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समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से अश्विन गाँधी की कहानी- पर्वतारोहण

कहानियाँ


सुबह ११ बजे अमृतसर से मुसाफिरी शुरू हुई। आरामदायक बड़ी गाड़ी। गुरुदीप सिंह ड्राइवर। अशोक आगे बैठा, आशा और केतकी पीछे अपनी अपनी अलग पायलट सीट में बैठे, और सब का सामान गाड़ी के पिछले भाग में रखा गया। लंबी मुसाफिरी थी, हिमाचल प्रदेश के चाँबा पहुँचना था। पंजाब के बड़े बड़े खेतों के बीच से गुजरती हुई गाड़ी अमृतसर शहर के बाहर आ पहुँची। फौजी घराने से आई आशा को तीन समय दिन में ठीक से खाना खाना बहुत जरूरी था। गुरुदीप की पहचान वाला एक ढाबा दिख गया। जबरदस्त पंजाबी खाना हो गया। पंजाब की प्रख्यात लस्सी भी हो गई। सब को लस्सी हज़म हो गई, सिर्फ केतकी को तकलीफ हुई, पेट में असुख रहा। गाड़ी आगे चली। गुरुदासपुर, और फिर पठानकोट। अभी-अभी यहाँ आतंकी हमला हुआ था। आस पास काफी फौजी दिख रहे थे। कोई रुकावट के बिना गाड़ी पठानकोट से बाहर निकल गई और हिमाचल प्रदेश की ओर चल पड़ी।

पूरे सफ़र का प्लान आशा और केतकी ने बनाया था। दोनों स्वतन्त्र मिजाज़ की औरतें, आशा ५५ साल की और केतकी ४५ साल की। दोनों सहेलियाँ साथ में अकेले अपने खुद के परिवार से अलग घूमी हुई थीं। दोनों बड़ी होशियार, कम से कम पैसों के खर्च में ज्यादा से ज्यादा आनंद लूटने का मकसद रखनेवाली। अशोक से दोस्ती हुई तो दोनों को सोच आई क्यों ना अशोक को सफ़र में साथ आने का निमंत्रण दें? एक तो पुरुष की कंपनी होगी तो दो औरतों की सुरक्षा बढ़ेगी, और दो की जगह तीन होंगे तो खर्चा भी कम होगा! ७० साल का अशोक, चार साल पहले स्ट्रोक का शिकार हुआ था, और एक साल पहले दाहिने घुटने का ऑपरेशन कराया था। अभी सेहत ठीक थी, चल सकता था, साइकिल भी चला लेता था, मगर ऊँचाइयों पर चढ़ना अब भी इतना आसान नहीं था। लंबे समय से अशोक घर से कहीं दूर सफ़र पे नहीं निकला था। अशोक में अकेले सफ़र करने की हिम्मत नहीं थी। यह निमंत्रण आया तो अशोक ने तुरंत स्वीकार कर लिया। एक तो घर से बाहर कुछ दिनों के लिये रहने का अनुभव मिल जाएगा, और दूसरा दो जवान लड़कियाँ उसका खयाल रखने के लिये मिल जाएँगी! दोनों लड़कियों ने जनवरी महीने में हिमाचल जाने का प्लान बनाया। दोनों को पर्वत, बर्फ, और ट्रैकिंग में दिलचस्पी थी। अशोक सारे समय खुश रहा कि वो दो जवान लड़कियों के साथ सफ़र को जा रहा था। अशोक ने प्लानिंग में कोई भी हिस्सा नहीं लिया, सब दोनों लड़कियों के ऊपर छोड़ दिया!

हिमाचल प्रदेश में गाड़ी की रफ़्तार धीमी हो गई थी। सीधी सड़क बहुत कम थी, ज्यादातर पर्वतों के इर्द गिर्द गोल-गोल घूमता हुआ रास्ता था। हिमाचल के छोटे छोटे गाँव आते रहे, जाते रहे। आशा का दिन के दूसरे खाने का समय हो गया था। हिमाचल के एक ढाबे में रुके, और फिर से एक पंजाबी स्टाइल खाना हो गया। गुरुदीप के पास सिर्फ पंजाबी गाने की सीडी थी। कुछ देर सुने, मगर अशोक को इतना कुछ जमा नहीं। गुरु से बात करना शुरू किया। गुरु पंजाबी और हिंदी का खिचड़ी बना कर बात कर रहा था। आशा और केतकी ठीक तरह से समझ पा रही थीं। गुरु के पास पंजाब, हिमाचल, और चाँबा की काफी जानकारी थी। चाँबा में जहाँ ठहरना था उस जगह की और उसके मालिक की भी काफी जानकारी थी। आशा और केतकी ने गुप्तचर की भाँति सब जानकारी इकट्ठा करना शुरू कर दी।

