ट्रेन के प्लेटफार्म पर रुकते ही
वे चारों एक दूसरे की कलाइयाँ पकड़े, अपनी अपनी कंडियाँ, थैले
और बक्सियाँ सँभालतीं, डिब्बे की तरफ दौड़ चलीं।
चढ़ती, उतरती भीड़ के बीच भी वे एक दूसरी का हाथ कस कर पकड़े,
सँभल कर चढ़ने की ताकीद करती जा रही थीं। ‘पहले तू...' ‘नहीं तू
चढ़ पहले' की जल्दबाजी में, सबने मिल कर पहले ‘सबसे बड़ी' को
चढ़ाया जबकि वह, अपने से पहले तीनों छोटियों को चढ़ाना चाह रही
थी। यहाँ तक कि डिब्बे में चढ़ जाने के बाद भी वह लगातार बाकी
तीनों के लिए ‘आ, आ जा छोटी...' मँझली चढ़ी?... ‘जल्दी कर
सँझली... जैसे चिंताकुल जुमले बोले जा रही थी।
तभी मँझली को याद आया - ‘अरे, गाड़ी अभी रुकेगी, मैं जरा दाल
चिक्की और समोसे लेती आऊँ?
-‘चाँटा खायेगी... चुप बैठ, गाड़ी से नहीं उतरना है अब' - ‘बड़ी'
ने अपनी दाहिनी दुबली हथेली से एक सुकुमार से चाँटे की शक्ल
बना कर फिर उसे ‘खिलाने' की मुद्रा भी दिखाई... इस पर मँझली,
सँझली और छोटी तीनों ही-ही-ही कर हँसने लगीं-
-‘बड़ी्! तू अब बड़ी ही नहीं, बूढ़ी भी हो ली... गाड़ी बिगर हरी
झंडी दिखाये चलती है क्या?... यह तू पाँचवीं में थी तब से अपनी
समाज-विज्ञान की किताब में रटती रहती थी, इतना कि सुनते-सुनते
तुझसे चार साल छोटी मुझे भी याद हो गया‘ - मँझली थी।
-‘अच्छा! याद है तुझे? तभी न सतना स्टेशन पर नल से पानी भरते
हुए गाड़ी से छूटते-छूटते बची थी...
-अरे वो तो इसलिए क्योंकि गार्ड बाबू हरी झंडी से हवा करने लगे
और इंजिन ड्राइवर ने समझा, हरी झंडी दिखा रहे हैं... दोनों के
कनफ्यूजन में मैं बेचारी मारी गई।'
-‘वरना तो बड़ी! सँझली ने चिढ़ाया - गार्ड बाबू जैसे ही मँझली को
किसी स्टेशन पर पानी भरते या केले खरीदते देखते हैं न, फट् से
हरी झंडी नीचे कर लेते हैं।'
-‘तूने पूरी बात नहीं बताई' छोटी ने टहोका दिया -‘अपनी मँझली,
जब प्लेटफार्म पर केले खरीद रही होती है न तो गार्ड बाबू आकर
कहते हैं, बहन जी अमरूद भी ले लो, इलाहाबाद के मशहूर हैं, मैं
गाड़ी रोके रखूँगा जब तक आप अमरूद तुलवाओगी -
ही-ही-ही...ही...
-‘चुपो शैतानों...' मँझली भड़की।
-ये लो गाड़ी खिसक के फिर रुक गई... कोई सामान चढ़वाने से रह गया
होगा -
-‘अरे जामुन...! वो क्या रहा डिब्बे के दरवाजे पर-- बड़ी! मैं
बस चार पूड़े जामुन के लिये आती हूँ, वो,
-‘जामुन की बच्ची!ऽऽ' बड़ी ने सच में ही सँझली की पीठ पर एक
छोटा सा धौल जमाया - ‘हजार बार मना किया, गाड़ी से नीचे नहीं
उतरना, सुनती नहीं?
-वाह! तुमने मँझली को तो दालचिक्की लाने जाने दिया था। उसे
चाँटा भी नहीं लगाया था... तुम उसे ज्यादा मानती हो बड़ी।
-‘ज्यादा मानती हूँ? सबसे पहले तो उसे ही चाँटा दिखाया था-
-‘लेकिन लगाया तो मुझे ही न!' सँझली रूठी।
-ही-ही...ही-ही...
