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                       नीमा 
                      ने झुका हुआ सिर उठाया हथेलियों को आपस में रगड़ कर गरम किया 
                      और कोट की जेब में डाल कर लापरवाही से एक लंबी नज़र दौड़ाई। 
                      क्रीक के किनारे इस फ़ुटपाथ पर सब कुछ महीनों से उसके साथ 
                      है, फिर यह अचानक पीछे छूट जाने का अहसास क्यों? और पीछे 
                      छूटना किस चीज़ से? क्या वह अकेलेपन से डर गई है य़ा उसे 
                      समीर की याद सता रही है य़ा उसके जीवन के कुछ मानदण्ड थे जो 
                      अकेला पाकर उसे डराने चले आए हैं, या फिर यह समय का वह मोड़ 
                      है जहाँ उसे कुछ नया कर गुज़रना है और वह नया क्या है इसका 
                      पता न होना एक खालीपन का अहसास भरे जा रहा है उसमें। हवा रुक गई 
                      थी। हाथों में नमी-सी लगी तो नीमा ने हाथ कोट से बाहर निकाल 
                      लिए। गले में एक रेशमी स्कार्फ डाल लिया था चलते समय उसने। 
                      सर्दी उतनी नहीं थी। यह तो बस नीले कोट को थोड़ा-सा रंगीन 
                      करने करने के लिए यों ही पहन लिया था। देहरादून की सर्दियों 
                      में स्कार्फ का जो मतलब होता है वह शारजाह की सर्दियों में 
                      नहीं होता। पर नीमा ना तो देहरादून से अलग हो पाई है ना ही 
                      शारजाह में मिल पाई है इसलिए सबकुछ मिला-जुला सा अनाप-शनाप 
                      सा होता ही रहता है। नीमा ने गले का स्कार्फ ढीला किया और 
                      कोट की जेब में रख लिया। कोट के बटन खोल दिए तो मौसम फिर से 
                      खुशनुमा सा लगने लगा। समंदर की हवा बालों में से होते हुए 
                      कंधे पर उड़ने लगी।  सड़क के उस 
                      पार दो बेडरूम वाले लग्जरी फ़्लैटों की भीमकाय बिल्डिंग है। 
                      इसमें नीचे स्वीमिंग पूल है, जिम है और स्पोर्ट्स क्लब भी, 
                      अच्छी खासी होटलनुमा आंतरिक सज्जा है, और वैसा ही दरबान भी। 
                      इस बिल्डिंग में तीन भारतीय परिवारों को जानती है नीमा। 
                      शारजाह आते समय सबसे पहले उसका परिचय इन्हीं परिवारों से हुआ 
                      था।  इनमें से 
                      चित्रा उत्तर भारतीय है। देहरादून में उसके पति शरत की 
                      पोस्टिंग समीर के साथ ही थी। वे लोग रहते भी एक ही मुहल्ले 
                      में थे। इसलिए पुरानी जान-पहचान भी है। उम्र में भी नीमा के 
                      बराबर ही होगी, पर वह पिछले पाँच साल से शारजाह में है। नीमा 
                      को लगा था चित्रा से उसकी अच्छी बननी चाहिए।  आठ बजे जब 
                      समीर आफ़िस के लिए निकल गया तब नीमा ने चित्रा को फ़ोन किया 
                      था और पूछा था क्या कल जल्दी सुबह क्रीक पर चलेगी टहलने। 
                      चित्रा ने अलसाते हुए जवाब दिया था,''यार अब मैं सुबह जल्दी नहीं उठती। यह देहरादून थोड़ी है। 
                      सुबह कुछ काम नहीं रहता यहाँ। शरत सुबह खुद चाय बना कर पी 
                      लेते हैं और आफ़िस चले जाते हैं। लंच वहीं लेते हैं। जल्दी 
                      उठ कर क्या करूँ? मैं नौ साढ़े नौ तक उठ जाती हूँ। फिर आराम 
                      से दस ग्यारह बजे तक टीवी के सामने बैठ कर चाय पीती हूँ। 
                      बारह बजे हम सब लेडीज़ किसी एक के यहाँ इकठ्ठे होते हैं ताश 
                      के लिए। दो बजे तक अच्छा गेट टुगैदर रहता है। तेरा दिल करे 
                      तो तू भी आ जा।''
 ''कमाल है! 