गुरु ने कहा, चाँबा की कुटीर पर्वत के मध्य में है, ऊपर पैदल चढ़ के जाना होगा।
अशोक को झटका लगा, ये गुरु क्या बोल रहा है?
'गुरु, गाड़ी ऊपर तक नहीं जायेगी क्या?'
दोनों लड़कियाँ जोरों से हँस रही थीं, जैसे कि वह बात दोनों को पहले से मालूम थी। अशोक ने हिमालयन ऑर्चर्ड कॉटेज की वेब साईट देखी थी। बहुत सारे सुंदर फोटो वहाँ थे, और बहुत सारी दिलचस्प प्रवृत्तियों का जिक्र भी किया गया था। कहीं भी वहाँ यह नहीं लिखा था कि सड़क से कॉटेज तक पहुँचने के लिये पैदल आरोहण करना होगा।
गुरु मस्ती करने के मूड में आ गया।
'नहीं साब, मालिक और उसका परिवार नीचे रहते हैं, मेहमानों को ऊपर भेजते हैं।'
अशोक ने सोचा, सब मस्ती कर रहे हैं, चलो, मस्ती में शामिल हो जाए, और मस्ती को आगे बढाए।
'जरूर, तो कोई डोली की व्यवस्था होगी' और अशोक गाने लगा -
'डोली चढूँगा मैं
दुल्हा बनूँगा मैं
ऊपर पहचूँगा मैं!!'

आशा, केतकी, और गुरु तीनों जोरों से हँस रहे थे, मज़े लूट रहे थे, मनोरंजन हो रहा था।
'साब, डोली की व्यवस्था नहीं है।'
'ठीक है, शायद घोड़ा रखा होगा।'
'घोड़ा भी नहीं है मगर एक बार मैंने गधा देखा था।'
'अच्छा, ठीक है फिर तो,' और अशोक फिर से गाने लगा-
'गधे पे गधा
गधा बन जाऊँगा मैं
ऊपर पहुचूँगा मैं!!'

अशोक का गाना सुपर हिट हो गया!
अचानक एक पर्वत के नज़दीक सड़क पर गाड़ी रुकी। गुरु गाड़ी से नीचे उतर गया। गुरु ने ज़ाहिर किया, 'हम आ गए! वो देखो ऊपर, कुटीर दिखती है ना, वहाँ जाने का है।' दो तीन लड़के ऊपर से नीचे आये थे, सामान उठाने के लिये।

अशोक को न कहीं डोली दिखी, न कोई घोड़ा, न कोई गधा ! गुरु अब विदा लेनेवाला था। अशोक गुरु के पास गया, और पूछा, 'क्या सचमुच में पैदल ऊपर पहुँचना होगा?' गुरु ने अशोक की मायूस आँखे देखकर कुछ भी बोलना उचित नहीं समझ, मूक रहकर सहमति दर्शाई और अपने रास्ते चल पड़ा।

पर्वत आरोहण शुरू हुआ। अली नाम के लड़के ने अशोक का सामान अपने कंधे पर रखा, और अशोक का एक हाथ भी थामा। नदी आई। नदी पर पुल था। पुल गुज़र गया, और चढ़ाई के साथ लड़ाई शुरू हुई। अशोक गधे जैसा महसूस कर रहा था। चुपचाप चढ़ता रहा। शेरपा अली के साथ अशोक एवरेस्ट चढ़ रहा था। रास्ता कुदरत ने बनाया था। कहीं किस्मत अच्छी हो जाती तो कुछ क़दम के लिये सपाट रास्ता मिल जाता। ऊँचाई आती तो पत्थरों पर संतुलन रखकर आधे आधे क़दम से बढ़ना होता था। अशोक अली से बार बार पूछता रहा, 'कितना ख़तम हुआ? कितना बाकी है?' अली गणित में कच्चा था, कुछ जवाब नहीं देता।
अली हल्की सी मुस्कान के साथ अशोक का हाथ थामे रहा, अशोक को दो बार बीच में विश्राम के लिये बैठने दिया और करीब आधे घंटे में अशोक को ऊपर पहुँचा दिया। दोनों लड़कियाँ भी ऊपर आ पहुँचीं। तीन में से सब से जवान केतकी की भी साँस फूल गई थी, और दो बार चढ़ते-चढ़ते बीच में विश्राम कर के आई थी। फौजी आशा ने गर्व के साथ पहाड़ जीत लिया, और किसी भी संकट का संकेत नहीं दिया।

