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                      पहाड़ियों 
                      से घिरा, हज़ारों फुट की ऊँचाई पर स्थित कंधार अफ़गानिस्तान 
                      का ऐतिहासिक नगर है। यहाँ से कुछ दूरी पर मदरसा और सैनिक 
                      कैम्प है। पुरानी तहज़ीब और संस्कृति का यह स्थान अब धार्मिक 
                      कट्टरता का केन्द्र बन गया है। 
                       नगर से दूर धार्मिक मदरसे 
                      में शहनाज़ पढ़ाती है। वह इसी मदरसे में रहती है। वह रोज़ 
                      सुबह दूर पीने का पानी भरने जाती है और रास्ते के टीले पर 
                      बने घर के पास आशा भरी दृष्टि से देखती है। उसका मंगेतर 
                      दोसाबीन यहीं रहता था। परन्तु बहुत दिनों से वह दिखाई नहीं 
                      दिया। शहनाज़ वहाँ खड़ी होकर सोचने लगी, वह अतीत के पृष्ठों 
                      को पलटकर पढ़ने लगी। वह शहनाज़ को बुलबुल कहकर सम्बोधित करता 
                      था। उसे स्मरण हो आया,  ''बुलबुल, हम सरहद पार जा 
                      रहे है जंग करने।''''किसके साथ जंग करोगे'', शहनाज़ दुखी होकर पूछती।
 ''वहाँ जाकर पता चलेगा...,'' कहकर दोसाबीन शहनाज़ को बाहों 
                      में भर लेता।
 ''यह कैसी जंग है दोसाबीन? जहाँ दुश्मन का ही नहीं पता,'' 
                      कहकर वह उसके नयनों को गौर से देखने लगती।
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