अरे, इन अंग्रेजों ने हमारे धरम से ही तो लिया है, यह गौड का
कानसेप्ट। यही गौड हमारा ब्रम्हा, याने बनाने वाला, विष्णु,
याने चलाने वाला और शिव याने संहार करनेवाला है... मैं पंडित
जी के इस भोंडे व्याख्यान को सुन–सुन कर ऊब चुका हूँ। अब
गुस्सा भी आ रहा है। मेरा मन इन्हीं ख्यालों में डूबता–उतराता
छब्बीस साल पहले के ब्रिगेडियर बहल में उलझ जाता है।
तब वे कर्नल बने ही थे। मेरे बटालियन कमांडर बन कर आये थे। छः
फुट लम्बा कसरती बदन, यही चालीस के आस–पास रहे होंगे। गर्वीले
चेहरे पर नुकीली मूछें... १९७१ वाली लड़ाई में उन्हें अदम्य
साहस के लिये "वीर–चक्र" मिला था। मुझे याद है कि जब उनकी
पोस्टिंग हो कर आई थी तो मैं अभी अभी कप्तान बना था। उनके
वीर–चक्र के तमगे के कारण मेरे मन में उनके प्रति इज्जत तो
पहले से ही काफी थी, उनसे मिल कर वह दुगुनी हो गई।
आते ही दूसरे ही दिन अफसर मेस में उन्होंने मुझसे पूछा था,
"सुना है पंडित तुम कम्पनी के साथ दौड़ते हो?"
मैंने कुछ घबराते हुए, कुछ गर्व से कहा था, "हाँ सर।"
मैं पलटन का "पंडित" था, मैं, याने कैप्टेन नवल किशोर पाण्डेय।
मुझे सभी फौजी साथी 'पंडित' या 'किशोर' कहकर बुलाते थे।
चीकू सर, याने मेजर चोकालिंगम, हमारे एडजुटेन्ट थे। उन्होंने
ठहाका लगाया "सर, यह पंडित दौड़ता ही नहीं, सबसे तेज दौड़ता है।"
मैं सोच रहा था, इस चीकू के बच्चे को आज फिर चढ़ गई है। वैसे तो
यह हमेशा पिये रहता है, आज लगता है इसे कुछ ज्यादा ही चढ़ी है।
"अच्छा तो बच्चू, कल हो जाय हमारी तुम्हारी दौड़", कर्नल बहल ने
कहा था। मैं मन ही मन चीकू को कोस रहा था... कहाँ फँसा दिया इस
चीकू के बच्चे ने मुझे?
मैने झेंपते हुये कहा था, "सर ऐसा कुछ नहीं है, ये चीकू सर ऐसे
ही कहते हैं। मैं तेज–वेज नहीं दौड़ता, पर आप कहते हैं तो सुबह
लेफ्टिनेन्ट वर्मा को कम्पनी के साथ भेजकर आपके साथ दौड़ने
चलूँगा।"
और सुबह की दौड... बहल साहब उस दिन खूब दौड़े। फौज में पैतीस की
उम्र के बाद आठ मील दौड़ना पड़ता है, बाकी दस मील। कालूचक–जम्मू
सड़क पर चार मील दौड़ने के बाद उन्होंने कहा था, "मुझे भी तू दस
मील दौड़ायेगा क्या?"
मैंने कहा, "सर चाहें तो चलते हैं, नहीं तो यहीं से लौट चलें।"
"अरे नहीं यार, आगे चलेंगे।" और हम दौड़ते रहे।
जब अफसर मेस में लौटे तो हाँफते–हाँफते उन्होंने चीकू को
बुलाया था, "एडजुटेन्ट साहेब, यार इस पंडित में तो बहुत दम है,
पर मैं भी कोई कम नहीं हूँ"।
फिर मेस–हवलदार रामास्वामी पर चिल्लाते हुये बोले, "अरे ओ
रामास्वामी, आज से सारे बचे–खुचे अंडे इस पंडित को खिला दिया
कर, नहीं तो एक दिन हम तेरे कप्तान साहब को दौड़ में पछाड़
देंगे।"
रामास्वामी और चीकू हँसते रहे और हमारी दौड़ की थकान धीरे–धीरे
ठहाकों में डूब गई। तब से हम जूनियर सीनियर अफसर कम थे, दोस्त
ज्यादा।
इसलिये जब मिसेज बहल पलटन में आई तो मैं उनके परिवार का एक
सदस्य बन कर रह गया था। दो बेटियाँ और बेटा संजय, सबसे छोटा।
