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					 वैसे तो एक दोस्त जैसी माँ की तरह वो खुद ही अपने बच्चों 
						की इच्छा का ध्यान रखते हुए बड़ी शराफत से कार पार्किंग में 
						रोक देती और बच्चों को चिढ़ाने के लिए उधर नहीं मोड़ती तो 
						कार में उसका मनपसंद एक तूफान उठ जाता, वो तूफान जिसका हर 
						स्वर उसके लिए संगीत था। पित्जा हट ही क्यों पचास कदम पर 
						इठलाते खड़े मैक्डोनल से अपना मन पसन्द बर्गर लिए बिना 
						समिधा आगे बढ़ती? ये कभी हो सकता है कि यशु कुछ ले और समिधा 
						खाली हाथ रह जाए। अपने पापा की अंगुली थामें, उनको लगभग 
						घसीटती बोलती, "डैडू, जब तक मम्मी यशु के लिए पित्जा लेती 
						है, हम बर्गर ले लेते हैं।" और दोनों अपने बच्चों के रिमोट 
						कंट्रोल में खुशी–खुशी बंधे इसे समुद्र–तट जाने की 
						तैयारियों का हिस्सा माने चल देते। 
 प्रकृति का ये भी अजब संयोग हैं कि अपने ही बच्चे कैसे 
						माँ–बाप में से किसी एक को अपने अधिक करीब मान लेते हैं और 
						माँ–बाप भी, दोनों को एक–सा प्यार देने वाले, कैसे उनके 
						बीच अनचाहे बंट जाते हैं। यशु का अपनी माँ के लिए अतिरिक्त 
						प्यार और समिधा का अपने पापा की हर जगह अंगुली थामे चलना, 
						प्रकृति का अजब संयोग ही तो है।
 
 पर आज किसी ने कुछ नहीं कहा और 'बीच' जाने के बावजूद कोई 
						तैयारी नहीं हुई। फिर बिना तैयारी के वो क्यों जा रही है। 
						और बिना तैयारी के वो सवाना पार करके मरावाल रोड पर आ गई 
						है जो उसे अपनी खूबसूरत घुमावों में बांधती मरॉकस के 
						समुद्र तट पर छोड़ देगी। उसने बहुत दिनों बाद बोर्ड पर लिखा 
						पढ़ा –– मरॉकस 14 किलोमीटर, लॉस कूवास बे 23 किलोमीटर। उसे 
						याद है जब वो पहली बार इस ओर आई थी और नवीन ड्राइव कर रहा 
						था तो उसने रास्ते की हर वस्तु को अपनी आंखों के कैमरे में 
						कैद कर लेना चाहा था। हर बोर्ड को, हर मकान को एक उत्सुक 
						बच्चे–सा अपने मन के निश्छल कोने में सहेज रही थी। कितनी 
						मासूम यादें जुड़ी है त्रिनिडाड की इन सड़कों के साथ। मासूम 
						यादेंॐ
 
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 कितनी मासूम थी वो, आज से पंद्रह बरस पहले। कितना मासूम था 
						उसका अपनी बहन सुधा के साथ प्यार। दोनों बहनें थीं और 
						सहेलियाँ भी। सिमटी सकुची सुधा उससे एक बरस बड़ी ही सही, पर 
						वो उसे दीदी ही कहती, पर इस दीदी के सम्बोधन ने दोनों के 
						बीच कोई दूरी नहीं पैदा होने दी। दोनों दिल्ली के एक ही 
						कॉलेज, कमला नेहरू महाविद्यालय में पढ़े, दोनों की एक ही 
						सहेलियाँ, दोनों की कपड़ों की एक ही पसन्द, एक ही साथ घूमना 
						– फिरना –– जुड़वा नहीं फिर भी जुड़वाँ–सी। जुड़वा–सी, जुड़वा 
						नहींॐ दोनों की सोच में बहुत बड़ा अन्तर था। सुधा, एक ठहरी 
						हुई शान्त शीतल झील–सी और श्रुति पहाड़ों के बीच पत्थरों से 
						टकराती, उलझती दौड़ती अपने लक्ष्य तक किसी भी तरह पहुँचने 
						को बलखाती नदी–सी। श्रुति आरम्भ से ही बहुत महत्वाकांक्षी 
						रही है, घर में जो भी चीज आई, उसे पहले मिलनी चाहिए और 
						छोटी होने के कारण तथा सुधा के स्वभाव के कारण उसे मिलती 
						भी रही।
 