हिमालयन ऑर्चर्ड कॉटेज के मालिक परितोष ने हिमाचल प्रदेश की प्रथा के अनुसार मेहमानों का स्वागत किया। दिया जलाया, तिलक लगाया, माला पहनाई और सब के सर पर हिमाचल की टोपी पहनाई। टोपी पर वनस्पति से बना पींछा टोपी की शोभा बढ़ा रहा था।
'परितोष, यह सुंदर हिमाचल की टोपी हम घर ले जा सकते है ना?'
'हाँ सर, ये हमारी ओर से आप सब को तोहफा है।'
'आप तो बहुत बड़े दिलवाले इंसान हैं, लगता है आगे भी बहुत सारे तोहफे आनेवाले हैं।' , अशोक ने परितोष की भरपूर प्रशंसा कर दी।

परितोष ने पूरी जिन्दगी हिमाचल में गुज़ारी है। कई सालों से हिमाचल पर्यटन के व्यवसाय में है। सारा परिवार, बेटे, बेटी, दामाद, सब साथ में एक ही कारोबार में हैं। चाँबा के एक पर्वत के मध्य में अपना घर बनाया है, तीसरी मंज़िल पे परिवार के साथ रहता है, और पर्यटकों के रहने के लिये पहली और दूसरी मंज़िल पर कॉटेज बनाए हैं। तीन समय दिन में घर का बनाया खाना, और घर जैसे माहौल में रहना ये परितोष के हिमालयन ऑर्चर्ड कॉटेज की विशिष्टता है। परितोष के पास बहुत सारे विषयों का ज्ञान है, और गाइड बनकर प्रवासियों को मुग्ध कर देता है। परितोष जब दो साल का था तब उसका बड़ा भाई गुजर गया था। अशोक को देखा तो परितोष को अपने बड़े भाई की याद आ गई, और अशोक को अपना बड़ा भाई समझ लिया।

जनवरी महीना था। कड़ाके की ठंड थी। कोई दूसरे पर्यटक नहीं थे। सब से बेहतरीन कॉटेज अशोक, आशा, और केतकी को मिलनेवाले थे। परितोष ने दूसरी मंज़िल पर अगल बगल के दो कॉटेज दिखाए। एक अशोक का, और दूसरा आशा और केतकी का। जूते बाहर निकालकर कॉटेज में प्रवेश करना होगा। ठंड की वजह से पाँव में सब ने मोजे पहने हुए थे जो काम आ गए। जोरों की भूख लगी थी, जल्दी जल्दी सब ने सामान रख दिया और पहली मंज़िल के डाइनिंग हॉल की ओर चल पड़े। डाइनिंग हॉल के मध्य में अँगीठी जल रही थी। लाल-लाल गरम-गरम कोयले उष्णता फैला रहे थे। घर की औरतों की निगरानी में जबरदस्त हिन्दुस्तानी शाकाहारी खाना बना था। गरम गरम रोटियाँ आती रहीं। सब ने डटकर खाया, और बहुत प्रशंसा की। बहुत थकान थी, सब अपनी कॉटेज की ओर सोने चल पड़े।

जूते बाहर निकालकर अशोक अपने कमरे में दाखिल हुआ। आशा और केतकी ने बगल के कमरे में प्रवेश किया। कमरे के दो दरवाज़े, एक बाहर का, और एक अन्दर का। दो में से कोई भी दरवाज़ा ठीक से बंद नहीं हो रहा था। ठंडी हवा आराम से अंदर आ रही थी। अशोक ने काफी ज़ोर लगाया मगर एक भी दरवाजा मचका नहीं। महा मेहनत के बाद एक दरवाजे की अंदर से कड़ी लगा दी ताकि कोई बाहर से अंदर ना आ पाए। इधर-उधर हाथ फैलाकर एक लाइट का स्विच ढूँढ निकाला। अँधेरा चीरकर रोशनी आई मगर अँधेरे को मात नहीं कर पाई। बल्ब छोटा था और उसको भी शायद ठंड लग गई थी। रोशनी हर कोने में ठीक से नहीं पहुँच रही थी और जहाँ अलमारी में सामान रखा था वहाँ घनघोर अँधेरा कायम था। साथ में लाई हुई टोर्च निकालकर अशोक ने जाँच शुरू की। सब खिड़कियाँ बंद थीं मगर शायद दरारें होंगी जहाँ से ठंडी हवा आवन जावन कर रही थी। हिमालय के लकड़ों से बना मज़बूत फर्नीचर दिखा। यह कोई पाँच सितारोंवाली होटल तो था नहीं, तो कोई टेलीविज़न या टेलीफोन नहीं दिखा। पलंग बड़ा था और गाढ़े मोटे कम्बलों से आच्छादित था। कमरे में कोई तापक व्यवस्था नहीं दिखी। बाथरूम में गरम पानी के लिये एक मशीन लगाई गई थी लेकिन लगा ऐसा कि मशीन का सही समय सही मात्रा में गरम पानी प्रदान करने का कोई इरादा नहीं था। सुबह उठते ही परितोष से बात करनी होगी। सोने की तैयारी में अशोक ने अपने सब वस्त्र उतार दिए, सिर्फ थर्मल पहने रखा। बगल के कमरे से दोनों लड़कियों की कुछ आवाज़ आ रही थी, शायद दोनों कमरे का मूल्यांकन कर रही थीं। दोनों ने बहुत ही किफायती भावों में पूरी यात्रा के खाने -पीने-रहने का इंतज़ाम किया था, किसी भी प्रकार की शिकायत करना उचित नहीं था। अशोक ने बाँहों का बल लगाकर कंबल हटाये, अंदर घुस गया, और कंबल का बोझ अपने बदन पर ले लिया।

