दीवाली
की साँझ। अपने ही शहर की छटा देखते विमुग्ध होते जा रहे थे हम।
देवताओं के राजा इंद्र की नगरी क्या इससे भी ज्यादा ऐश्वर्यमयी
होती होगी!
जयस्तंभ रोड। विस्तृत मार्ग के दोनों ओर बिजली के रंग बिरंगे
लट्टुओं से जगमगाती विशाल अट्टालिकाएँ, बालकोनियों, छतों,
अटारियों में त्वरितगति से आती जाती सोलहों शृंगार से सजी
सौभाग्यवती रमणियाँ, स्वस्थ, संपन्न, सुवेशित पुरुष।
अट्टालिकाओं के सामने की खुली जगह पर गृहलक्ष्मियों द्वारा
सजाई गई विमुग्धकारी रंगोलियाँ। अपनी अट्टालिकाओं के सुसज्जित
द्वारों से दीपों से भरी जगमगाती थाल लिये निकलती
वस्त्राभूषणों की आभा से दमकती लक्ष्मी स्वरूपा कुलवधुएँ। उनसे
दीप ले लेकर घरों के सामने बने सुदीर्घ चबूतरे पर दीपों की
कतार सजाती देवबालाओं सी शुभांगी कन्याएँ।
महानिशा धीमे धीमे बढ़ी चली आ रही है। वैभव एवं श्री की देवी
महालक्ष्मी के आगमन का मुहूर्त निकट आ रहा है। सुदूर मंदिरों
में घंटाध्वनि गूँजने लगी है। अट्टालिकाओं मे विराजे पंडितगण
श्रीसूक्त उच्चारने लगे हैं। बीच बीच में गूँज उठते हैं, शंख
ध्वनि के उद्घोष। उमंग और उल्लास में नेत्र रक्तिम हो रहे हैं।
उल्लासित युवक आतिशबाजियों की चकाचैंध से जमीन आसमान एक किये
दे रहे हैं। धाँय धाँय छूटते पटाके, बम बच्चों को मारे खुशी के
पागल किये दे रहे हैं। आसमान अपने विस्फारित नेत्रों से धरती
का यह अपूर्व ऐश्वर्य निहार रहा है। सारा वातावरण एक रहस्यमयी
सी अलौलिकता में डूबता जा रहा है मानो आतुर हो आकुल पुकार-सी
कर रहा हो...पधारो...पधारो....हे श्रीसंपन्नता की देवी महादेवी
...महालक्ष्मी पधारो...म्हारी नगरी मा पधारो....म्हारी गलियन
में पधारो...म्हारे कुटियन मा विराजो...
विस्फारित नेत्रों से ताकते...आह्लाद में डूबे हम बढ़े जा रहे
हैं। आगे खंडूपारा, यहाँ भी वही चकाचैंध...वही विमुग्धकारी
भव्यता....विस्मयकारी अलौकिकता....आकुल
प्रतीक्षा....पधारो...पधारो हे महादेवी महालक्ष्मी म्हारी
गलियन में भी...म्हारे गेहन में भी...