सहसा तीनों पीछे घूमीं तो मँझली आराम से पूरी बर्थ पर पैर पसार
कर, टिकट, कुली, समोसों से बचे पैसों का हिसाब लगा रही थी।
-लो इस मँझली को देखो, हमेशा की बजारबाज... स्टेशन की खरीदारी
के बाद इतने चिल्लर भी बचा लाई...
-स्टेशन पर ‘कटपीस' जो नहीं मिलते... खी-खी-खी...
-चोप्प! उसी कटपीस से तुम सबों के बच्चों के झबले सिल सिल कर
पहनाये हैं। तेरी तरह चाट बताशे नहीं उड़ाती... तू तो घर से
किसी भी काम से निकली नहीं कि पहले बताशों की दुकान पर...
चटोरी....
-सो तो मैं हूँ ही। ये देखो, चलने से पहले उसी चाट वाले से आलू
बड़े और खस्ता कचौरियाँ बँधवा ली हैं...
-‘अरे सच्च! तो ला, निकाल।'
-मैं तो आलू बड़े और खस्ता कचौड़ी भी घर में ही बना लेती हूँ।
कितनी किफायती पड़ती है...
-और बचे हुए पैसों से कट पीऽऽस...
ही-ही-ही-ही-ही...
तभी ट्रेन ने एक तीखी सीटी मारी और तीन की तीनों एक दूसरी पर
खड़ी, बैठी भहरा पड़ीं... बड़ी ने मँझली को, मँझली ने सँझली को,
सँझली ने छोटी को झिड़कना शुरू कर दिया - उई माँऽऽ देखती
नहीं?... हाथ पैर काबू में नहीं रहते... छोटी कहीं की... सँझली
कहीं की... मँझली कहीं की... और बड़ी?... ‘कहीं की नहीं'...
कहने के साथ चारों इतनी जोर से हँसीं कि पिछली बर्थ के
मुसाफिरों ने झुँझलाकर झाँका-
-स्कूली लड़कियाँ हैं क्या आपलोग इतना शोर मचा रही हैं?
बहनें सकपकाईं। वो तो अच्छा था, छोटी लाइन की उस खड़खड़िया ट्रेन
में, दोपहर की चण्डाली बेला में बहुत थोड़े यात्री थे। सो
मनमानी की पूरी छूट। डिब्बे के शुरू में ही, आमने सामने की
दोनों बर्थ खाली। चारों, दो-दो के हिसाब से आमने सामने बैठ
गईं।
-‘उफ, गरमी हो गयी... ठहरो, शीशा खोलती हूँ। छोटी चकहती हुई
उठी।'
-लेकिन सँभाल के बेटा, शीशा हाथ पे न गिरे झटके से-- बड़ी थी।
-‘हाँ-हाथ पैर ठिकाने तो रहते नहीं इसके' मँझली थी।
-उधर के भी दोनों खोल दे... चारों खिड़कियाँ, चारों शीशे... सब
के सब खोल दे- सँझली भी मूड में आ गयी।
-‘हुक्म चलाये जा रही है जरा हाथ बढ़ा के अपनी तरफ का तू खुद
नहीं खोल सकती सँझली?' छोटी चिढ़ी
-क्यों खोलूँ? गरमी से तू बेहाल हुई जा रही है या मैं? मैं तो
तेरी खातिर कह रही हूँ, जिसमें तुझे ज्यादा ठंडक पहुँचे।
-तो ठीक है, मैं सिर्फ अपनी तरफ वाला खोलती हूँ-
देख लो बड़ी... कैसा ‘मेरा तेरा' कर रही है - गंदी बात है न।
तुमने बचपन से इस छोटी को ज्यादा ही सिर चढ़ा रखा है...
मँझली को, छोटी और सँझली को लड़ाने में हमेशा मजा आता है-
-अरे लेकिन ठीक तो कह रही है - अपनी तरफ वाला तू ही खोल ले न,
तुझे भी तो आरामतलबी सूझी है...