दूसरे दिन सुबह अशोक उठा तो उसका दाहिना घुटना दर्द कर रहा था। पर्वतारोहण अशोक को भारी पड़ा था। दोनों लड़कियों ने हर दिन आस पास की अलग अलग जगहों पर घूमने जाने का प्लान बनाया था। हर जगह गाड़ी से जाना होगा। गाड़ी तक पहुँचने के लिये पर्वत पाँव पाँव उतरना होगा और वापिस आते समय पाँव पाँव चढ़ना होगा। इस सोच से अशोक काँप उठा, और मन ही मन तय कर लिया कि घुटने की सेहत के लिये वो अब सिर्फ जाते समय आख़िरी बार पर्वत उतरेगा।

नाश्ते के समय डाइनिंग टेबल पर सब साथ में बैठे थे। परितोष की पत्नी स्नेहलता और परितोष की बेटी प्रिया परोस रही थी। फिर से जबरदस्त स्वादिष्ट खाना बना था। परितोष भी वहाँ आकर रुका था। प्रिया के दो बच्चे पीयूषी और पार्थ भी अशोक के दोस्त बन गए थे। दोनों बच्चे सुंदर, होशियार, और संस्कारी थे।
'प्रिया, इतने सुंदर बच्चे, सिर्फ दो ही क्यों? तुम्हें तो सौ बच्चे बनाने चाहिए। मालूम है तुम्हें, कि हमारे देश को ऐसे बच्चों की कितनी ज़रूरत है?'
'सर, मैं तो दो में ही थक गई।'
'ऐसा नहीं चलेगा। कामकाज चालू है ना? दूकान बंद तो नहीं कर दी है ना?'
सब मज़ा ले रहे थे। प्रिया स्मित बरसाती रही, कुछ जवाब देना उचित नहीं समझा।

'अशोक जी, आप की नींद कैसी रही?', परितोष ने पूछा।
'नींद तो अच्छी रही, परितोष, मगर सुबह से मेरा घुटना दर्द कर रहा है।'
'आशा, तुम और केतकी घूमने चली जाओ। मुझे मेरे घुटने का ख़याल रखना होगा। बार बार पर्वत चढ़ना और उतरना ठीक नहीं रहेगा। मैं यहाँ पर्वत पर रहूँगा और सृष्टि निहारूँगा।'
आशा और केतकी को अच्छा तो नहीं लगा, मगर कुछ और बातचीत के बाद दोनों ने समझदारी दिखाई और अशोक को पर्वत पर रहने की इजाज़त दे दी।
'परितोष जी, हमारे अशोक का ठीक से ख़याल रखना।', आशा ने परितोष को सूचना दी।
केतकी ने अपना हाथ लंबा कर के कहा, 'मेरा भी हाथ दुखता है।'

परितोष मैदान में आ गया। परितोष के पास वनस्पतियों का, जड़ीबूटियों का, और वैदिक शास्त्र का बड़ा ज्ञान था 'देखूँ तो!' कहकर परितोष ने केतकी का हाथ थाम लिया। हाथ को उलटा सीधा करने लगा, ऊपर से नीचे तक दबाने लगा, कभी दो उँगलियाँ इस्तेमाल कीं, कभी तीन से भाँपने लगा।