                      कितने उत्साह के साथ हम निकलते थे देहरादून में राजपुर रोड 
                      पर सुबह की सैर के लिए और सूर्योदय के सुन्दर दृश्य को संजोए 
                      वापस लौटते थे। सब कुछ भूल गई?'' नीमा ने पूछा था। ''भूली 
                      नहीं हूँ यार हर जगह की अपनी-अपनी लाइफ़ होती है, यहाँ 
                      सोते-सोते काफ़ी देर हो जाती है। ख़ास तौर से वीक एंड में। 
                      डिनर या पार्टीज़ चलती ही रहती हैं।'' नीमा को 
                      ताश में कोई रुचि नहीं फिर भी उसने सोचा नए लोगों से 
                      मुलाक़ात का यह बहाना अच्छा रहेगा और वह पहुँच गई थी चित्रा 
                      के घर, बारह बज के दस मिनट पर कोई छे महिलाएँ होंगी ताश 
                      मंडली में अपने अपने ड्रिंक्स के साथ।  चित्रा समझ 
                      गई थी, नीमा इस माहौल में नई नवाड़ी है और वह क्या पीना पसंद 
                      करेगी पूछने के लिए कमरे के दूसरी ओर बने किचेन तक ले गई थी। 
                      नीमा ने अपने पुराने बेतकल्लुफ़ी लहज़े में कहा था, ''यार यह 
                      तो अपने गले से उतरने के पहले ही बाहर आ जाएगा। कुछ ऐसा है 
                      जो शांति से अंदर चला जाए?'' चित्रा हँस पड़ी थी और कोक में 
                      दो आइसक्यूब डाल कर उसको थमा दिया था। औपचारिक 
                      परिचय के बाद वे सब बातों में लग गई। चालीस ग्राम के गोल्ड 
                      बार के आज के दाम से लेकर कलाबत्तू की साड़ियों तक और डेबियर 
                      के हीरों से मिकुरा मोतियों तक उनकी बातों के एक सौ एक 
                      विषयों में से कुछ नीमा की समझ में आए थे कुछ नहीं भी समझ 
                      में आए थे पर इतना ज़रूर समझ में आ गया था कि ना तो 'टेली 
                      लाइफ़' और 'एमिरेट्स वुमेन' की प्रतियों से सजे चित्रा के 
                      बुक शेल्फ़ में नीमा को वहाँ रोक सकने लायक कुछ था न वाइन से 
                      भरे क्रिस्टल के गिलासों और ताश के पत्तों से भरी चीनी 
                      फ़िलिग्री की मेज़ में। नीमा को 
                      लगा था कि अजीब-सी गंध भरे चित्रा के इस काँच से बंद 
                      वातानुकूलित चौखाने में उसका दम घुट जाएगा। न जाने कैसे भी 
                      दो बजे तक का समय गुज़रा था और सारी औपचारिकताएँ निभा कर 
                      नीमा अपने घर वापस आ गई थी। बाद में किसी न किसी काम से वहाँ 
                      जाना तो हुआ पर उस चौखाने में नीमा फ़िट नहीं हो पाई। हवा शायद 
                      कुछ तेज़ थी। नीमा ने कोट के बटन फिर से बंद कर लिए। काफ़ी 
                      रास्ता तय हो चुका था। एक तरफ़ क्रीक के किनारे-किनारे यह 
                      लम्बा फ़ुटपाथ बना है टहलने वालों की सुविधा के लिए और सड़क 
                      के दूसरी ओर कई तरह की बहुमंज़िली इमारतें हैं। अलग-अलग तरह 
                      के छोटे और बड़े बंगलों के झुंड भी हैं। इन्हें 'विला' कहते 
                      हैं यहाँ पर। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सड़कें अंदर की ओर जाती हैं 
                      और अलग-अलग मुहल्लों की ओर रास्ता बनाती हैं।  सड़क के 
                      दूसरी ओर दूसरा मोड़ दिखाई देने लगा था।  यहाँ से 
                      बड़े विला शुरू होते हैं। जिसमें ज़्यादातर यूरोपीय या 
                      अमेरिकी लोग बसते हैं। समीर ने इस जगह का नाम 'अंधेर नगरी' 
                      रखा है। इसकी एक ख़ास वजह भी है। तमाम बड़ी इमारतों के 
                      बावजूद रोशनी काफ़ी कम रहती है इन घरों में। अरबियों की तरह 
