'हे
प्रभु! क्षमा करना, आज मैं आपके लिये भोग नहीं ला पाया।
मजबूरी में खाली हाथों पूजा करना पड़ रही है।' किसी भक्त का
कातर स्वर सुनकर मैंने पीछे मुड़कर देखा।
अरे! ये तो वही सज्जन हैं जिन्होंने सवेरे मेरे साथ ही
मिष्ठान्न भंडार से भोग के लिये मिठाई ली थी फिर? मुझसे न
रहा गया, पूछ बैठा: ''भाई जी! आज सवेरे हमने साथ-साथ ही
भगवान के भोग के लिये मिष्ठान्न लिया था न? फिर आप खाली
हाथ कैसे? वह मिठाई क्या हुई?''
'क्या बताऊँ?, आपके बाद मिष्ठान्न के पैसे देकर मंदिर की
ओर आ ही रहा था कि देखा किराने की एक दूकान में भीड़ लगी है
और लोग एक छोटे से बच्चे को बुरी तरह मार रहे हैं। मैंने
रुककर कारण पूछा तो पता चला कि वह एक डबलरोटी चुराकर भाग
रहा था। लोगों को रोककर बच्चे को चुप किया और प्यार से
पूछा तो उसने कहा कि उसने सच ही डबलरोटी बिना पैसे दिये ले
ली थी। रुपये-पैसों को उसने हाथ नहीं लगाया क्योंकि वह चोर
नहीं है... मजबूरी में डबल रोटी इसलिए लेना पड़ा कि मजदूर
पिता तीन दिन से बुखार के कारण काम पर नहीं जा सके...घर
में अनाज का एक दाना भी नहीं बचा... आज माँ बीमार पिता और
छोटी बहन को घर में छोड़कर काम पर गयी कि शाम को खाने के
लिये कुछ ला सके... छोटी बहिन रो-रोकर जान दिये दे रही
थी... सबसे मदद की गुहार की...किसी ने कोई सहायता नहीं की
तो मजबूरी में डबलरोटी...' और वह फिर रोने लगा...
'मैं सारी स्थिति समझ गया... एक निर्धन असहाय भूख के मारे
की मदद न कर सकनेवाले लोग ईमानदारी के ठेकेदार बनकर दंड दे
रहे थे। मैंने दुकानदार को पैसे देकर बच्चे को डबलरोटी
खरीदवाई और वह मिठाई का डिब्बा भी उसे ही देकर घर भेज
दिया। मंदिर बंद होने का समय होने के कारण दुबारा भोग के
लिये मिष्ठान्न नहीं ले सका और आपा-धापी में सीधे मंदिर आ
गया, इस कारण मोहन को भोग नहीं लगा पा रहा।'
''नहीं मेरे भाई!, हम सब तो मोहन की पाषाण प्रतिमा को ही
पूजते रह गए... वास्तव में मोहन के जीवंत विग्रह को तो
आपने ही भोग लगाया है।'' मेरे मुँह से निकला...प्रभु की
मूर्ति पर दृष्टि पडी तो देखा वे मंद-मंद मुस्कुरा रहे
हैं।
२६ अगस्त २०१३ |