सँझली बिफरी-
-अच्छा तो अब तू भी छोटी की तरफदारी में आ गई? अपनी खिड़की तो
रोब मार कर खुलवा ली, मेरी वाली के लिये -‘तू ही खोल ले' क्यों
खोल लूँ? ‘इस छोटिया से तो कम से कम मैं बड़ी ही हूँ...
-बड़ी ने लाड़ से झिड़का- ‘कितना झगड़ती हो तुम तीनों? बच्चों से
बढ़कर... कब बड़ी होओगी-ऐं?
-वाह! हम क्यों ‘बड़ी' होने लगें... ‘बड़ी' का पट्टा तो तुम्हीं
लिखवा के लाई हो, तुम्हीं की तुम्हीं रहो।
-‘और क्या?' मँझली आराम से पैर हिलाते हुए बोली -‘अब मुफ्त में
बड़ी थोड़ी बनी हो निपटाओ झगड़े - होओ हलकान, लो मजा, जन्मजात
‘बड़ी' हो कर पैदा होने का...
-सच में बड़ी! मैंने अपनी याद में, शुरू से तुम्हें ऐसी ही लंबी
चोटी, कानों में बुंदे, माथे पे बहुत छोटी बिंदी और हाथों में
स्कूल की किताबों के साथ ही देखा है... जानती हो, जब
माँ-बाबूजी सत्यनारायण कथा सुनते थे तो पंडित जी के मुँह से
‘शंख, चक्र, गदा, पद्म वनमाला सुशोभितम्' सुनती थी तो जाने
क्यों मुझे हमेशा तुम्हारा ध्यान आ जाया करता था बहुत छोटी थी
न...' कहती हुई छोटी बड़ी से दुबक ली -
मँझली चिढ़ी-
-सुनो इस अक्ल की दुश्मन की बात।... ठीक है, बड़ी बहुत सीधी है,
बहुत अच्छी है, माँ-बाबूजी की बहुत लाडली थी... पर इतने से उसे
एकदम चण्डोले चढ़ा कर सत्य नारायण कथा के विष्णु भगवान बना
देना‘-
सँझली को मौका मिला -
-‘छोटी! ये तूने बुरा किया, बड़ी को भगवानों की कोटि में...
डाला तो अपनी मँझली को भी तो कुछ बनाना था- जैसे? जैसे कि
महामृत्युंजय, रूद्र काशिकेय... वो क्या गाना है? हाँ, जय-जय
शिव शंकर - काँटा लगे न कंकर... सँझली ने मटक कर गाया तो सारी
बहने हँसते हँसते लोट पोट हो ली...
तंग आए मुसाफिर फिर झाँके तो झट सँभल कर बैठ गयीं।
-चोप्प! मँझली चिल्लाई- देख लो बड़ी, अपनी छोटियों की
कारस्तानी। अब मैं कुछ बोली तो मुझे दोष मत देना-
-छोटी! सँझली! छिः छिः ऐसे चिढ़ाते हैं? तुम लोगों से बड़ी है न
मँझली?
-हमीं को कहोगी, मँझली को नहीं देखती हर बात में चिढ़ कर हमें
डपट देती है।
-जाओ, मैं तुम तीनों से बात नहीं करूँगी... ऐसे ही लड़ती होओगी
घर में तो तुम लोगों के बच्चे क्या सोचते होंगे ऐं?
-बच्चे? बच्चे कुछ नहीं सोचते हमारे बारे में... उन्हें हममें
बिल्कुल इन्टरेस्ट नहीं... और उनके पिताओं को टाइम नहीं,
ज्यादा से ज्यादा ‘इनफ मम्मी... बोल कर हमें चुप कर देते हैं
और हम खुश हो जाते हैं कि हमारे बच्चे हमसे बोले... इस छोटी से
पूछो, इसके वाले तो और ज्यादा अंग्रेज हैं।
-‘मेरे वाले? कानों में इयरफोन और आँखों के सामने तमाम सारे
फन... गेम्स, पजल्स... वे सिर्फ मोबाइल में बोलते हैं और उनके
पिता फोन पर निर्देश देते हैं। वे घर से ऑफिस जाते हैं ऑफिस से
किसी न किसी एयरपोर्ट... और उसी तरह लौटते भी हैं... तीनों
बहनें आँखें फाड़ कर चमत्कृत भाव से सुन रही थीं-
-बाप रे इतनी बिजी? इसी से मनोज बाबू तुम लोगों के साथ कहीं आ
जा नहीं पाते... न!