                      ये अपनी 'बाउन्ड्रीवाल' पर सारे लैंप जला कर नहीं रखते। ''उन्हें बिजली की किफ़ायत पसंद है,'' नीमा ने कहा था एक 
                      बार।
 ''नहीं साले सब फ्रस्ट्रेटेड प्राणी हैं, समीर बोला था, 
                      ''इनकी बिजली का खर्च तो अरबी ही उठाते होंगे। ये तो भीतर के 
                      किसी अंधेरे कमरे में दारू पीते औंधे पड़े होंगे। बिजली 
                      जलाने की सुध ही नहीं होगी।''
 बड़े-बड़े 
                      घरों में अकेले रहते हुए बहुत ही कम गोरे लोगों के परिवार 
                      साथ में हैं। मौसम अच्छा हो तो अक्सर इन्हें दुबई के पबों 
                      में वीकएंड पर सैलानी महिला मित्र मिल जाते हैं, और गुरु 
                      शुक्र को इन बड़े बंगलों के बगीचो में अलाव और बारबेक्यू का 
                      धुआँ दिख जाता है। गुरु शुक्र सप्ताहांत होते हैं अरबी 
                      दुनिया में। सप्ताह के बाकी दिनों यहाँ ज़्यादातर अंधेरा ही 
                      छाया रहता है। अंधेर नगरी का यह अंधेरा भी नीमा की चहल-कदमी 
                      का एक हिस्सा है। वैसे तो इस 
                      शहर की बहुत-सी चीज़ों में हिस्सेदारी है नीमा की। पर वे 
                      हिस्से अजीब तरह के चौखानों में बंद में हैं, फ़ुटपाथ के 
                      चौखानों की तरह। एक चौखना नीमा का कम्प्यूटर भी है। जो देश, 
                      भाषा और जाति की तमाम लकीरें के पार कर गया है बहुत बार। नीमा अच्छी 
                      तरह पहचानती है यहाँ से भीतर जाने वाली सड़क के बाद चौथे 
                      बंगले में मार्क रहता है। मार्क मक्लीन जो बोआविस्ता के नाम 
                      से आई सी क्यू पर मिल गया था एक दिन। जैसा उसने अपने घर का 
                      परिचय दिया था, वही हरे रंग का गेट, हल्के गुलाबी बोगेनविला 
                      का फूलों से भरा हुआ घना झाड़। वही सफ़ेद फ़ोर व्हील ड्राइव 
                      मित्सुबिशी पजेरो एस एच जे ६३६३, जिससे इस घर को अच्छी तरह 
                      पहचाना जा सकता है।  मार्क 
                      इंजीनियर है एक तेल कंपनी में। उसकी पुर्तगाली पत्नी 
                      अर्कीटेक्ट है, जो ज़्यादातर पुर्तगाल में ही रहना पसंद करती 
                      है। भाषा की समस्या की वजह से उसे यहाँ काम करने में दिक्कत 
                      होती है। ''नैनी ने कभी ठीक सी अंग्रेज़ी नहीं सीखी, एक बार मार्क ने 
                      बताया था, ''शायद इसलिए कि मेरी पुर्तगीज़ काफ़ी अच्छी है और 
                      ब्रिटेन में शादी के बाद कभी रहना हुआ ही नहीं।'' उसकी पत्नी 
                      का नाम नैनी है।
 मार्क से 
                      नीमा की मुलाकात आई सी क्यू पर हुई थी। फिर दोस्ती-सी हो गई। 
                      कम्प्यूटर पर ही। घंटों बातें की। दक्षिण अफ्रीका के जंगलों 
                      के बारे में, प्राइवेट आर्मी के बारे में और माइथोलोजी के 
                      बारे में।''क्या आपने भारतीय माइथोलोजी पढ़ी है,'' नीमा ने एक बार 
                      बात-खिड़की पर पूछा था।
 ''नहीं, मेरी रुचि रोमन माइथोलोजी में थी। ज़्यादातर वही 
                      पढ़ी। मुझे देवताओं के चरित्र बड़े रोचक लगते हैं, मार्क ने 
                      जवाब लिखा था।
 ''भारतीय माइथोलोजी पढ़ने की कोशिश नहीं की बल्कि ग्रीक 
                      माइथोलोजी भी काफ़ी पढ़ी हैं। कई देवी देवता एक से हैं दोनों 
                      में और कुछ अलग। जो एक से हैं उनमें भी कुछ भिन्नताएँ हैं 
                      मार्क ने बताया था।
 ''पर मुझे किसी भारतीय से भारतीय माइथोलोजी के बारे में 