बड़ी बेटी की शादी उसी साल दिल्ली करके आयी थी मिसेज बहल। दूसरी
बेटी, अठारह वर्षीय सोनम, साथ लाईं थीं। संजय कोई दस–बारह का
रहा होगा।
याद नहीं आ रहा है कि यह सोनम की युवा उम्र का आकर्षण था या
कर्नल बहल की अक्खड़ आत्मीयता, जो मुझे उनके पास ज्यादा खींचती
गई। धीरे धीरे उनके व्यक्तित्व के कई पहलू सामने आये... एकदम
निर्भय... अल्हड़ व्यक्तित्व। डेरा बाबा–गाजी खाँ में जन्मे,
१९४७ में सब कुछ लुटाकर दिल्ली की सड़कों पर शरणार्थी बने इस
युवक में भारत के प्रति अगाढ़ निष्ठा स्वाभाविक थी, अपने देश पर
गर्व स्वाभाविक था। उनकी इस अलहड़ निर्भयता तथा वीरोचित कृत्यों
का दर्शन भारत की जनता को १९७१ की लड़ाई में हुआ था।
मेरी पलटन में, कर्नल साहब अफसरों के बीच अपनी ईमानदारी,
कर्तव्यनिष्ठा तथा अनुशासन के लिये प्रसिद्ध थे। जवानों के
प्रति उनकी सहानुभूति देखने लायक थी। जाने कितने जवानों को
उन्होंने अपनी तनखाह से पैसे निकालकर उनके बच्चों की शादी,
खिलौने आदि के लिये दिये होंगे। ब्रिगेडियर बनने वाली
ट्रेनिंग, एच सी कोर्स, यानि हायर कमान्डर कोर्स के लिये जाते
वक्त उनके इन गुणों के कारण लोगों का प्यार जैसे उमड़ पड़ा था।
स्टेशन पर उन्हें बिदाई की सलामी देने हमारी अपनी पलटन के हजार
लोग ही नहीं, बल्कि दूसरी कई पलटनों के अफसर तथा जवान भी
उपस्थित हुये थे। बिदाई में सलामी में एटेन्शन की मुद्रा में
खड़ी वह हजारों की भीड़... ।
और आज इस अन्तिम बिदाई में... जम्मू–कालूचक से बहुत दूर... इस
अनजान जगह में, मुठ्ठी भर, बस एक दर्जन लोग...।
उस दिन जो हमारे रास्ते अलग हुये वे एक दिन फिर अमेरिका आकर
मिले। उनके एक भाई अमेरिका में थे, जिन्होंने बहल साहब को
बुलाया। सोनम की शादी एक फौजी अफसर के साथ करके, उसका परिवार
बसा के, यहाँ आ गये थे, अमेरिका में, संजय का भविष्य बनाने।
आने के तीन चार महीने बाद ही उन्हें मेरे बारे में पता चला तो
अचानक मुझे फोन किया। वही अक्खड़पन, वही उन्मुक्त आत्मीयता...
उनके दिल की गर्मी को, दूरी के बावजूद भी मैं अपने पोर–पोर में
महसूस कर रहा था। मैं तो गदगद था, वे भी बड़े खुश लग रहे थे।
इतने दिनों की बिछड़ी यादों को ताजा करते, मेरी, अपनी, पोस्टिंग
को पूछते बताते, उन्होंने घंटों फोन पर बात की।
कहते रहे, "यार पंडित, अब तो मैं यहाँ आ ही गया... चाहता हूँ
किसी तरह संजय का जीवन बन जाय तो मुझे फुर्सत हो जाय। वहाँ
दिल्ली में बड़े अच्छे कालेज से बी ए किया पर नौकरी के कोई आसार
नहीं थे, फौज में यह जाना नहीं चाहता था। अतः यही एक रास्ता
दिखा। शायद यहाँ सेटल होने का चान्स मिल जाय।"
मैंने पूछा था, "वह तो ठीक हैं संजय की पढ़ाई के लिये कुछ न कुछ
तो पैसे चाहिये ही होंगे? आप क्या कोई नौकरी करोगे या कर रहे
हो?"
वे हँसते हुये, मेरे बिहारीपने को याद दिलाते हुये, बोले "तेरी
पुरानी आदत गई नहीं है बबुआ, अब भी दूसरों की फिकर नहीं जाती।
इतना सोच रहा है मेरे बारे में, क्या कोई नौकरी दिलवायेगा?