-गए थे एक बार सब साथ, मेरी जिद पर। बच्चों को पिता ने समझाया
था-- हाँ-हाँ ट्रेन जर्नी इस वेरी एन्जॉयवेबुल... ईट ऐन्ड
स्लीप... स्लीप ऐन्ड ईट - (खाओ और सोओ, सोओ और खाओ... जो प्लेन
में नहीं हो पाता) मम्मी ढेर सारी डिशेज बना कर ले चलेंगी
गुडीज और फ्रूटस... पूरी, कचौरी...
-‘अच्छा? फिर,?' तीनों बहनों का कुतूहल चरम पर-
-मैंने बास्केट भर-भर कर तमाम सारी चीजें पैक कीं... तरह तरह
के खाने नाश्ते का ओवर स्टॉक... सारे रास्ते पूछती रही नीता!
बब्लू! केतन! संतरे छीलूँ? सेब काटूँ? मठरियाँ निकालूँ?...
पूरी में आलू के रोल कर के दूँ?.. वे इयरफोन, मोबाइल और लैपटॉप
के बीच पूरी का रोल खत्म होते ही वापस हाथ फैला देते... मैं
हाथों में बनाया हुआ रोल पकड़ा कर दूसरा बनाने लगती। तबतक दूसरी
हथेली फैल चुकी होती...थमाते-थमाते सारी पूड़ियाँ खत्म हो
गईं... मेरे लिये कुछ बचा ही नहीं...
-अरे... अरे.. ऐसा कैसे... फिर? ‘बड़ी' विकल हो आई।
-फिर क्या? मैं रोने लग गई...
-तब तो बहुत पछताए होंगे वे सब न?
-पछताते तो तब न जब उन्हें देखने, जानने की फुर्सत होती-
-अरे, तू रोई ओर वे जान नहीं पाये?...
-बड़ीऽऽ! जान जाते तो भी यही कहते न, कि सॉरी!... बट इट्स योर
फॉल्ट... तुम्हें और ज्यादा पूरियाँ लानी थीं... मान लो हममें
से किसी ने दो चार और पूरियाँ, खानी चाही होतीं तो? एक मदर को
अपने बच्चों और एक वाइफ को अपने हजबैन्ड की खूराक तो पता होनी
चाहिये? नो?... और फिर पूरियाँ ‘कम' थीं, मम्मी को खाने को
नहीं मिलीं... तो मम्मी रो रही है, इससे बड़ी तमाशे वाली बात
कुछ और हो सकती है क्या? खास कर पति और बच्चों के लिये?
बड़ी को जाने क्या हुआ, एकदम खींच कर छोटी को चिपका लिया- अबसे
तो खूब ज्यादा पूरियाँ लेकर चला कर बेटा - छिः सब को खिला कर,
तू भूखी रह गई?
-‘नहीं बड़ी, भूखी नहीं रही। भूखे रहें मेरे दुश्मन... मैंने
बचे हुए आलुओं की ब्रेड सैंडविच बना ली... माँ कहा करतीं थीं
न, भूख का गुस्सा, भूख पर कभी नहीं उतारना, अन्न देवता कुपित
होते हैं, बात बनने की जगह रार और बढ़ती है... - औरत को हर
छोटी, बड़ी मुसीबत से निपटना आना चाहिये... बस मैंने चटपटी चटनी
और आलू लगा कर सैंडविच बना ली... अपने को समझदार मान कर खुश भी
हो ली।...'
-शाऽब्बाऽऽश! मँझली, सँझली खुश होकर चीखीं... लेकिन बड़ी उसे
भींच कर दुलारती रही-
-लेकिन मैं जानती हूँ न, तुझे पूरियाँ कित्ती पसंद हैं...
इत्ती सी थी तब से मैं तुझे तो मसल-मसल कर शक्कर से खिलाती थी
-‘लो हो गया भरत-मिलाप...' मँझली चिढ़ी
-मँझली! तुझे चिढ़ क्यों आती है... तू भी तो हम दोनों से बड़ी
है... कभी दुलारती क्यों नहीं हमें?
