले हुए थीं। दादी पहचान गई कि
उस बेल ने अपना तना ढूँढ लिया है। पम्मी और कहीं नहीं, अपने घर
ही जा रही थी। वे दिल्ली की सड़क पर ही जा रहे थे और पाँच बजे
की ब्रिटिश–एयरवेज की लंडन वाली फ्लाइट अभी भी पकड़ी जा सकती
थी। यह रूथ ब्राउन कुछ भी कहे, यह बच्चे पराए नहीं, उसके अपने
थे। सब धर्म–ग्रन्थों का सार जानते थे। उससे ज्यादा समझदार और
सूझ–बूझ वाले थे। छोटी सी उमर में ही बहुत कुछ सीख और जान गए
थे। जान गए थे कि जीवन, डूबने के डर से किनारे पर बैठना नहीं,
लहरों की छाती पर चढ़कर तैरना है। गुत्थियों में उलझकर दम तोड़ना
नहीं, सुलझना और सुलझाना है। माना ये बच्चे भारतीय नहीं थे, पर
ब्रिटिश भी नहीं थे, ब्रिटिश–एशियन थे।
उसके अपने बीज से उपजी एक नयी फसल– जो बस पराए तटों पर जा उगी
थीं। अनजाने देश और परिस्थितियों में पनप रही थीं। पर भूली
नहीं थी कि कहाँ से आए हैं... पीछे क्या छोड़ आए हैं? दोनों की
आँखों में उसे यूँ छलपूर्वक असहाय छोड़कर जाने का दुःख था।
दोनों ने ही जाते समय विदा ली थी। उसे दुश्मन नहीं, अपना और
बड़ा ही समझा था। झुककर पैर छुए थे। प्रणाम भी किया था। नाराज
और परेशान पम्मी ने शिकायत नहीं, बस प्यार ही प्यार दिया था।
उसकी जायज–नाजायज हर बात सुनी–समझी थी। एक जिम्मेदार पोती की
तरह ही रही थी वह।
एक दूसरे से मिलने पर उन आँखों में विदेशी उन्माद नहीं, एक
शक्ति थी– शक्ति जिसके बल पर कभी हमारे यहाँ राधा–कृष्ण की
जुगल–जोड़ी बनी थी। दुबारा इसे तोड़ने का पाप न दादी करना चाहती
थी, ना ही अब यह उसके हित में था। जब परिन्दों तक को उड़ने और
बसने की आजादी है, फिर ये उसके अपने ही क्यों इन सोच और संकोच
के दायरों में दुख पाएँ? सोचते–सोचते दादी घर वापस आ गई। उसके
अपने बीज से उपजी यह अमर–बेल पनपने के लिए, साँस लेने के लिए,
थोड़ी सी ताजी हवा और जमी ही तो माँग रही थी? बूढ़े–मरते पेड़ों
के नीचे चुपचाप भूखी और असहाय।
जहरीली–जंगली होती, तो कब की आगे बढ़–हावी हो जाती। सब तहस–नहस
कर देती। पर ये तो मधुबन के फल–फूल थे... एक गुणी माली के
हाथों प्यार से रोपे–रचाए हुए, सत्गुणी और संस्कारी। अब जब
सबकुछ पा लिया है... पहचान लिया है, तो सहारा तो देना ही होगा।
प्रसाद सा माथे से लगाना और सँभालना भी होगा। वक्त की आँधी में
भटकी यह पौध, विदेशी तटों पर जरूर जा उगी है, पर नसल–फसल सब
अपनी ही है। गुण और महक दोनों ही जाने–पहचाने हैं।
नई धरती में पनपती उसकी अपनी अमरबेल। दादी की बूढ़ी आँखों में
कर्तव्य और प्यार की चमक आ गई – अरे, इसका तो पत्ता–पत्ता सूखी
धरती को हरियाली से भर देगा। एक दिन फल–फूलकर जब यह खिलेगी, तो
महक देश–विदेश तक जा पहुँचेगी। जाती बहार भी जब पतझड को धरती
सौंपती हैं तो अगले मौसम के बीज बचा लेती है फिर वही क्यों
अपने बच्चों का गला घोंटे? बेटे–बहू को तुरंत ही फोन करना होगा
– 'बच्चे वापस पहुँच रहे हैं। अब आनेकी, ज्यादा सोचने की जरूरत
नहीं। शादी की तैयारियाँ वहीं और खुशी–खुशी करें...। उसका और
वाहे गुरू का असीस बच्चों के साथ है।'
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