सर,
आपने कहा कि अपने पिता की पुण्यतिथि के इस पुण्य अवसर पर मैं
कुछ ऐसी बात बताऊँ जो मुझे उनमें कुछ विशिष्ट ही लगी हो,
दूसरों से अलग लगी हो।
सर, मुझे तो मेरे पिता संपूर्ण रूप से विशिष्ट ही लगते हैं फिर
भी कुछ विशेष बात है जो उन्हें दूसरों से अलग करती है। वह क्या
है, मुझे स्वयं भी स्पष्ट नहीं है। संभवतः
उनके बारे में बताने
लगूँ तो स्पष्ट हो जाए। सर, पिताजी अति पिछड़े गाँव के अति गरीब
घर से थे। हमारे दादाजी दूसरों के खेत पर काम करने वाले खेतिहर
मजदूर थे। पिताजी छुटपन से उनके साथ मजदूरी करने जाने लगे थे।
जल्दी ही शादी भी हो गई थी। वे कुछ पढ़ना लिखना सीख गए थे। साठ
सत्तर का दशक रहा होगा कि तभी तेजी से प्रसिद्ध होते भिलाई
कारखाने में मजदूरों की आवश्यकता निकली। भाग्य आजमाने कुछ
मजदूरों के साथ पिताजी भी चले गए। वे चुन लिये गए। यहीं से
हमारे परिवार के भाग्य ने पलटा खाया।
पिताजी परिवार भिलाई ले आए। गाँव में तो हम माटी की मड़ैया में
रहते थे। बिजली तो थी ही नहीं। पानी दूर किसी कुएँ से भरकर
लाते थे। नहाते तो तालाब में ही थे। शौच के लिए जंगलों में।
मगर यहाँ भिलाई में हमें रहने के लिए फ्लैट मिला। था छोटा, पर बिजली पानी, शौचालय सभी आवश्यक सुविधाएँ थीं। पड़ोसियों ने
पिताजी को बताया कि जब कारखाने के कर्मचारियों के रहने के लिये
आवास बन रहे थे तो पं.नेहरू देखने के लिये आए थे। सुरक्षा की
परवाह किये बगैर वे यकायक मजदूरों के लिये बने आवासों को देखने
एक फ्लैट में घुस गए थे। उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि
कर्मचारियों के आवास में सभी मूलभूत सुविधाएँ होनी चाहिये।
मजदूरों के आवास में तो जरूर ही। सो सुविधाएँ तो हमे सहज मिल
गईं, साथ ही दिखने लगे हमें, देश भर से आए विभिन्न जाति,
विभिन्न धर्मों, संप्रदार्यों के लोग। उनके भिन्न-भिन्न रहन
सहन, रीति रिवज, मान्यताएँ, आस्थाएँ।
एक ”लघु भारत“ में ही पलने बढ़ने लगे हम। सो दृष्टि विकसित होने
लगी। पिताजी की तो और भी ज्यादा। दूसरे मजदूरों की तरह उन्हे
नशे पत्ते वगैरह की लत थी ही नहीं। सहज सात्विक प्रकृति के थे।
कुछ उनके गुरू महात्मा की भी सीख थी। सो अच्छी अच्छी बातें ही
सीखीं उन्होंने। सिखाईं भी। हमारी पढ़ाई लिखाई पर तो ध्यान देते
ही, शाम को हमें मैदान ले जाते। अन्य बच्चों के साथ खेल
खिलाते। कभी सिविक सेंटर ले जाते, कभी मैत्री बाग। मंदिर, मेले
ठेले, संत महात्माओं के प्रवचन, तरह तरह के रंगारंग कार्यक्रम,
सभी जगह। माँ को भी साथ रखते। सोने में सुहागा, कारखाने में
मिलनेवाली सुविधाओं के तहत हम लोगों ने चारों धामो के दर्शन
किये, दुर्लभ पर्यटन स्थलों में भी खूब आनंद उठाए। अंदमान
निकोबार भी ले गए पिताजी। सेलुलर जेल में हुतात्मताओं को
श्रद्धांजलि देते हम सब धर-धर आँसू बहाते रोने लगे थे...