मैंने तो अपनी नौकरी ढूँढ़ ली है। कब तक बैठा रहता, महीनो
निठल्ला था, पर मन नहीं लगा और पैसों की भी जरूरत महसूस होने
लगी थी। बाकी कुछ तो इस उमर में मिला नहीं, एक टेकनीशियन की
नौकरी कर ली है।"
उनके मन का दर्द उनकी आवाज में अब झलकने लगा था। मेरे मन में
भी एक टीस सी उठी थी, मैं मन ही मन सोच रहा था इंजीनियरिंग
कालेज का टापर, कोर ऑफ इंजीनियर्स का ब्रिगेडियर, किस तरह अपने
गरूर को ताक पर रख कर टेकनीशियन की नौकरी करता होगा।
वे शायद मेरी चुप्पी के चलते मेरे मन का दर्द भाँप गये थे,
बोलते गये "बड़ी कोशिश की, इस उमर में कोई नई चीज पढ़ भी नहीं
सकता और यहाँ इस देश की डिग्री के बिना कोई इज्जत की नौकरी भी
नहीं मिलती। खैर संजय अच्छा कर रहा है, यही मेरी उपलब्धि है।"
आज उस फोन–कॉल को कोई दस वर्ष बीत गये हैं। बहल साहब की बात
ठीक निकली। जो संजय वहाँ बी. ए. करके साल भर निठल्ला बैठा था,
वही दो साल में एम. बी. ए. करके एक छोटी कम्पनी में बड़ी अच्छी
नौकरी में लग गया है। पिछले वर्ष वह वाइस–प्रेसिडेन्ट भी बन
गया है। कम्पनी बढ़ती गई, वह भी बढ़ता गया। अब उसके उपर बड़ी
जिम्मेदारियाँ हैं। हफ्तों बिजनेस के कारण दौरों पर रहना पड़ता
है। शादी भी हो गई।
शादी कराकर जब बहल साहब भारत से लौटे थे तो मेरे घर आये थे।
बातचीत में कुछ पुरानी यादें फिर लौट आई, और उन्हें अपने
पुराना गाँव का मदरसा याद आने लगा था।
जीवन की मजबूर घड़ियों में हम सब यादों का दामन थाम कर पता नहीं
क्यों अतीत की गोद में छुप जाना चाहते है... शायद इसलिये कि उस
गोद में... केवल उसी गोद में... हमें अपनापन मिलता है, बाकी सब
दुनिया तो औरों की है न। वर्तमान जीवन के थपेड़े देता है, और
भविष्य अगली पीढ़ी के लिये सुरक्षित है। केवल अतीत ही अपना है।
अतीत की यादें आम आदमी को जीवन के दर्शन की ओर उड़ा ले जाती
हैं। बहल साहब, प्रसिद्ध कवि जौक की पंक्तियाँ, जो कभी बचपन
में मदरसे में सुनी थी, गुनने–गुनगुनाने लगे थे--
लाई हयात आये, कजा ले चली, चले।
अपनी खुशी न आये, न अपनी खुशी चले।
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे।
पर क्या करें जो काम ना बे दिल लगी चले?
दुनिया में किसने राहे फना में दिया है साथ?
तुम भी चले चलो यूँ ही, जब तक चली चले।
संजय ने कल सुबह ही फोन किया था, "कैप्टेन किशोर, मेरे डैडी
नहीं रहे। ही पास्ड अवे लास्ट नाइट।" मुझे एक धक्का सा लगा था।
मैंने पूछा था, "कैसे? क्यों, क्या हुआ था? पिछले वीक–एन्ड को
अस्पताल में उनसे मिलने गये थे तब तो वे एकदम ठीक लग रहे थे,
घर जाने वाले थे।"
"हाँ, वे तो घर आ भी गये थे, ठीक–ठाक ही थे। इधर परसों थोड़ी
तबीयत खराब हुई, मैंने कहा कि चलिये अस्पताल। पर पता नहीं
क्यों जाने से मना कर दिया। माँ ने भी कहा, पर अपनी ज़िद पर अड़े
रहे। वहाँ नहीं जाना मुझे, वहाँ जाकर क्या करूँगा, कितनी बार
तो हो आया हूँ। मुझे मालूम है मुझे क्या बीमारी है.। वहाँ जाने
पर ये सारे डाक्टर मेरा बदन काट–कूट कर मुझे जिलाने की कोशिश
करेंगे। क्या करूँगा ऐसे जीकर मैं?' आदि आदि बोलते रहे, "आप तो
जानते ही हैं, डैडी बड़े जिद्दी थे।"
"हाँ, जानता हूँ, मैंने मन ही मन सोचा था। जीवन भर आत्म–निर्भर
रहने वाले इस आदमी को जीवन की सारी उपलब्धियों के बावजूद,
दूसरों पर बोझ बन कर रहना अपनी अस्मिता के खिलाफ लग रहा था। वे
किसी पर निर्भर रहकर जीना नहीं चाहते थे। सब कुछ तो उपलब्ध हो
ही गया था उन्हें।
पिछले शनिवार को जब मिलने गया था अस्पताल में तो कहने लगे थे,
"यार, अब सब कुछ तो हो ही गया है, बच्चे सब सेटल हो गये। सबका
अपना अपना परिवार है, नौकरियाँ हैं। सब अपने में व्यस्त हैं।
यही मेरी उपलब्धियाँ हैं। और क्या चाहिये? अब तो भगवान जितनी
जल्दी अपने यहाँ बुला ले उतना अच्छा है... नहीं तो मारा–मारा
फिरूँगा, बच्चों पर बोझ बन कर।"... इन बातों के पीछे छिपा
यथार्थ, उनकी मौत की खबर सुनने के बाद मेरे सामने जैसे साक्षात
खड़ा हो गया था।
अपने को संयत करते हुये, मैं संजय से पूछता हूँ, "माँ कैसी
है?"