-क्या दुलारूँ? तुमसे बड़ी हूँ तो क्या, बड़ी से तो छोटी हूँ...
मुझे छोटा होना ही अच्छा लगता है...
-‘मुझे भी' कहती हुई बड़ी ने ‘सबसे छोटी बहन' को छोड़ ‘अपने से
छोटी बहन' के बाल सहलाये -‘तू अपने को बड़ा समझने लगेगी तो मेरा
क्या होगा ऐं?
-इति श्री रेवाखण्डे भगिनी पुराणः भजनोपध्याय... अथ भोजनो
पध्यायः... सँझली खिलखिलायी - ‘छोटी के ‘पूरी-पुराण' पर सचमुच
भूख लग आयी...
-अरे तो तू बोली क्यों नहीं... आते समय कौशल्या बीबी जी ने
शादी की बची कचौरियाँ बाँध दी हैं... ठहरो निकालती हूँ।
-वाह! अचार भी है... कहती हुई तीनों बच्चों की तरह टूट पड़ीं।
फिर ‘पहले मैं', ‘पहले मैं' कहते हुए एक-एक टुकड़ा बड़ी बहन को
खिलाने लगीं।...
-‘पता है? एक बार, तुम दोनों छोटी थीं न तो माँ को निमोनिया हो
गया था, सबके चेहरे बदहवास - तो मैं तुम दोनों को लादे लादे
फिरती थी और रोटियाँ दूध में मसल मसल कर खिलाती थी, देखो
ऐसे...
-खिलाओ, खिलाओ... चम्मच से दूध भी पिलाओ... बड़ी आयी, बड़ी कहीं
की... कहते हुए मँझली ने कटोरदान अपनी तरफ खींच कर जैसे ही
अचार की एक बड़ी फाँक निकाली तीनों में छीना झपटी मच गई और
कटोरदान का ढक्कन झनझना कर फर्श पर गिर पड़ा... झन्न... न-न-न -
-
पीछे की सीटों वाले मुसाफिर दनदनाते हुए आये - आप लोग जरा देर
भी कायदे से चुप नहीं बैठ सकतीं? ट्रेन का डिब्बा है या आपका
घर? जब से चढ़ी हैं, हम लोगों का चैन से बैठना मुहाल... बात
क्या है? क्या गिरा अभी?...
-कुछ नहीं, कुछ नहीं भाई साहब... यह यह ढक्कन गिर गया... हम
लोग अभी उठाये लेते हैं...
-और अब दुबारा नहीं गिराएँगे...
-‘हम चारों बहनें हैं भाई साहब... हम बहुत सालों बाद मिले
हैं... इस ट्रेन भर के लिए-
-‘ये तीनों न, मेरी छोटी बहने हैं' - बड़ी ने गर्व से कहा जैसे
बड़ा अनूठी रहस्य खोल रही हो...
लेकिन पिछली बर्थ वाले का जाना था कि तीनों फिर खिलखिलाने
लगीं... वाह! बड़ी वाह!... सिचुएशन सँभालना कोई तुमसे सीखे....
सँझली बेफिक्री से हँसी।
-अरे अचानक मँझली को याद आया मैं तो भूल ही गई थी, मैं एक अनार
भी लाई हूँ...
-अऽनाऽऽऽर?... ट्रेन में अनार कौन खायेगा?... इस बार बड़ी और
सँझली के साथ छोटी का मुँह भी हैरानी से खुला रह गया।
-‘क्यों? हम चारों नहीं खा सकते?' मँझली पहली बार उदास हो आयी।
-‘हाँ-हाँ- बिलकुल... सब मिलकर खायेंगे! फोड़ तो मँझली।' बड़ी
थी।
छोटी अभी भी मुँह बिचकाये बोली -
-लेकिन बड़ी! अनार के रस से तो कपड़ों पर दाग लग जाते हैं और
यहाँ ट्रेन में चारों तरफ लिसलिस अलग-
मँझली फिर चिढ़ी छोटी पर-
-लिसलिस करेगा तो बाथरूम में पानी नहीं है धोने के लिए? इसके
ऊपर नफासती हज़बैन्ड और नाक-भौं सिकोड़ू बच्चों का भूत सवार रहता
है सारे समय-
-मँझली ठीक कहती है छोटी-
तब तक --
‘लो फूट गया अनार-'...