 प्रकृति में अनेक विरोध साथ–साथ एक दूसरे के साथ जीते हैं 
						और ऐसा ही कुछ प्रकृति ने इन दोनों के साथ किया था। कहीं 
						भी जाना हो किसी शादी–ब्याह में, पार्टी में, दोनों साथ ही 
						जातीं। एक पल भी एक दूसरे से अलग रहना दोनों के लिए असह्य 
						था। श्रुति को याद है कि एक बार सुधा को अपनी नौकरी का 
						इंटरव्यू देने के लिए चंडीगढ़ जाना था और श्रुति की 
						परीक्षाएँ चल रही थीं। दोनों इस बिछोह के कारण बहुत रोई 
						थीं। माँ ने हंसते–समझते हुए कहा, "निगोड़ियों, जब तुम्हारी 
						शादी होगी तो क्या करोगी?" श्रुति इस पर एकदम बोली थीं, 
						"माँ, जहाँ दीदी की शादी होगी मैं भी वही करूँगी, नहीं तो 
						नहीं करूँगी।"
 
 किसी तरह माँ के राजी करने और पिता की डाँट खाकर सुधा जाने 
						को तैयार हुई और श्रुति परीक्षा के लिए घर रहने को। सुधा 
						को शताब्दी में बिठा दिया गया, स्टेशन पर से उसे चाचा ले 
						जाएँगे और इधर श्रुति आंसू भरी आंखों के साथ किताबों में 
						धुँधले अक्षर पढ़ने को विवश हो गई। बहुत मुश्किल से श्रुति 
						ने रात काटी, सुबह परीक्षा के लिए गई और पता नहीं उसके 
						दिमाग में क्या भूत सवार हुआ कि बिना किसी को बताए सीधा बस 
						अड्डे पहुँच गई और चंड़ीगढ़ की बस में बैठ गई। वो पहली बार 
						अकेले सफर कर रही थी। वो लोग अक्सर सपरिवार चाचा–चाची से 
						मिलने कार में ही जाते थे। सफर इतनी जल्दी कट जाता था कि 
						पता ही नहीं चलता था, पर आज तो समय जैसे ठहर गया था। 
						जैसे–तैसे शाम सात बजे जब उसने चाचा के घर की डोरबेल बजाई, 
						चाची ने दरवाजा खोला तो श्रुति को सामने देखकर अवाक् रह गई 
						पर श्रुति 'दीदी कहाँ हैं, दीदी कहाँ हैं . . .' कहती घर 
						के कोने तलाशने लगी। अवाक् चाची को जब तक कुछ समझ आया तब 
						तक श्रुति घर में दीदी को न पाकर फिर चाची के सामने थी। 
						"चाचीॐ दीदी कहाँ हैं?"
 
 चाची क्या जवाब देती। उसे तो दोनों बहनों के व्यवहार पर 
						हैरानी हो रही थी। सुधा ने जैसे ही इंटरव्यू खत्म किया, 
						चाची के कान खा लिए कि उसे आज ही वापस जाना है। उसे बहुत 
						समझाया पर . . .अंततः चाचा उसे लेकर दिल्ली तक छोड़ने के 
						लिए बस अड्डे चल दिए। श्रुति को जब यह पता चला तो वो 
						फूट–फूट कर रो पड़ी। रोते–राते उसने बताया कि कैसे वो घर 
						में बिना किसी को बताए अपनी दीदी से मिलने चली आई। चाची तो 
						सकते में आ गई, वहाँ घर में
 लोग कितना परेशान हो रहे होंगे। चाची ने सबसे पहले दिल्ली 
						फोन किया, श्रुति को फोन पर ना लाकर उसे उसके पिता की डाँट 
						से तो बचा लिया पर फोन खत्म करते ही श्रुति को वो डाँट 
						लगाई . . .वों डाँट लगाई कि . . .। क्या संयोग था, दोनों 
						बहनें डाँट भी साथ–साथ खा रही थीं ––
 एक दिल्ली में और दूसरी चंडीगढ़ में।
 