आगे बैंक रोड, गोलबाजार रोड....हम जैसे अपने आप में नहीं हैं।
किसी देवलोक में उड़े चले जा रहे हैं। शहर की सारी गलियाँ,
चैबारे आज हर्षोल्लास में दपदपाते मानो किसी पराशक्ति के आगमन
का आभास कराते मंत्र मुग्ध किये जा रहे हैं।
महान घड़ियाँ हैं ये...विमुग्धकारी ...शब्दातीत....कि हमारी
उड़ान थम सी जाती है।
सड़क से हटकर कुछ दूर एक निर्जन-सी जगह में
एक एकांत-सा घर नजर आ रहा है- बेहद पुराना, जर्जर, मिट्टी की
दीवारें, खपरैल का छप्पर। पहले भी देखा था इस वीरान से पुराने
घर को। मगर आज उसमें रोशनी दिख रही थी। घर के सामने एक दीपक जल
रहा था। कुछ विशेष-सा ही लग रहा वह दीपक। दरवाजे पर एक
वृद्धा-सी नारी मूर्ति भी नजर आ रही थी। मैं पल भर चकित सी
सोचती हूँ कि अनायस ही मेरे कदम उस ओर बढ़ जाते हैं।
छुई मिट्टी से बड़ी सुघड़ता से चिकनी पोती गई माटी की जर्जर
दीवारें, गोबर से स्वच्छ सुंदर लीपा गया सामने का हाता। हाते
में बनाई गई अनूठी ग्रामीण अल्पना। अल्पना के बीचो-बीच रखा
अपनी सिंदूरी आभा बिखेरता शांत, स्निग्ध एक दीपक।
अरे धरम तें यहाँ (अरे धरम तुम यहाँ?) ...वृद्ध नारी मूर्ति को
देखते ही मेरे मुँह से निकल गया।
हव नोनी में इंहचे रथों ( हाँ बेटी मैं यहीं रहती हूँ)....मुझे
देखते ही वह सहज सरलता से हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं...तें कब
आये?(तुम कब आईं)
महूं अब इहचें रथों (मैं भी अब यहीं रहती हूँ) ....मैं गौर से
उसके चेहरे की तरफ देखते कहती हूँ....तें बने बने ? (तुम कुशल
तो हो न?)
हव नोनी मैं बने बने हों (हाँ बेटी मैं ठीक हूँ) ...वह स्निग्ध
सरलता से कहती है।
मुझे आघात सा लगता है। यह क्या पूछ बैठी मैं। जिंदगी में कभी
यह ”बने बने“ रह पाई। तिस पर इस बुढ़ापे में। इस नितांत निर्जन
स्थान में। निपट अकेली।
बइठ न नोनी... (बैठो बेटी) वह दीवार से सटी मूँज की छोटी सी
खटिया बिछा देती है।
हम एक दूसरे की तरफ देखने लगते हैं। महालक्ष्मी के शुभागमन की
इन परम सौभाग्यशाली घड़ियों में क्या हमें इस जनम भर दुख
दुर्भाग्य में पिसती, अपशकुनी सी नारी के पास बैठना चाहिये !
मगर मैं बैठ जाती हूँ। मेरी साथिने भी।
धरम के बारे में बता ही दूँ। बचपन से जानती हूँ इसे। ठीक हमारे
घर के सामने ही तो रहती थी यह। अपने पति और दो बेटियों के साथ।
पति उधोसिंह आठवीं तक पढ़ा था। सुनारी का छोटा मोटा धंधा करता
था। मकान वैसा ही था जैसा उन दिनों इस गाँवनुमा कस्बे के थे।
मिट्टी की दीवारें। खपरैल का छप्पर। मिट्टी का ही फर्श। मगर था
बड़ा। फैला हुआ। यह उनका पैतृक मकान था। मकान के आधे हिस्से में
उसका छोटा भाई साधोसिह रहता था, सपत्नीक, निसंतान। आँगन साझा
था। साधोसिंह भी मामूली पढ़ा लिखा, छोटा मोटा सुनारी का धंधा
करता था। पत्नी चंपाकली ऊँची पूरी, हृष्ट पुष्ट, गोरी चिट्टी,
अद्भुत सुंदरी। जेवर कपड़ों में दमकती, दबंग, बड़बोली, बेलिहाज।
मुहल्ले की औरतें सहमतीं उससे। वह हमेशा अपने इर्द-गिर्द दो
चार चमचियाँ रखती। लगभग सभी जानते थे कि वह कुछ गड़बड़ कामों में
