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''तभी तो तुमसे कह रही हूँ वे तो आने को तैयार बैठी हैं। तुम उसके करीबी दोस्त थे। तुम्हारी बात वे समझ लेंगी। मैंने बार-बार उनसे न आने को कहा है पर वे सोचती हैं कि मैं औपचारिक हो रही हूँ। जैसे भी समझाऊँ उनको समझ भी नहीं आता।''
''हेलन वे लोग तुमसे चाहे न भी मिलना चाहें पर उन्हें पोते पोतियों से तो मिलना होगा।''
''से मैं उसे छुटि्टयों में भारत भिजवा दूँगी। उसकी पहली बीवियाँ जो करना चाहें करें मैं अपने बेटे का तो वचन देती हूँ उनसे मिलने ज़रूर भेज दूँगी। पर तुम किसी तरह अभी उनका आना रोक लो।''
और शंकर ने फोन पर कहानियाँ गढ़ कर रोक लिया था।
''हेलन को रोज़ काम पर जाना होगा। उसकी तबियत भी ठीक नहीं है। बेचारी बहुत अकेली पड़ गई है।''
''बच्चों के भी स्कूल खुले हैं। उनकी ज़िन्दगी में खलल डालना सही नहीं होगा।''

''आप लोग यहाँ आकर करेंगी क्या? सब तो कामों में बिज़ी होंगे। फिर हवाई अड्डे से लाना ले जाना खिलाना-पिलाना ये सब बन्दोबस्त भी तो हेलन को करने होंगे। ऐसी हालत में कैसे कर पाएगी बेचारी। पहले से ही उसका अपना हाल बुरा है। आखिर उसके लिए तो भरी जवानी में ही पति चल बसा। पहले खुद को तो सँभाले औरों की ज़िम्मेवारी कैसे ले पाएगी।''
''दिवाकर तो चला गया जिसके साथ नाता था, उठना-बैठना था अब यहाँ किसके लिए आएँगी।''
''बच्चे आपसे मिलने आएँगे छुटि्टयों में। तब साथ वक्त बिताने का भी मौका मिलेगा। कुछ धैर्य से काम लें। जो गया वह तो लौटेगा नहीं।''

मन में बहुत कष्ट हुआ था शंकर के। पर वह हेलन का नज़रिया भी समझता था। बेचारी कैसे सँभालेगी उन पक्की हिन्दोस्तानी सास ननद को। छूतछात, शाकाहारी, पता नहीं कितने तो झमेले होंगे। उसकी अपनी पत्नी जैकी भी तो कितनी नवर्स होती है उसको घर वालों से मिलकर। लाख ख़याल रखने पर भी उससे कोई न कोई गल्ती हो ही जाती है। कभी पल्ला ठीक नहीं लिया तो कभी पाय-हाथ नहीं लगाया। वह तो खुद इन चक्करों से परेशान हो अकेले ही जाकर माँ से मिल आता है। शुरू में जैकी भी गई थी उसके साथ। अब वह भी अपने कामों में उलझी रहती है और वे दोनो अपनी-अपनी छुटि्टयाँ अपनी-अपनी मर्ज़ी से बिताते थे। साल दो साल में एक बार बच्चों के साथ पारिवारिक छुट्टी वहीं अमरीका या यूरोप वगैरह में मनाई जाती थी। पिछली बार वह बेटी को साथ ले गया था दादी से मिलवाने। पर बच्चे हर बार साथ चलना भी नहीं चाहते। उनके हम-उम्र साथी न हों तो उन्हें कहीं भी जाना भला नहीं लगता।

शंकर ने दुबारा ग़ौर किया उस दोस्त के अंतिम संस्कार पर एक भी हिन्दोस्तानी नहीं था और शंकर को बहुत अजीब सा लग रहा था। उसके कान जैसे किन्ही मंत्रोच्चार के लिए खुले बैठे थे, आँखें जैसे आग की लपटों के लिए आकुल। नासिकाओं में घी और सामग्री की चिकनी गंध कुलबुला रही थी।