हमारा व्यक्तित्व विकास ही नहीं, हमारे लिये कुछ संपदा भी बना
गए पिताजी। अवकाशप्राप्ति के समय वे सुपरवाइजर हो चुके थे। जो
पैसे मिले उससे विस्तृत होते भिलाई शहर में एक मकान बनवाया।
अपने गाँव वे बराबर जाते ही रहते थे। गाँव में उन्होंने जमीन
ली। खेती ली। वहीं छोटा सा मकान भी बनवा दिया। हम बहन भाईयों
की शादी तो नौकरी में रहते ही निपटा दी थी। बड़ा भाई भिलाई वाले
मकान में ही रहकर डॉक्टरी करने लगा। मैं नौकरी में आ गया। छोटा
गाँव में रहकर खेती करने लगा। तेज था ही। उसने खेतों में
बोरवेल लगवा लिये। ट्रैक्टर खरीद लिये। बढ़िया बीज, बढ़िया खाद
हर तरह की आधुनिक सुविधाएँ अपनाने लगा। खेती लहलहा उठी।
बागीचों में आम जामुन, सीताफल, केले अनार लटालट फलने लगे।
बाजारों में बिकने लगे। पैसों की बारिश होने लगी।
भाई का गाँव में नाम हो गया। इस समय देश में जातिवाद की खेती
करनेवाले नेता पूरे जोर शोर से उभर रहे थे। गाँव के गाँव उनसे
प्रभावित हो रहे थे। उनकी नजर भाई पर गई। वे गाँव आने लगे। भाई
को अपने घेरे में लेने लगे...”देखो मदनलाल, ये तुम्हारे दाऊजी
जाने कब से सरपंच बने बैठे हैं, जैसे सरपंची इनकी बपौती है। अब
परिवर्तन होना चाहिए न। सारे देश में परिवर्तन की लहर है,
बल्कि आँधी है। तुम लोग कुएँ के मेढक बने बैठे हो। परिवर्तन का
बीड़ा तुम्हें उठाना चाहिये। तुम पढ़े लिखे संपन्न समर्थ युवा
हो। सोने में सुहागा, दलितवर्ग में भी आते हो। सरकार दलितों को
विशेष प्रोत्साहन दे रही है। तुम तो सरपंची के लिये खड़े हो
जाओ। बहुत दिनों तक इन सवर्णों का राज रहा, अब हमारा राज होगा।
तुम सरपंच होगे दलित युवकों में उत्साह आएगा...नवजीवन
मिलेगा....“ भाई प्रभाव में आ गया। गाँव गरीब गुजरा था ही।
गरीब दलितों की संख्या काफी थी। सवर्ण भी गरीब ही थे। उन्हें
भी लगा परिवर्तन होना चाहिये। चुनाव हुआ। भाई चुनाव जीत गया।
सर, आपने यहाँ पूछा, दाऊजी कैसे आदमी थे? सर दाऊजी बहुत अच्छे
आदमी थे। उन दिनों सरकार के संसाधन सीमित थे। उन सीमित
संसाधनों के लिए भी प्राथमिकतायें थीं। तिस पर भ्रष्टाचार, भाई
भतीजावाद के रोगों से ग्रस्त था पूरा तंत्र। ऐसे में गाँव में
जो भी थोड़ी बहुत सुविधाएँ थीं, दाऊजी ने करवाई थीं। उनकी
पुश्तैनी जायदाद थी। सो अधिकतर तो अपने ही पैसों से ही गाँव
में जगह जगह कुएँ खुदवाए थे। गाँव की सीमा पर तालाब खुदवाए।
तालाब के पास पीपल का पेड़। पेड़ के पास मंदिर। मंदिर के चारों
ओर सुंदर फूलों के पेड़। परिसर में दूरदराज से आए यात्रियों के
ठहरने की व्यवस्था। कोई जाति भेद नहीं। गाँव में पाठशाला
उन्होने ही खुलवाई। पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी को बच्चों के
लिये मिठाई उनके घर से आती थी। होली दीवाली, दशहरा आदि पर्व
त्योहारों मे पूरा गाँव दाऊजी की ड्योढ़ी पर इकट्ठा होता था।
लोग उनके पैर छूते। आशीर्वाद लेते। भंडारा चलता। हँसी मजाक,
कहकहे ठहाके, लोकगीत, ढोलक, नाचा गम्मत। आनंद बरसता। यह परंपरा
उनके पिता के समय से थी। शायद उससे भी पहले से। कभी खयाल नहीं
गया दाऊजी सवर्ण हैं। हम दलित या अवर्ण।