                      जानकर खुशी होगी, मार्क ने आगे जोड़ा था। बस फिर क्या था बात 
                      चल निकली थी- अथीना, ओडिन और ज्युपिटर से लेकर आदिशक्ति, 
                      कार्तिकेय और बृहस्पति तक घंटों लंबी बातों में, भारतीय और 
                      यूरोपीय देवशास्त्र पर एक तुलनात्मक अध्ययन की किसी किताब से 
                      ज़्यादा लंबे नोट्स टाइप किए होंगे शायद उन्होंने 'बात 
                      खिड़की' पर।
 एक बार 
                      नीमा ने सफ़ेद पजेरो एस एच जे ६३६३ को इस घर के सामने रुकते 
                      देखा था और लगा था कि उसमें से कोई अंग्रेज़ बाहर आएगा पर 
                      उसमें से कोई भारतीय या पाकिस्तानी बाहर आया था। उसने मोबाइल 
                      से बात की थी, थोड़ी देर गेट के बाहर इंतज़ार किया था, शायद 
                      रिमोट संचालित दरवाज़ा किसी ने अंदर से खोला था और पजेरो 
                      अंदर चली गई थी।  ठीक, नीमा 
                      को याद आया, कल ही बात करते हुए मार्क ने बताया था कि रात को 
                      रेगिस्तान में सफ़र करते हुए उसकी गाड़ी रेत में फँस गई थी। 
                      न उसके पास मोबाइल था और न कोई साथी, अभी सीज़न नहीं शुरू 
                      हुआ था और रेगिस्तान भी सुनसान था। उसे अकेले अपनी गाड़ी रेत 
                      से बाहर निकालते ४ घंटे लगे थे और शायद गाड़ी में कुछ भारी 
                      नुक्स भी आ गए थे। ''क्या गाड़ी गैराज में छोड़ दी,'' नीमा ने पूछा था।
 ''नहीं, इतना समय नहीं था सुबह मेरे पास। कार को बाहर पार्क 
                      कर के मैकेनिक को फ़ोन कर दिया था वह आफ़िस आ कर चाभी ले गया 
                      था। काम जारी होगा।'' मार्क ने बताया था।
 शायद 
                      मैकेनिक कार पहुँचाने आया होगा। नीमा ने सोचा था, या हो सकता 
                      है कोई भारतीय मित्र हो जो मिलने आया हो। ''क्या 
                      आपके भारतीय मित्र हैं?'' उस दिन नीमा ने पूछा था।''मित्र, मित्र शब्द मेरे लिए बहुत ख़ास है अ़पने 
                      रिश्तेदारों से भी ज़्यादा अ़पने भाई से भी ज़्यादा मैंने 
                      बहुत ही कम दोस्त बनाए अपनी ज़िन्दगी में, मार्क ने बहुत 
                      धीरे-धीरे टाइप किया था।
 ''ऐसे तो 
                      मेरे आफ़िस में बहुत से भारतीय लोग काम करते हैं। वे सब मेरे 
                      मित्र हैं पर मैं किसी के घर कभी नहीं जाता। कभी बुलाएँ तो 
                      भी नहीं। भारतीय लोग धार्मिक होते हैं। वे परिवार के साथ 
                      रहते हैं। मुझे भारतीय मैनरिज्म वगैरह का कुछ पता नहीं। साफ़ 
                      कहूँ तो कुछ अनकम्फ़र्टेबल सा लगता रहता है। मैंने कभी कोशिश 
                      नहीं की किसी भारतीय से दोस्ती की। वेसे मुझे भारतीय खाना 
                      पसंद है अगर उसमें मिर्च न हो। मुझे नान भी पसंद है पर मैं 
                      भारतीय लोगों की तरह हाथ से नान नहीं खा सकता मैं गँवार 
                      लगूँगा अगर कोशिश करूँ तो और हाँ, मुझे सौंफ़ की महक पसंद 
                      नहीं," दोनों ने 
                      बहुत सारे एल-ओ-एल बनाए थे इस विवरण के बाद एल-ओ-एल यानी 
                      ''लाफ़ आउट लाउडली'' यह भी उसने कंप्यूटर पर बात करते हुए ही 
                      सीखा था और यह भी कि चौखाने सिर्फ़ नीमा की ज़िन्दगी में ही 
                      नहीं हैं। ए इस देश के घट-घट में बसे हुए हैं। फ़र्श के 
                      चौखाने, छत के चौखाने और अलग-अलग देशों की अलग-अलग 
                      संस्कृतियों के चौखाने। 
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