 श्रुति जब दिल्ली पहुँची तो पहले दोनों बहने गले मिल कर 
						फूट फूट कर रोई। दोनों को रोता देखकर माँ–बाप अपने डाँट 
						कार्यक्रम को भूल गए और रोने के बाद दोनों बहनों ने एक 
						दूसरे से खूब शिकवे शिकायतें की। घर में खूब हंगामा रहा। 
						काफी दिनों तक दोनों की यह हरकत घर में और सहेलियों के बीच 
						टांग खिंचाई का कारण बनीं।
 
 पर माँ बहुत चिंता में पड़ गई। और उस दिन तो उसकी चिंता और 
						बढ़ गई जब उसकी बचपन की सहेली राधा श्रुति के लिए रिश्ता 
						लेकर आई। चिंता रिश्ते के कारण नहीं थी क्योंकि ऐसा रिश्ता 
						तो नसीबों वालों को ही मिलता है –– भरा पूरा घर बच्चे 
						विदेश में खूब कमाने वाले और किसी तरह की कोई बड़ी 
						जिम्मेवारी नहीं। उन लोगों ने श्रुति को एक पार्टी में 
						देखा था। वैसे तो दोनों बहनें देखने में बहुत सुन्दर थीं 
						पर श्रुति के नैन–नक्श सुधा से तीखे थे। फॉरेन में रहने 
						वाले
 हिन्दुस्तानियों के पास पैसे की कोई कमी तो नहीं होती 
						इसलिए कोई माँग नहीं, बस कोई माँग होती है तो कि लड़की 
						हिन्दुस्तानी हो और देखने–सुनने में सुन्दर। श्रुति के पास 
						इसकी कोई कमी नहीं थी। लड़का भी देखने–सुनने में सुन्दर और 
						बातचीत में बहुत भला था।
 
 पर माँ की चिन्ता कुछ और थी। माँ जानती थी कि चाहे श्रुति 
						के उपर विदेश जाने का भूत सवार है और उसने कई बार कहा भी 
						है कि वो शादी करेगी तो फॉरेन वाले से पर अकेले नहीं। इधर 
						सुधा के मन में किसी विदेशी से शादी करने का मन नहीं है। 
						माँ भी यही चाहती है कि कम से कम एक बेटी तो देश में रहें। 
						श्रुति बहुत जिद्दी भी है। एक बार अगर ठान ले जो ठस से मस 
						नहीं होती। पर अपने पापा के सामने लाचार हो जाती है। माँ 
						ने अपने पास यही आखिरी हथियार रखा हुआ है। श्रुति ने 
						ज्यादा चूं–चपड़ कह तो . . .पर माँ यह नहीं चाहती की शादी 
						के जैसे मामले में वह अपनी बच्चियों पर कोई दबाव डाले 
						क्योंकि शादी के मामले में उसने भी कोई दबाव नहीं सहा।
 
 पर माँ ने जब श्रुति से रिश्ते की बात की तो उसने हंगामा 
						खड़ा कर दिया। इस बात पर उसे पिता की डाँट भी पड़ी और जिस 
						दिन डाँट पड़ी वो दिन और दोनों बहनों का रोते गुजरे, जो माँ 
						को अच्छा नहीं लगा।
 माँ ने राधा से कहा, "राधा, देख बड़ी के होते हुए छोटी का 
						रिश्ता करेंगे तो लोग क्या कहेंगे। उनका छोटा बेटा भी तो 
						शादी लायक है। उसकी भी बात चला।"
 "तेरे कहने से पहले मैंने उनसे बात की थी, पर वो नहीं 
						चाहते की एक ही घर से दोनों बहुएँ आएँ। देख बहना, मेरा 
						विचार यही है और मैंने कई घर ऐसे देखे भी हैं कि देवरानी 
						और जेठानी बनते ही बहनों में बनती नहीं हैं।"
 