लिप्त रहती है। पति से चोरी के जेवरात गलवाती है। गाँजा चरस की
अफरा तफरी करती है। अपने इर्द गिर्द की युवा औरतों को पुलिस को
खुश करने भेजती है।
पति को तो वह आये दिन लताड़ती रहती। बुरी तरह गरज गरजकर। अपनी
जनानी आवाज में खुशामदी ढंग से विरोध करता साधोसिह बड़ा ही
दयनीय लगता। हास्यास्पद भी। वह हार खाती थी तो सिर्फ एक आदमी
से। अपने जेठ उधोसिंह से। उधोसिंह उसे फूटी आँख न पसंद करता।
एक बार भयंकर युद्ध के दौरान उधोसिंह ने अपने सुनारी औजार से
उस पर वार भी कर दिया था। फिर तो सड़क में लोट लोटकर उसने वह
कोहराम मचाया कि पूरा मुहल्ला, पूरी बिरादरी ही जमा हो गईं।
जमकर लताड़ा गया उधोसिंह को.....”जेठ होकर भाई बहू पर हाथ
उठाया।“ मामला बड़ी मुश्किल से ठंडा हो पाया था।
मगर उधोसिंह जल्दी सिधार गये। सिधारने के पहले अपनी दोनों
किशोरी बेटियों का अच्छे से विवाह संपन्न करा गए। घर में बच गई
सिर्फ धरम। धरम अपनी देवरानी के सर्वथा विपरीत। गहरा साँवला
रंग। मझोला कद। ठेठ छत्तीसगढ़ी नाक नक्श। छत्तीसगढ़ी ढंग से पहनी
गई मामूली साड़ी यानी लुगड़ा। ढीलाढाला पोलखा (ब्लाउस)। गले में
चाँदी की हँसुली, कानो में खिनवा, हाथों में ऐंठी। काम की
बातों के अलावा कुछ और बोलना बतियाना उसे सूझता ही न था।
मुहल्ले में उपेक्षित। लगभग नगण्य। मगर जाने क्यों निहायत
नगण्य सी दिखने वाली वह औरत उस जबरजंग देवरानी को बर्दाश्त ही
न हो। उधोसिंह के जाने के बाद तो ज्यादा ही उलझने लगी....तें
अपन लुगड़ा मोर डोरी में काबर सुखाये।(तुमने अपने कपड़े मेरी
डोरी पर क्यों सुखाए) तोर फूल के पेड़ अँगना भर में कचरा
करथें।(तुम्हारे फूल के पेड़ आँगन भर में कचरा करते हैं।) मोर
बाल्टी से पानी काबर भरें।(मेरी बाल्टी से पानी क्यों भरा?)
मोर चीज बसूत ला काबर छूथस। मैं दीवार खड़ा करहूँ। (मेरी चीजें
क्यों छूती हो मैं दीवार खड़ी करूँगी।)
और सचमुच में उसने ऐसी दीवार खड़ी की कि धरम के हिस्से में आँगन
नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई। आँगन का कुआँ भी चंपाकली के
हिस्से में। धरम किसके पास फरियाद करने जाय। मुहल्ला तो था ही
गरीब बेसहारा के प्रति असंवेदनशील। बिरादरी वालों का भी वही
हाल। हारकर धरम मुँह अंधेरे ही उठकर स्नानआदि से निवृत होने
तालाब जाने लगी। घर लौटकर गीली साड़ी में ही सार्वजनिक कुएँ से
पानी भरकर लाती। चंपाकली की कटूक्तियाँ चलती ही रहतीं...पानी
लेकर आती है तो मेरी दुआरी में छलका देती है। कीचड़ करने के
लिये। रांधती है तो धुआँ मेरी तरफ कर देती है।
उधोसिंह की जो थोड़ी सी जमापूंजी थी वह देखते ही देखते समाप्त
हो गईं। धरम के वे थोड़े से चाँदी के गहने भी। मुहल्ले में
पढ़ा-लिखा संपन्न कहने को हमारा ही घर था। सो धरम हमारे घर काम
माँगने आई। बहुत हिम्मत करके। क्योंकि उसकी बिरादरी की औरतें
घरों में काम करने नहीं जाती थीं। जूठे बर्तन माँजने तो हर्गिज
नहीं। मगर ब्राह्मण के घर का काम सहा जा सकता था। तब भी माँ ने