मगर भाई के चुनाव जीतते ही यह खयाल उभर आया। मुखर हो गया।
भयानक रूप लेने लगा। भाई को चुनाव लड़ाने वाले नेता मानो बौरा
गए। जोरदार जश्न। उत्तेजक बातें। उत्तेजक भाषण। गाँव का
दलितवर्ग पूरे जोश में।...अब होगा दलितों का राज। दलित अस्मिता
छाएगी... मनुवाद थर्राएगा....एक से एक उत्तेजक नारे। पोस्टर।
पूरा गाँव दहशत में। बेचारे सवर्ण तो सचमुच आतंकित।
उधर विजेताओं का जोश सातवें असमान में। हमारी ऐसी शोभायात्रा
निकले कि गाँव याद रखेगा। पर शोभायात्रा में युवा सरपंच के
पिताश्री को तो होना ही चाहिए। पिताजी बड़े भाई के पास भिलाई
में थे। उन्हे मानमनौवल कर लाया गया।
निकली शोभायात्रा। पूरी साजसज्जा, पूरे जोश के साथ। रंग गुलाल
उड़ाती। पताके फहराती। उत्तेजक नारे लगाती। जमीन आसमान एक करती।
ऐसे तूफानी जुलूस में सबसे आगे पिताजी। दुबले पतले। धोती
कुर्ते में। विनम्र, हाथ जोड़े। गाँव की गलियों में घूमता जुलूस
बढ़ता रहा कि आगे आगे चलते पिताजी के कदम उस ओर मुड़ गए जहाँ आगे
दाऊजी का घर था। पिताजी बेरोकटोक आगे बढ़े जा रहे थे। सो बेचारा
भाई भी उनके पीछे। उसके साथी नेता भी उसके पीछे। उनके पीछे
हतप्रभ सा जुलूस।
दाऊजी अपनी हवेली के बरामदे में आराम कुर्सी पर बूढ़े शेर की
तरह अकेले बैठे हुए थे। पिताजी हाथ जोड़े आगे बढ़े और हमेशा की
तरह चरण छूकर प्रणाम किया। भाई को भी करना पड़ा। उसे उकसाने
वाले नेताओं को भी। जुलूस के लोग भी आ आकर पैर छूने लगे।
नारेबाजी एकदम शांत। हाथ जोड़े पिताजी कहने लगे...”दाऊजी अँधेरे
में डूबे इस गाँव के लिये आप प्रकाशपुंज रहे हैं। गाँव के एक
एक आदमी, उसके बालबच्चे, उसके परिवार की खोज खबर लेते रहे हैं
आप। आप इस गाँव के माईबाप रहे हैं। सरपरस्त रहे हैं। इस लड़के
ने भारी धृष्टता की। आपके खिलाफ खड़ा हुआ। इसे क्षमा कर दीजिए।
मैं बहुत शर्मिदा हूँ।“
दाऊजी अब कुर्सी से उठे। पिताजी के कंधे पर हाथ रखा।
बोले...”भँवरलाल तुम शर्मिदा क्यों हो। तुम्हे तो गर्व करना
चाहिए। तुम्हारे लड़के ने चुनाव नहीं जीता। मेरे कंधे से
जिम्मेदारी का बोझ ले लिया है। मेरे लड़के गाँव से निकलकर शहरों
में बस गए। तुम्हारा लड़का शहर से आकर गाँव में बसा। अपनी
तरक्की की। अब गाँव की भी करेगा। पढ़ा लिखा होशियार है।
तुम्हारे सुंदर संस्कार हैं इसमें। आधुनिक तौर तरीके जानता है।
मुझे विश्वास है यह गाँव को चमका देगा। मेरा आशीर्वाद है।“
पिताजी के आँसू बहने लगे। भाई तो सुबकने लगा। दाऊजी ने दोनो को
बाहों में भर लिया। भड़काऊ नेता एक तरफ खिसक लिए। जुलूस नारे
लगाने लगी....दाऊजी जिंदाबाद। भँवरलाल काका जिंदाबाद। मदनभैया
आगे बढ़ो। गाँव हमारा चमका दो। दाऊजी हमारे साथ हैं।
सर, पिताजी की यह भूमिका मेरे जेहन में हमेशा रही। मैं नहीं
जानता था कि यह क्यों मेरे जेहन में बसी हुई है। आज समझ में आ
रहा है यह निश्चित रूप से एक विशिष्ट भूमिका है। सामान्य पिता
से हटकर। बल्कि बढ़कर। भाई जब तक सरपंच रहा दाऊजी से मिलकर काम
करता रहा। वह दिन है और आज का दिन है हमारे गाँव में जातीय
वैमनस्य कभी देखा ही नहीं गया। |