 "राधा इनकी बात अलग है। मेरे कहने पर तू एक बार उनसे बात 
						तो चला।"
 "क्या बात चलाऊँ, एक तो उनके बड़े बेटे ने तेरी छोटी को 
						पसन्द भी कर लिया है और दूसरे उनका छोटा वाला अभी शादी 
						करने को बिल्कुल राजी नहीं हैं।"
 "देख तेरी तो वो बहुत मानते हैं, अगर तू कहे तो मैं भी 
					तेरे साथ चलती हूँ और अपनी बेटियों के लिए झोली फैला कर 
					खुशियाँ माँग लेती हूँ। अगर उपर वाले ने चाहा, संजोग हुए 
						तो रिश्ता हो सकता है। मुझे तो अपने कन्हैया पर पूरा भरोसा 
						है।"
 
 और माँ का भरोसा नहीं टूटा। बस हुआ यह कि सुधा का बड़े से 
						और श्रुति का छोटे से रिश्ता तय हो गया। इस बदलाव पर दोनों 
						बहनें कुछ नहीं बोलीं। दोनों इस बात से खुश की एक ही 
						परिवार में जा रही हैं। श्रुति ने अपने होने वाले पति से न 
						कोई बात की और न अपनी कोई पसन्द–नापसन्द जाहिर की। श्रुति 
						के लिए यही बहुत था कि दोनों बहनें विदेश में ब्याही जा 
						रही हैं और एक ही घर में जा रही हैं।
 
 दोनों बहनें, सात समुंदर पर कैरबियन में स्थित एक छोटे से 
					द्वीप त्रिनिडाड में ब्याह कर आ गई।
 
 श्रुति को लगा कि वह किसी सुंदर सपने में तैर रही हैं। 
						त्रिनिडाड आने से पहले वो ये सोच–सोच कर ही पागल हुई जा 
						रही थी कि त्रिनिडाड के रास्ते वो लंडन और न्यूयार्क में 
						रुकते हुए जाएगी। उसे याद है कि जब वो किसी ऐसे व्यक्ति से 
						मिलती थी जो अमेरिका से आया हो तो उसे देखकर सोचती कि हाय 
						कितना खुशकिस्मत है ये। पर यही खुशकिस्मती उसे भगवान ने दे 
						डाली।
 
 समुद्र भी श्रुति को बहुत आकर्षित करता रहा है। अनेक बार 
						उसकी जिद्द पर एल•टी•सी• लेकर पूरा परिवार गोवा घूम कर आया 
						है।
 
 त्रिनिडाड पहुँचकर उसे लगा जैसे वो अपने स्वप्निल देश 
						पहुँच गई। पिआरको एयेरपोर्ट पर उतरने के लिए जब जहाज द्वीप 
						के चक्कर द्वीप के चक्कर लगा रहा था तो श्रुति ने समुद्र 
						की गोद में शांत त्रिनिडाड को देखा तो देखती ही रह गई। 
						नवीन उसे बता रहा था कि . . .यह सैन फेर्नेडो दिखाई दे रहा 
						है, ये रहा कूवा और ये जो पहाड़ी और समुद्र के साथ जो दिखाई 
						दे रहा है . . .वो दो ऊँची–सी बिल्डिंग . . .पोर्ट ऑफ 
						स्पेन . . .कैपिटल है . . .एक उत्सुक बच्चे–सी जिसे अपना 
						मनपसन्द
						खिलौना मिल गया हो। श्रुति न जाने कहाँ खो गई थी।
 
 पहली नज़र में श्रुति को त्रिनिडाड बहुत अद्भुत लगा था . . 
						.अद्भुत इसलिए नहीं कि कुछ अलग था बल्कि इसलिए की काफी कुछ 
						वैसा ही था जैसा वो छोड़कर आई थी। नवीन ने कुछ बताया तो था 
						त्रिनिडाड के बारे में . . .पर उसे विश्वास नहीं हुआ था . 
						. .सात समुंदर पार भी एक ऐसा देश हो सकता है जो इंडिया 
						जैसा है . . .पचास प्रतिशत लोग भारतीय मूल के . . .दीवाली 
						मनाते हैं . . .दीवाली नगर है यहाँ . . .होली मनाते हैं . 
						. .शिवरात्री, जन्माष्टमी को मंदिरों में पूजा होती है . . 
						.खाने
						में पम्पकिन, चना और करेले खाते हैं . . .जगह–जगह रोटी–शॉप 
						हैं . . .छोले भठूरों जैसे डबल्स हैं . . .बलंचीशॉयर में 
						अपनी एक गंगा हैं।
 