उसे दूसरे ही काम दे दिये थे...चाँवल फटकना, चुनना, गेहूँ
धोना, सुखाना, पिसाना। अचार पापड़ बड़ियों के मसाले तैयार करना।
मगर चंपाकली माँ को ही जब तब कोंचती रहती...ये जिंदगी में कभी
अचार बनाई है जो इससे मसाले तैयार करवाती हो बाई। मैं दूसरी
दूँगी बढ़िया काम करनेवाली। इतनी तो गंदी रहती है। कैसे सहती
हो। माँ चंपाकली को मुँह न लगातीं। मगर धरम को भी काम देने से
परहेज करने लगीं। भूखों मरती भटकती धरम को आखिर सेठ गोविंदलाल
के घर का काम मिल गया। सेठजी का भारी भरकम संयुक्त परिवार। साफ
सफाई से लेकर सब्जियाँ धोना, सुधारना, काटना, मसाला पीसना,
कपड़े धोना, सुखाना, तह करके रखना, दिनभर खटती रहती। साँझ ढले
घर लौटती तो चंपाकली की कटूक्तियाँ शुरू....बनिया घर के जूठा
मांजत हे। हमार नाक कटात हे। मरही तो कोनो तोर लास नहीं
छूही।(बनिया के घरों का झूठा माँजती है, हमारी नाक कटवाती है,
मरेगी तो कोई तेरी लाश भी नहीं छुएगा)
धरम को तंग करने, प्रताड़ित करने में चंपाकली को अपार आनंद
मिलता। उसकी चमचियाँ और भी आक्रामक बन जातीं। बाकी सब धरम का
तमाशा देखते। कभी धरम काम से लौटकर घर का दरवाजा खोलती तो पाती
कि पानी कि गगरी गायब। कभी लोटा गायब। कभी गिलास गायब। धरम नीम
अँधेरे में अपने दरवाजे की ड्योढ़ी पर बैठी अपनी कमजोर आवाज में
मानो हवाओं से फरियाद करती रहती....में का करों दाई...में का
करों ओ...ऐमन दीवार फाँदके मोर जम्मों बरतन ला डोहारत हें।(मैं
क्या करूँ माँ, मैं क्या करूँ। ये लोग दीवार फाँदकर मेरे सारे
बर्तन चुरा रहे हैं ) इतना सुनना था कि चंपाकली का गिरोह नोच
खाने के लिये टूट पड़ता- वाह, हम तोर थाली कटोरी चुराबो। हमार
घर बरतन के कमी हे का। जा पुलिस बुलाले। तलासी ले ले। (हम
तुम्हारी थाली कटोरी चुराएँगे? हमारे घर में बरतन की कमी है
क्या? तलाशी ले लो। जाओ पुलिस बुलाकर ले आओ)
सारे बर्तन गायब हो गये तो धरम मिट्टी की हँड़िया, परई लाकर
खाना बनाने लग गई। उसमें भी कभी उसके भात में गंदगी पड़ी मिलती।
कभी हँड़िया ही फूटी मिलती, कभी उसका ढक्कन। एकाध बार गोविंद
सेठ स्वयं समझाने आये। चंपाकली ने गोविंद सेठ से तो खूब कायदे
से बातें की मगर उनके जाते ही धरम की तो चमड़ी ही उधेड़ दी-
गोविद सेठ तोर खसम हे का ? ओखर धौंस दिखवत हस। (गोविंद सेठ
तेरा पति है क्या जो उसकी धौंस दिखाती हो)
सहते-सहते धरम बूढ़ी हो गई। अशक्त भी।
आखिरकार सेठजी ने सख्त कदम उठाते हुये मकान का धरम वाला हिस्सा
ही बिकवा दिया। इस समय कभी न झाँकने वाले बेटी दमादों ने आकर
भारी बखेड़ा किया कि धरम सारा पैसा उन दोनों के नाम कर दे और
बारी-बारी से दोनों के घर रहे। मगर सेठजी ने सारा पैसा धरम के
नाम बैंक में जमा कर दिया ताकि वह ब्याज से गुजारा कर सके। धरम
के रहने के लिये उन्होंने अपने एक पुराने टूटे फूटे मकान में
व्यवस्था कर दी जहाँ उनकी कुछ बूढ़ी गायें और चारा भूसा रहता
था। दामादों को धमकाया ...इसके मरने पर आना और ठीक से ”क्रिया