पर गिरजाघर के हाल में इस पर पादरी की आवाज़ गूँज रही थी।
शंकर उस सारे माहौल में बड़ा कुंठित-सा हो रहा था। उसके मन की बात कोई नहीं कह रहा था। वह उस सारे आयोजन में दृष्टा की तरह था। किसी से कुछ बाँट ही नहीं पा रहा था। कितना कुछ तो था उन दोनों के बीच जो अभी भी साँस ले रहा था। शंकर की आँखों के आगे वह नज़ारा घूम गया। जब वह इस शहर की ज़मीन पर पहली बार उतरा था हवाई जहाज़ से। दिवाकर ही उसे हवाई अड्डे पर लेने पहुँचा हुआ था। शुरू के कुछ दिन उसी के घर टिका था। वहीं उसकी अमरीकी गर्लफ्रेंड से भी मुलाक़ात हुई थी। उन दिनों शहर में कोई भी हिन्दोस्तानी रेस्ट्राँ नहीं होता था। भारतीय खाने की हुड़क उठती तो खुद ही जुगाड़ करना पड़ता। बस दोनों छड़े छड़ांग तरह-तरह के खानों के प्रयोग में जुट जाते। हिन्दोस्तानी खाना पकाने और अस्पताल के कर्मचारियों के साथ व्यवहार के तौर तरीकों से लेकर लड़कियों से डेटिंग तक हर चीज़ में वही शंकर का गुरु था। यों वह था तो शंकर से एक ही साल बड़ा पर हर बात में अगुआ। उन दिनों इस शहर में गिनेचुने ही हिन्दोस्तानी रहते थे। इसीलिए एक दूसरे का साहचर्य और भी ज़्यादा कीमती था। हर बात में एक दूसरे से सलाह, एक दूसरे की चाह। कालेज के दिनों की दोस्ती और भी गहरी जड़ें जमाती गई थी।

शहर की स्मृति उसे और भी दूर और भी पीछे ले जाती जा रही थी। दिल्ली के तालकटोरा ग्राउंड में यूथ फेस्टिवल चल रहा था। उन्नीस बरस के शंकर ने ज़िन्दगी में पहली बार एक लड़की को चूमा था और आसमान में उड़ता हुआ धरती पर उतर ही नहीं पा रहा था। तब दिवाकर ने कत्थे चूने वाला पान उसके मुँह में डाल कर कहा था, ''ले खा ले नशा कुछ नीचे उतरेगा।''

दिवाकर ने ही उसे कविता और संगीत की ओर खींचा था। डाक्टरी की दुनियाँ में उलझे शंकर को कभी भी इनकी ख़बर नहीं रही। दिवाकर ने उसे गालिब पढ़वाया था टैगोर की कविता की खूबसूरती पहचाननी सिखाई थी। और रवींद्र संगीत की कोई भी कंपोज़ीशन वह दिवाकर को याद किए बिना सुन नहीं सकता था। उनके इतवारों की दुपहरियाँ और शामें ज़्यादातर हिन्दुस्तानी संगीत सुनने में ही निकलती थीं।

अब शंकर के भीतर ही सबकुछ कसमसा रहा था।
पादरी ओल्ड टेस्टामेंट की पंक्तियाँ पढ़ रहा था, ''राख से राख धूल से धूल जिस मिट्टी से निकले हैं उसी में मिल जाना है।''
सहसा कोई साँप-सा सरक गया शंकर की रीढ़ पर से। जैसे कोई मनोमन मिट्टी के नीचे उसे दफ्न किए दे रहा हो। अजीब-सी घुटन हुई उसे।
हॉल में एकदम खामोशी थी। इस पर पादरी के शब्द कानों के परदों से टकरा रहे थे।

कुछ गूँज रहा था शंकर के भीतर ब़जने लगा था उसकी शिराओं में कितना कुछ संचित, अरसे से अर्जित, गुना-मथा हुआ, कहीं दबा छुपा हुआ...