 खूब सारी समानताएँ पर बहुत सारी भिन्नताएँ। हिंदुस्तान में 
						दीवाली का मतलब होता है खूब खाना–पीना ऐश करना और यहाँ लोग 
						दीवाली से एक महीना पहले उपवास रखते हैं . . .उपवास का 
						मतलब है शराब और मीट खाने से छुट्टी। बड़ी श्रद्धा से लोग 
						पंडितों के अंग्रेजी में प्रवचन सुनते हैं। हिन्दी फिल्मी 
						गीतों के प्रेमी इन प्रेमियों को हिन्दी नहीं आती। इनके 
						पूर्वज केवल भोजपुरी जानते थे, अँग्रेजी बिल्कुल नहीं और 
						अब ज्यादातर लोग केवल अँग्रेजी जानते हैं और हिन्दी 
						बिल्कुल नहीं। हिन्दुस्तान में जो हिन्दी बोलता है उसे 
						अनपढ़ ही मान लिया जाता है और यहाँ जो पंडित अपने अंग्रेजी 
						प्रवचन में हिन्दी या संस्कृत का इस्तेमाल करता है उसे बड़ा 
						विद्वान्।
 
 इसके अलावा सौ से अधिक हिन्दुस्तानी परिवार है जो नौकरी और 
						व्यापार के चक्कर में यहीं बस गए हैं। भारतीय उच्चायोग और 
						महात्मा गांधी सांस्कृतिक केन्द्र में काम करने वाले लोगों 
						के पंद्रह के लगभग परिवार हैं। उनका अपना समुदाय है . . 
						.कुछ पश्चिमी और बहुत कुछ भारतीय बने रहने की चिंता और 
						डॉलेरी प्रेम में लिपटा हुआ। खान–पान और रहन–सहन पश्चिमी, 
						त्रिनी और भारत संस्कृति का अजब–सा मिश्रण।
 
 ऐसे में अकेलेपन का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था और जब 
						दोनों बहनें साथ थीं।
 
 पर एक देश को एक यात्री के रूप में भोगना और उसमें एक 
						निवासी के रूप में रहना अलग–अलग अनुभव हैं। छोटे–से द्वीप 
						की अपनी सीमाएँ हैं और उसके समाज की अपनी विसंगतियाँ।
 
 श्रुति को तो काफी दिन तक बहुत अच्छा लगता रहा . . .खूब 
						सारा पैसा . . .पेट्रो डॉलर के आर्थिक आधार पर धीरे–धीरे 
						समृद्धता की ओर कदम बढ़ता देश . ..पश्चिमी पहनावा . . .कोई 
						किसी में दखल नहीं देता . . .आपके साथ आपके घर में आपकी 
						पत्नी रह रही है या आपकी दोस्त हमें क्या लेना और लेना भी 
						हो तो उसे जाहिर नहीं होने देंगे . . .सब अपने में मस्त . 
						. .खाओ पीओ मस्त रहो की जिंदगी . . .कहीं कोई हड़बड़ाहट 
						नहीं।
 
 धीरे–धीरे मस्त जीवन का रंग श्रुति पर चढ़ने लगा। साड़ी और 
						सलवार की जगह पेंट, स्कर्ट और टॉप्स ने ले ली . . .पार्टी 
						में कोक जूस और नारियल पानी की जगह वाईन और कभी–कभी स्कॉच 
						और बियर ने ले ली। पहले–पहले तो साड़ी में लिपटी भाभी तुलना 
						में अपनी माडर्न होती पत्नी को देखकर नवीन को अच्छा लगता। 
						बड़े भाई के साये में पले और उसके साथ व्यापार में होने के 
						कारण दब्बू रहे नवीन को श्रुति का यह रंग एक तुष्टि देता 
						परन्तु उसके पारिवारिक संस्कार उसे कचोटते भी रहते।
 