करम“ करके पैसा आपस में बाँट लेना। अभी भागो यहाँ से।
मैं लंबे समय तक अपने शहर से बाहर ही रही थी। पहले पढ़ाई के
सिलसिले में। बाद में विवाह के कारण। बरसों बाद लौटी और जानना
चाहा कि धरम अब कहाँ है, कैसी है तो यही सब पता चला।
सेठजी मोरबर बहुत करीन नोनी ....( सेठजी ने मेरे लिये बहुत
किया बेटी) धरम मुझे कृतज्ञता पूर्वक बता रही थी- भगवान उनखर
बालबच्चा ला सुखी रखे। मरहूं तो बेटी दामाद आबे
करहीं...(मरूँगी तो बेटी दमाद आएँगे ही) उसके चेहरे पर सहज
विश्वास, शांति और तरलता थी।
जनम भर की प्रताड़ित, लोगो के उपहास का पात्र बनी, अपने सगे
संबंधियों से उपेक्षित, पतिगृह से उजाड़ी गई, बेटियों के, नाती
नातियों के प्यार दुलार भरे माहौल से सर्वथा वंचित, जीवन में
कभी भी न्याय न पाने वाली, जीवन की डूबती साँझ के इस निर्जन
एकांत में गुजारती धरम के शांत तरल चेहरे पर न कोई शिकायत थी,
न खिन्नता, न अवसाद। सारी अवमाननाओं को कितनी सहजता से स्वीकार
कर लिया था उसने। विष पीकर मीरा बन गई।
वो दुखाही चंपाकली तोला बड़ा दुख दीस...(उस दुष्ट चंपाकली ने
बहुत दुख दिया) मेरे मुँह से निकल गया।
कोनो कोई ला दुख नईं दे नोनी...वो सब मोर करम के दंड रहिस
होही। वो ह तो ओखी ए।(कोई किसी को दुख नहीं देता बिटिया, सब
मेरे करम के दंड रहे होंगे। वह तो एक बहाना थी।)
मैं अवाक्। जनम भर जिसने प्रताड़ना दी। घर से बेघर कर दिया।
उसके लिये कोई दुर्भावना, कोई मलिनता नहीं इसके मन में।
अब जाँगर नईं चले नोनी....वह कह रही थी...अपन बर भात रांध
लेथों। चारा भूसा निकाल के गाय-गोरू ला दे देथों। गाय-गोरू सब
हिल गेहें मोर से। भजन पूजन तो आये नहीं, बइठे बइठे ”हरे
कृष्ण.हरेराम“ जपत रथों। मोर घरवाला यही मंत्र जपत जपत आँखीं
मूदे रिहिस... (अब काम करने की ताकत नहीं है, अपने भर का भात
रांध लेती हूँ। चारा भूँसा निकालकर गायों को दे देती हूँ। गाय
भैंस भी हिल गयी हैं मुझसे। भजन पूजन तो आता नहीं, बैठे बैठे
हरे कृष्ण हरे राम जपती रहती हूँ। मेरे पति ने भी यही मंत्र
जपते जपते आँखें मूँदी थीं।)
जाने गायें हमारी बातें सुन रही थीं या क्या। बोल उठीं...
बाँ.... बाँ... माँ... माँ...
क्या कहूँ इसे ! धैर्य, सहशीलता, क्षमा और आस्था की इस जीवंत
मूर्ति के आगे मुझे अपने सारे शब्द व्यर्थ से लगने
लगे। समय हो
गया था। उससे विदा लेकर अपने घर की ओर कदम बढ़ाते हुये मैंने
एकबार फिर पलटकर देखा। घर के सामने हाते पर खड़ी वह हमें जाते
हुये देख रही थी...सहज, शांत, स्निग्ध। सिंदूरी आभा बिखेरता
उसका वह दीपक भी वैसा ही जल रहा था...सहज, शांत, स्निग्ध।
जाने क्यों मुझे लगा, अगर मुझे यह दृश्य देखने को न मिलता तो
नगर में चारों ओर छाई यह चकाचैंध भरी भव्यता मुझे खोखली ही
लगती। बेजान ही लगती। इस एक दीप ने मानो इस नगर की भव्यता में
प्राण डाल दिये हैं। हाँ, उस नगर की सारी भव्यता, सारा ऐश्वर्य
फीका पड़ जाता है अगर उसके किसी कोने में धैर्य, सहनशीलता,
क्षमा और आस्था का कोई दीप अपनी शांत, स्निग्ध, आभा न बिखेर
रहा हो। |