चारो एक साथ बोलीं.. और मँझली शान से दोनों पैरों के ऊपर अखबार
बिछा कर अनार के दाने निकालने लगी-
-ठहरो मैं दाने निकाल निकाल कर सबको देती हूँ... सँझली दाने
चूसती जोर से हँसी- ‘सच में, सोचो तो सरी दुनिया के इतिहास
में, और चाहे जो कुछ खाया गया हो ट्रेन में, पूरी, पराँठे,
केले, संतरे लेकिन अनाऽऽर...
-इसी से सिर्फ हम चारों खायेंगे, पहली बार ला मँझली-
अचानक बड़ी मुग्ध भाव से बोली - कितने सुंदर लग रहे हैं न एक
साथ जुड़े अनार के दाने-
-जैसे हम, ना बड़ी?
-लेकिन मँझली उन्हें छितराये जा रही है।
-हम भी तो अलग-अलग स्टेशनों पर छितरने वाले हैं...
-ए-चुप- बेबात की बात मत कर। ले अनार दाने...? न -
-सँझली को अ से अनार मैंने ही पढ़ाया था - याद है तुझे?
-याद है बड़ी, अ से अम्मा, अ से अनार - आलू, आम न खाओ साथ-
-खी-खी- बड़ी बेकार तुकबंदी है भाई - छोटी बोली।
-हाँ, मुझे भी ये वाली लाइन बिलकुल पसंद नहीं थी लेकिन किताब
में लिखी थी तो याद करनी थी - सँझली ने कहा।
अचानक बड़ी बोली - तुझे कैसे अच्छी लगेगी- तु खुद जो इतनी अच्छी
कविताएँ लिखा करती थी... अभी भी लिखती है सँझली? पहले तो जहाँ
देखो वहाँ, गुपचुप लिखती रहती... दीवालों पर, खिड़कियों के
पल्लों पर, पुरानी नोटबुक और डायरियों पर हर कहीं गुंचाती
रहती। अभी भी लिखती है न!
नहीं। अब नहीं लिखती।
अच्छा किया, नहीं तो अब तक ये पूरी ट्रेन तेरी कविताओं का
संग्रह हो गई होती।
बड़ी ने मँझली को आँखें तरेरीं और वापस सँझली से पूछा क्यों
बेटे क्यों नहीं लिखती अब?
-एक बार कविता वाला कागज घर वालों के हाथ पड़ गया था। सब के सब
खूब हँसे। ... बस फाड़ कर फेंक दी... मैंने...
-अरे... लेकिन हँसे क्यों? उनके हँसने से अपनी कविता फाड़कर
फेंक दी तूने?
-‘क्या करती... एक बोला, मम्मी की इस कविता में ‘राइम' तुक तो
कहीं है ही नहीं... तो उसके पिता हँसे - तुम्हारा मतलब है,
‘बेतुकी' कविता लिखी है तुम्हारी मम्मी ने?... तीसरा बोला -
मेरी समझ से तो कविताओं से ज्यादा बेतुकी चीज़ दुनिया में कोई
दूसरी नहीं...
-वे कहते थे तो कहने देती लेकिन तुझे अपनी कविता फाड़ कर फेंकनी
नहीं चाहिये थी
-फिर क्या करती?... सँझली रुआँसी हो आयी-
-सहेज कर रखती और क्या! मुझे याद है, एक बार तेरी लिखी कविता
का एक फटा सा कागज पड़ा था। माँ ने बड़े जतन से सहेज कर उसे पूजा
वाले रामायण में रख लिया था।
-हाँ, और माँ ने जो आसमान में एक खिड़की हम सबों को तकते रहने
के लिये खोल रखी है, तो उन्हें तेरी कविता की चिंदियाँ उड़ती
देख कितना कष्ट पहुँचा होगा...
-हो सकता है उन्होंने सँझली की कविता की उड़ती चिंदियाँ सँभाल
कर रख ली हों।
-सच?... ठीक है, अब मैं ढेर सारी कविताएँ लिखूँगी और माँ के
पास आसमानी डाक से छुड़वा दिया करूँगी... सँझली जैसे स्वप्न में
हँसी...