 त्रिनिडाड में पहले बड़े भाई, राकेश, इस्पात में नौकरी के 
					चक्कर में आया और अगले साल ही उसने जुगाड़ करके नवीन को बुला 
					लिया। राकेश शुरू से ही बहुत प्रैक्टिकल रहा है और अपने इसी 
					दृष्टिकोण के साथ वो बहुत जल्दी ही अपना व्यवसाय जमाने में सफल 
					हो गया। राकेश ने त्रिनिवासियों की भारतीय वस्तुओं के प्रति 
					ललक की नब्ज को पकड़ लिया और यह उसकी व्यावसायिक बुद्धि का ही 
					प्रमाण था कि उनका बिजनेस जम गया। नवीन को व्यापार की न तब समझ 
					थी और न ही अब है। उसकी सारी समृद्धि अपने भाई राकेश की ही 
					जैसे दी हुई है। यही कारण है कि नवीन के लिए अपने भाई की बात 
					पत्थर पर लकीर थी और महत्वाकांक्षी श्रुति को ये लकीरें पसन्द 
					नहीं थीं। धीरे–धीरे इन लकीरों ने अपने निशान छोड़ने शुरू कर 
					दिए। प्यारी दीदी का समझाना धीरे–धीरे उसे अखरने लगा। उसे लगने 
					लगा कि दीदी उससे जलती है। उसने किसी की भी बात पर ध्यान देना 
					बंद कर दिया। नवीन के माध्यम से उसे समझाने का सिलसिला 
					पति–पत्नी में दरार पैदा करने लगा। दो ध्रुवों के बीच फँसे नवीन की अपनी सोच दम तोड़ने लगी। मेरा गर मेरा 
						बिजनेस, मेरी जिंदगी और अनेक मेरों के बीच अपनों से कटती 
						श्रुति अनदेखी दिशाओं की ओर मस्ती से उड़ने लगी। बच्चों की 
					माँ के स्थान पर अपने बच्चों की दोस्त बनने की सोच ने घर 
						को दीवारों में बदलना शुरू कर दिया। श्रुति को समझ नहीं आ 
						रहा था कि ये हिन्दुस्तानी लोग इस बदलती दुनिया में अपनी 
						औरतों को आगे बढ़ता क्यों नहीं देख पाते हैं।
 
 यही सवाल उसने अपनी दीदी से किया था और सुधा ने शांत भाव 
					से कहा था, "श्रुतु, कोई तुझसे जलता है या हम तुझे आगे नहीं 
					बढ़ने देना चाहते हैं, इस बात को दिमाग से निकाल दे। मेरी बहन, 
					अति हर चीज की बुरी होती है। जीवन में संतुलन बहुत जरूरी है। 
					जीवन का दूसरा अर्थ पानी भी होता है पर यही पानी जब असंतुलित 
					होकर अपने किनारे तोड़ता है तो नदी अपनी पहचान तो खोती ही है 
					अपने आस पास भी तबाही लाती है। जिस द्वीप में हम आज निश्चिंत 
					बैठे हैं जब उसे घेरे समुद्र अपनी मर्यादा खो देगा तो क्या 
					होगा मेरी बहन। हम ये नहीं कहते कि तू अपने हिसाब से जिंदगी मत 
					जी पर उसकी कुछ तो सीमा हो।"
 "दीदी, आसमान में उड़ने वाले पंछी की कोई सीमा नहीं होती . 
						. ."
 "होती है श्रुतु होती है, आकाश उसकी सीमा होता है।"
 "पर मेरी कोई सीमा नहीं है दीदी। और दीदी, आप मुझे सीमा का 
						पाठ पढ़ा रही है, ये पाठ आप नवीन को क्यों नहीं पढ़ाती जो 
						मैं कहाँ जाती हूँ किससे बात करती हूँ, उसपर जासूसों की 
						नज़र रखता है। मुझे किसी को फोन नहीं करने देता और मुझपर 
						हाथ उठाता है।"
 "मैं उसको भी समझाऊँगी श्रुतु . . .उसको भी समझाऊँगी 
						श्रुतु . . ."
 " . . .तो पहले उसे ही समझाओ दीदी।"
 पर सुधा न तो नवीन को समझा पाई और न ही श्रुति को। लकीरें 
						गहरी होती गई।
 