'परितोष, मुझे तुमसे इर्ष्या हो रही है। देखो तो, तुम्हें सुंदर सुंदर लड़कियों के हाथ पकड़ने और दबाने को मिल रहा है! अगर मैंने ऐसा किया होता तो मुझे तो थप्पड़ मिल जाती! ' चारों ओर हँसी फ़ैल गई।

दोनों लड़कियाँ घूमने चली गईं। अशोक कमरे के बाहर के बरामदे में लंबे समय तक समय बैठा रहा, चाय पे चाय पीता रहा। सारे वस्त्र और जूते पहनकर, सर पे गरम लाल टोपी ओढ़कर बरामदे की लंबाई में चलता रहा और ठंड को भगाता रहा। आस पास के सब पर्वतों का अंदाज़ आ गया। कौन सा कितना ऊँचा है, किस पर्वत के पीछे से सूर्य का उदय होता है, सूर्य कहाँ ढलता है, कहाँ बर्फ गिर रही है, और सूर्य की किरणें कहाँ कितने बजे आएँगी? परितोष और उसके परिवार की हलन-चलन का अंदाज़ आ गया। एक परिवार, पति, पत्नी और दो बच्चे व्यवसाय में मदद करने के लिये पर्वत पर ही रहते हैं और कोई पाँच लोग आस पास कहीं रहते हैं और पर्वत चढ़कर रोज़ ९ से ५ बजे तक काम करने आते हैं। गौशाला का काम, बकरीशाला का काम, खेत का काम, टूटा फूटा मरम्मत करने का काम, पर्यटकों को मदद करना और सामान ऊपर नीचे ले जाने का काम।

परितोष खुद सारा दिन व्यस्त रहता है। कभी फोन पर, कभी कंप्यूटर पर, या कभी मेहमानों को गाइड बनकर टूर पर ले जाता है। आते जाते अशोक को वरंडे में देखकर परितोष रुकता और अशोक से ढेरों बातें करता।
'परितोष, आज सुबह से मेरा दाहिना कंधा अकड़ गया है, हाथ ऊपर नीचे करना मुश्किल हो गया है, और काफी दर्द दे रहा है।'
'ठंड की वजह से ऐसा हो जाता है। कोई फिकर की बात नहीं, मेरे पास एक खास तेल है, लगा दूँगा, सब ठीक हो जाएगा।'

अभी अभी परितोष ने अशोक के कमरे में इलेक्ट्रिक हीटर लगाया था, और दिन के २०० रुपये एक्स्ट्रा चार्ज बोल दिया था। कमरे में ऑर्चर्ड कॉटेज का पैम्फलेट पड़ा था। अलग अलग प्रवृत्तियों का जिक्र था, कुछ मुफ्त में थीं, बाकी सब के एक्स्ट्रा चार्ज थे। मालिश के ५०० रुपये का एक्स्ट्रा चार्ज था।
'परितोष, यह मालिश का ५०० रुपये का भाव तो मुझे महँगा पड़ जाएगा।'
'हमारे हिमाचल में बड़े भाई को तेल मालिश करने का कोई पैसा नहीं लगता', परितोष ने अपनी उदारता दिखाई। अशोक बड़ा भाई बनकर खुश हो गया, और तेल मालिश के पहले ही उसके कंधे का दर्द हल्का होने लगा।

चार दिन गुजर गए। आशा और केतकी रोज़ कहीं न कहीं घूमने गईं। चाँबा के बाजार में घूम आईं, दोस्तों को देने के लिये तोहफे खरीद लाईं, ऐतिहासिक स्थलों में भ्रमण कर आईं और मंदिरों में दर्शन कर आईं। अशोक को पर्वत पर रहने की आदत सी होने लगी और लगने लगा कि वह भी साधू महात्मा की तरह तपस्या करने में माहिर हो जाएगा।

विदा लेने का समय आया। सब गले लगे। फोटो खींचे गए। अशोक ने सब काम करनेवालों को सौ सौ रुपये भेंट में दिए। परितोष को याद दिला दिया कि वह घोड़ा खरीद के रखे, अगली बार अशोक परितोष के घर घोड़े पर सवार होकर आयेगा। अशोक ने सब से पहले पर्वत उतरना शुरू कर दिया। फिर से अली अशोक का शेरपा बना था। कहीं रुके बिना तेज़ी से पर्वत उतर गया और सड़क पर खड़ी गाड़ी के क़रीब आ पहुँचा। आशा और केतकी दस मिनट के बाद आईं।
सीधी सपाट सड़क पर आकर अशोक को
मुक्ति का एहसास हुआ।
घूटना टिक गया
पर्वतारोहण कर के आया
एवरेस्ट पर झंडा गाड़ के आया!!

१ जून २०१६

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