"माँ तो कुछ बोलती ही नहीं।"
"अच्छा मैं अभी आता हूँ।"
संजय के स्वर में बड़ी घबराहट थी, अनुनय था... "किशोर जी, मुझे
इसके बारे में कुछ भी पता नहीं है, क्या क्या करना होगा,
डेड–बौडी के साथ। और मुझे परसों ही मैक्सिको जाना है, दो
मिलियन के कान्ट्रेक्ट का सवाल है, मैंने ही निगोशियेट किया
है।"
डेड–बौडी वाली बात पर एक वितृष्णा सी होती है मन में। एक
कसैलापन, एक आक्रोश, पता नहीं किस पर, पता नहीं क्यों?
मैं दो चार लोगों को फोन कर पंडित जी का पता लगाता हूँ। यहाँ
पंडित बड़ी कठिनाई से मिलते हैं। वह भी श्राद्ध कराने के लिये।
हिन्दुत्व के कर्म–काण्ड भी तो उलझे हुये हैं, तमिल पंडित,
पंजाबी हिन्दू का दाह–संस्कार करने के लिये जल्दी तैयार नहीं
होता। परिवार को भी लगता है, उनके प्रियजन की समुचित क्रिया
नहीं हुई। जो पंडित जी मिले, उन्होंने कहा कि उन्हें पहले से
ही चार जगहों पर जाना है। पर ग्यारह बजे वे कुछ समय निकाल
पायेंगे। मैंने धन्यवाद दिया... इन्हीं खयालों में डूबा हूँ कि
सामने हलचल होती है।
पंडित जी जोर शोर से कुछ पढ़ रहे हैं... नैनम छिन्दन्ति
शस्त्राणि। वहीं घिसा–पिटा श्लोक। अब शव–पेटी बन्द की जा रही
है। मैं झटक कर बहल साहब को एक अन्तिम प्रणाम करता हूँ... उनकी
उजली मूँछें वैसी ही दीख रही हैं तनी हुई... चेहरे पर लगता है
एक गौरवमय शान्ति... शव–पेटी बन्द हो गई है। उसे दो अमेरिकन ले
जा रहे हैं बगल के कमरे में जहाँ भट्टी है, जलाने वाली।
दोनों आपस में बातें कर रहे हैं... 'पहले सिर वाला हिस्से आगे
करो, सिर जलने में ज्यादा वक्त लगता है" मुझे "सत्य
हरिश्चन्द्र" नाटक के जल्लाद याद आते हैं। मिसेज बहल रो रही
है... मेरी ओर मुखातिब होकर कहती है... . 'सिर तो उत्तर की तरफ
होना चाहिये न?'... अब तक मैं संयत था, पर मिसेज बहल का यह
वाक्य मुझे भी रूला जाता है... मैं चुपचाप सिसकता खड़ा हूँ...
पर सब जल्दी में हैं, जल्लाद, बेटा, सब। दुनिया का क्रम एक
क्षण थम नहीं सकता।
संजय का प्लेन दो बजे है, वह जल्दी में हैं। बीबी पर सब छोड़ वह
चला गया है। बाकी सब जाने को तैयार बैठे हैं। मैं भी चलूँ।
मैंने भी तो आधे दिन ही ऑफ लिया था न।
पतझड़ के इस मौसम में हवा कभी मन्द, कभी जोरों से चल रही है।
लाल–पीले सूखे पत्ते हर जगह उड़ रहे हैं। मेरी कार मेरे ऑफिस की
ओर जा रही है, मैं अनमना, पता नहीं क्या सोच रहा हूँ, जीवन...
बहल साहब का, अपना... और इस जीवन की उपलब्धियाँ, आदि–आदि। हवा
साँय–साँय कर रही है, मुझे बहल साहब द्वारा सुनाई गयी कवि जौक
की आखिरी पंक्तियाँ याद आ रही हैं :
जाते हवाये–शौक में हैं, इस चमन से जौक,
अपनी बला से बादे–सबा अब कभी चले। |