 वो दिन आ गया जब श्रुति अपनी मनचाही अकेली जिंदगी जीने 
					लगी। एक विशाल समुद्र में किसी ने कंकड़ फेंका। एक धुँधले 
						पर गहरे घेरे ने सुधा, नवीन और राकेश की जिंदगी को घेर 
						लिया पर दूर दूर तक समुद्र में कोई हलचल नहीं हुई। 
						त्रिनिडाड में हिन्दुस्तानी परिवारों में कुछ कानाफूसी 
						अवश्य हुई पर सब जैसे निरपेक्ष रहने को नाटक करते रहे। 
						भारतीय मूल के त्रिनिवासियों के लिए ये कोई हलचल नहीं थी। 
						पार्टी में किसी मंदिर में पूजा पर या फिर सप्ताह के पहले 
						रविवार गुरूद्वारे में होने वाले पाठ में श्रुति ने लोगों 
						के चेहरे पर अपने लिए सवाल तो पढ़े पर उन सवालों को किसी ने 
						शब्द नहीं दिए।
 
 हिन्दुस्तान होता तो आस–पड़ोस, रिश्तेदार सब कुछ इतनी आसानी 
						से कुछ होने देता। हर कोई श्रुति को समझाता और उसे समझने 
						को विवश करता। बड़े–बूढ़े कान खा जाते। श्रुति के लिए अच्छा 
						है कि कोई बड़ा–बूढ़ा यहाँ नहीं हैं। हिन्दुस्तान के 
						बड़े–बूढ़े यहाँ रह भी कहाँ सकते हैं, वीकेंड पर पार्टियाँ, 
						समुद्र तट या मंदिरों में कभी–कभी पूजा के अतिरिक्त उनके 
						लिए है भी क्या। पार्टियों में भी जवानों की भीड़ में वो 
						अक्सर अकेलेपन को ही भोगते हैं और समुद्र–तट पर कम
						कपड़े पहनी नारियों को देखकर उन्हें वितृष्णा ही होती। हाँ 
						बुजुर्ग पुरूष मन ही मन इसका आनंद अवश्य उठाते। एक दो 
						परिवारों ने कोशिश भी की उनके माँ–बाप उनके साथ रह पाएँ पर 
						वो लोग आए छह महीने के लिए और दो–एक महीने किसी तरह काट कर 
						भाग गए।
 
 श्रुति और सुधा के बेचारे और लाचार बूढ़े माँ–बाप दूर से 
						अपनी बेटी के बिखरते घर की कहानी फोन पर सुनते रहे या फिर 
						ई–मेल द्वारा पढ़ते रहे। ये जगह हिन्दुस्तान से इतनी दूर है 
						कि एक बार यहाँ आने जाने में एक आदमी का खर्चा ही एक लाख 
						के करीब आ जाता है। सुधा ने कहा भी कि आप लोग आ जाओ मैं 
						टिकट भेज देती हूँ पर जिनके संस्कार ऐसे हो कि बेटी के घर 
						का कुछ भी खाना–पीना हराम है वो अपनी बेटी से इतना पैसा 
						कैसे ले सकते थे। और उसकी बहन
						भी तो यहाँ बैठी हैं। जब वो ही कुछ नहीं कर पा रही है तो 
						वो लोग क्या करेंगे। कितना विवश कर देती हैं ये जमीनी 
						दूरियाँ। ऐसे में पहली बार माँ–बाप को बेटे के न होने का 
						अभाव खला। इन दोनों का भाई होता तो क्या वो ऐसे चुप रहता। 
						भगवान की मर्जी और जो भाग्य में लिखा है जैसी सोच ऐसे समय 
						ही तसल्ली देती हैं, पर क्या सचमुच तसल्ली मिल पाती है?
 