-माँ की यही वाली याद हम चारों को सबसे ज्यादा आती है न! घर की
दूसरी मंजिल की खिड़की से हमारे लौटने का रास्ता देखती हुई
माँ।...
-बाप रे... बाजार, हाट, मेले-ठेले से लेकर स्कूल के सालाने
जलसे तक से, जरा देर हुई नहीं कि माँ चिंता से बेहाल, खिड़की पर
हाजिर... कि कहीं उनकी बेटियों को जरा भी ठोकर न लगी हो, खरोंच
न आई हो, सिर न दुखा हो, छींक न आई हो,... मँझली थी।
-और अब? कैसा लगता है, जब, चाहे जितनी देर से घर लौटो, कोई
घबराने, परेशान होने वाला नहीं... सिवा इसके कि... ‘आ गई?' चाय
नाश्ता तो गया मेरा... आधे पौने घंटे से पहले तुम खाना क्या दे
पाओगी... तो जरा बर्फ तोड़ कर बियर की ग्लास ही पकड़ा दो... और
हाँ, गुप्ता जी को फोन कर के अभी ही बता दो कि मैं कल बाहर जा
रहा हूँ।... इसी से याद आया, सुबह जल्दी ही निकलना है तो मेरी
अटैची भी इसी समय लगा देना। तुम्हें टालने और भूलने की पुरानी
बीमारी है - सँझली अपनी रौ में उन्मादिनी सी उगलती जा रही थी।
-‘एक बार रुआँसी होकर कहा था... ‘मैं भी भीड़ में धक्के खाती
टयूशन पढ़ा कर लौटी हूँ... इतनी देर से आई... तो क्या तुममें से
कोई मेरे लिये घबराया भी था? किसी ने सोचा कि कहीं मैं किसी
रिक्शे, मोटर के नीचे... आजकल तो भरी भीड़ में किडनैप कर लिये
जाते हैं लोग-
‘तो उन सब का सेंस ऑफ ह्यूमर' उछल कर ऊपर आ गया - कम्मॉन... अब
इस खुशफहमी में तो रहो मत कि कोई तुम्हें इस उम्र में
किडनैप... हा-हा- और गाड़ी मोटर के नीचे आईं तो नुकसान उसी का
होना... तुम्हारे पर्स में रखी डायरी में घर का पता दर्ज है
ही... असल में तो तुम हमें इमोशनली ब्लैकमेल करने की तरकीबें
सोचती रहती हो और कुछ नहीं...'
-काश! काश! कोई भला मानुष मुझे सचमुच किडनैप कर ले जाये तो तुम
लोगों को आटे दाल का भाव - -
-‘हो-हो-हो-हो' जिस शाहखर्ची से तुम घर चलाती हो, इस फेर में
मत रहना कि फिरौती भर की रकम मेरे पास निकलेगी। हाँ तुम दूध,
सब्जी, महरी, रिक्शे के किराये के बहाने जब तब जो पैसे मुझसे
झटकती रहती हो, उसका अतापता बता दो तो शायद वक्त, जरूरत-
-कोई पूछे कि तुमने तो पिछले चौबीस सालों से सिर्फ खर्च की
कटौतियों के हवाई फरमान जारी किये हैं कि फलाँ के घर की तरह
सिर्फ ढाई सौ ग्राम कद्दू नहीं लिया जा सकता? सिर्फ एक थैली
दूध में नहीं काम चलाया जा सकता? अब कौन दूध पीता बच्चा है घर
में? फलाँ के घर में महरी सिर्फ बर्तन धोती है, हमारे यहाँ
झाड़ू-पोंछे-कपड़े तक की शाहखर्ची... जबकि उन्हें अच्छी तरह
मालूम है कि फलाँ की बीवी ढाई-ढाई हजार की टयूशन करने नहीं
जाती... बड़े होते बच्चों के खर्च की बात करो तो, ‘तुम्हीं ने
आदतें बिगाड़ी हैं... क्या जरूरत है पॉकेट मनी देने की? कह दो
कि उनके दोस्तों के बापों की तरह मेरी ऊपरी आमदनी की नौकरी
नहीं है बस-'...