पादरी आमेन करके डायस से नीचे उतरने ही वाला था कि शंकर सहसा खड़ा हो गया। और तेज़ लेकिन सधे कदमों से चला। लोग उसे देख रहे थे। हल्की-सी हलचल मची। लोग हैरान पर चुप थे।

बहुत संयत आवाज़ में शंकर ने कहा, ''अपने दोस्त के लिए कुछ गीता के श्लोक और उसने संस्कृत और अंग्रेज़ी अनुवाद करते हुए एक के बाद एक श्लोक उच्चरित करने शुरू कर दिए। गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक थे ये, ''ये न कभी हत होता है न हत्यारा, न कभी जन्मता है न विनशता, जन्म मरन से परे देह नाश होने पर भी नष्ट नहीं होता, जिस तरह घिसे हुए वस्त्रों का त्याग कर नर नए धारण करता है उसी तरह घिसी देह का त्याग कर नई अपनाता है देही।

सब उसी ख़ामोशी से सुन रहे थे जिस खामोशी से पादरी को सुना था। शंकर का संस्कृत का उच्चारण भी बहुत कर्णमृदु था। पर फिर भी लोग उस तरह सहज नहीं थे जैसे अब तक थे। शायद उन स्वरों की ध्वनियाँ उन्हें अजनबी लग रही होंगी। पर फिर भी उन ध्वनियों में सत्व था, आग्रह था, सबने सुना और चुपचाप अपनी जगह टिके हुए सुनते रहे।

शंकर की निगाह अपनी पत्नी से मिली भौंचक्की-सी देख रही थी वह उसे। समझ नहीं पा रही थी शायद कि दाद दे या हैरान हो। उसकी हिम्मत सराहे या इस अटपटे व्यवहार पर डपट लगाए। शंकर को लगा कि वहाँ जैकी नहीं, हेलन ही खड़ी है।

एक डरावनी-सी काली छाया उसके शरीर को दो टुकड़ों में काटती चली गई। सामने कुछ नहीं दिखता था अब। बस अंधेरे का गढ़ा काला गोल।
पता नहीं कितनी-कितनी परछाइयों से लड़ रहा था उसका अवचेतन।

शंकर को लगा उसकी आवाज़ ख़ामोश हो रही है। उसके कान में फिर से पादरी की आवाज़ बजने लगी म़िट्टी से बन कर मिट्टी में ही मिल जाना है, उसे लगा जैसे वह अपना ही अवसान देख रहा है, इसी तरह, ठीक इसी तरह उसकी पत्नी गिरजाघर की दीवारें, लंबी रंगीन खिड़कियाँ, बाइबल की पंक्तियाँ, अनजाने चेहरों का सैलाब, डरे हुए पस्त चेहरे, धूल और मिट्टी के अंतहीन अंबार।

और उसने फिर से ज़ोर लगाया, पल भर को वह कुछ और देख सुन नहीं पा रहा था, फिर सहसा जैसे पानी को काटता हुआ कोई जलपोत उसके अधरों से फिर से फूट निकला काट न सकते शस्त्र आत्मा को आग न कभी इसे जलाती विकृति रहित है अविचल आत्मा जन्म नित्य है तो मरन नित्य।

अचानक उसे लगा ताबूत में ख़ामोश लेटे दिवाकर का चेहरा उसकी ओर देख कर मुस्कुराया है। शंकर को रोंगटे खड़े हो गए। पल के भी छोटे से हिस्से में उसे महसूस हुआ कि दिवाकर कहीं नहीं गया, यहीं है, उसके आस पास। पर वह मुस्कान थी या खिल्ली इसका फैसला शंकर नहीं कर पाया।

हॉल में अब लौटने वालों के पैरों और धीमी-धीमी बातों का शोर शुरू हो गया था। शंकर की आवाज़ शोर में डूब चुकी थी पर उसे लग रहा था कि अपनी आवाज़ वह अभी भी सुन पा रहा है।

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१६ अक्तूबर २००२

 
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