 श्रुति और नवीन अलग हो गए। आपसी समझौते के तहत श्रुति और 
						नवीन अलग अलग रहेंगे, बच्चे एक–एक सप्ताह के अंतराल में 
						दोनों के साथ रहेंगे और अपनी जिंदगी जीने के लिए श्रुति को 
						एक मुश्त राशि मिलेगी।
 
 'श्रुति, व्यू पाईंट आनेवाला हैं, कार स्लो कर लो।' कार 
						चलाती श्रुति को जैसे फिर किसी ने रोका। श्रुति ने बाईं ओर 
						घाटी की ओर देखा, हाँ व्यू पाईंट आने वाला था। मरॉकस 
						समुद्र–तट से लगभग दो किलोमीटर पहले व्यू पाईंट पर नवीन को 
					रुकना सदा अच्छा लगता रहा और श्रुति और बच्चे जल्दी से 
						जल्दी बीच पर पहुँचने के लिए उत्सुक रहते। अक्सर नवीन को 
						चिढ़ाने के लिए श्रुति व्यू पाईंट के समीप कार धीमे करती और 
						तेजी से बढ़ा कर आगे ले जाती और कभी कार को और तेज कर देती 
						तथा नवीन के प्लीज प्लीज के बीच अचानक तेजी से ब्रेक लगाकर 
						कार व्यू पाईंट पर खड़ी कर देती। सभी इस क्षण का आनन्द 
						उठाते। पर आज श्रुति ने न तो कार धीमी की और न तेज, कुछ 
						सोचा और आराम से कार पार्क कर दी। धीमे से बाहर निकली, 
						रेलिंग के सहारे दूर फैले हुए मराकस बीच को देखने लगी। 
						इतने बरस हो गए उसे त्रिनिडाड में और श्रुति ने पहली बार 
						इतनी तसल्ली से, तीन ओर से पहाड़ियों की गोद में बैठे मराकस 
						बीच को देखा था। इतने विशाल समुद्र का जल कैसे किसी की 
						बाहों में खेल रहा था। विशालता जब सीमा में बँधती है तो 
					कितना सुन्दर दृष्य प्रस्तुत करती है। असीम समुद्र भी ससीम 
					होकर कितनी शांति पाता है और देता है। और श्रुति का अपना 
					समुद्र! बंधन में ही सुख है क्या? क्या वो अपने अकेलेपन से 
						लड़ पाएगी? क्या उसने गलत कदम उठाया है? इस सवाल ने उसे 
						बेचैन कर दिया।
 
 आज रविवार होने के कारण समुद्र–तट पर बहुत भीड़ दिखाई दे 
					रही थी और श्रुति अनेक बार इस भीड़ का हिस्सा बनी है पर आज तो 
					वो इस भीड़ में अकेली–सी होगी। बिना बच्चों और नवीन के क्या 
					श्रुति समुद्र–तट की खूबसूरती भोग पाएगी? क्या श्रुति विवश है? 
					नहीं, नहीं, श्रुति विवश नहीं हैं। वो दिखा देगी 
						कि अपने सपनों को साकार करने के लिए वो कुछ भी मूल्य चुका 
						सकती है।
 
 पास के पेड़ से सुनहरी लाली के पंखों वाला, त्रिनिडाड का 
						राष्ट्रीय पक्षी स्कॉर्लेट् आयबिस उड़ा और नीले आसमान में, 
						कहीं भी जाने को स्वतंत्र, पंख पसार गया। श्रुति ने नीले 
						मरॉकस बीच की ओर अपनी कार बढ़ा दी। कुछ ही दूरी आकर सड़क 
						पहले ऊँची–सी चढ़ाई चढती है और फिर एकदम उतराई है। नवीन 
						अक्सर उसे यहाँ धीरे चलने को कहता था। चढ़ाई चढ़ते ही फिर 
						उसके अंतर्मन ने सुना, "सुनो श्रुति आराम से, जरा रुक कर..."
 
 पर क्या एक बार चढ़ाई चढ़ने पर रूका जा सकता है। पीछे आने 
						वाली अतीत–सी कारें हॉर्न से आपको आगे नहीं ढकेलती है। आगे 
						जाना विवशता नहीं हो जाती है क्या? श्रुति ने कोई आवाज न 
						सुनते हुए एक्सलेटर पर दबाव बढ़ा दिया और 'अपने' समुद्र से 
						मिलने अकेले ही आगे बढ़ गई।
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