बुत सुनती बहने सँझली को फुसलाने का उपाय सोच रही थीं। मिल भी
गया। गाड़ी रुकी।
-अरे-अरे मुगलसराय... यहाँ गाड़ी देर तक रुकती है जंक्शन है न!
अरे-देखो कैसा ताजी भुनी सोंधी-सोंधी मूँगफलियाँ... आजा सँझली,
चुटुर-चुट्ट चुटुर-चुट्ट, छील छील कर नमक के साथ खायेंगे...
बड़ी, मँझली शोर मत मचाना। हम हरी लाल झंडी पर नजर रखेंगे...
डिब्बे में सिर्फ बड़ी और मँझली रह गई तो मँझली चुपचाप उसकी गोद
में दुबक ली। बड़ी ने माथे की लटें उठा कर कान के ऊपर सँवार
दीं। जाने कब तक सहलाती रही।
अचानक उँगलियाँ चौंक कर सिहर गईं... कानों के ऊपर बालों के
नीचे गहरी चोट का अहसास। बड़ी की हथेलियाँ काँपीं... ये चोट
कैसे! कब! मँझली तूने बताया नहीं...।
-कुछ नहीं, रसोई में नीचे झुककर आलू-प्याज की कंडिया निकाल रही
थी, आलमारी का कोना -
-‘हर समय अफरातफरी लगाये रहती है...तू ये तो गहरा घाव है बेटा-
मँझली कुछ बोली नहीं। सिर्फ बड़ी की हथेलियाँ चोट वाली जगह को
दुबारा बालों से ढांप दिया।
बड़ी स्तब्ध बैठी रही... फिर आहिस्ता बोली-
-टाँके लगवाने पड़े होंगे न!
मँझली ने निशब्द ‘हाँ' में सिर हिलाया और बिखरे बालों की लट से
दुबारा घाव अच्छी तरह ढाँपने लगी।...
बड़ी ने ढाँपने दिया, जैसे कह रही हो, हाँ ढाँप ले। उघाड़ने से
फायदा!.. बाहर से छोटी से सँझली चीखी- अभी गाड़ी छूटने में देर
है, हम गरम भजिये लेकर आते हैं... तुम दोनों घबड़ाना मत-
-हाँ-हाँ... बड़ी ने धीमे से मँझली का चेहरा अपनी ओर घुमाया -
फिर माथा सहलाते हुए पूछा नहीं, जैसे कहा हो -
-‘रौनक? न?'
जैसे चट्टानें फटी हों और आँखों से उबलते पानी का सोता फूट पड़ा
हो... मँझली भलभला कर रो दी...
-‘चुप-चुपो बेटा!' बड़ी ने आँचल से पहले उसकी आँखें पोंछीं फिर
अपनी-
-‘सर्वेश बाबू से कुछ कहासुनी...'
मँझली ने बर्थ के पीछे सिर टिकाये-टिकाये ‘ना' की -
-चाहिये क्या था?
-मो-ट-र बा-इ-क... उन्माद ग्रस्त सी मँझली ठहर-ठहर कर बोल
गई... ‘दोस्तों की मोटर साइकलों के दो-दो एक्सीडेंट पहले ही
करा चुका है। पुरानी अब काम लायक नहीं... इस बार मैं ही
बरदाश्त नहीं कर पाई, चिल्ला पड़ी... उसे देख देख कर अब छोटा
भी... बच्चों के पिता को तो कुछ कहने, समझाने का कोई मतलब
नहीं...
मँझली का सिर पीछे टिका था। चेहरा तर। बड़ी ने आगे कुछ न पूछा,
न उसे कहने ही दिया। सिर्फ कहा - जा आँखें धो आ, दोनों आती
होंगी... देखेंगी तो तूफान मचा देंगी...
सचमुच दोनों हड़बड़ाती हुई चढ़ीं।
-अरे-अरे - चाय वाले भइया! इधर, इधर आना - बस चार कुल्हड़...
-लो, छलकाई न कपड़ों पर...
-छलकेगी नहीं? पकड़ो पकड़ो चीखे जा रही थी, मुझे गरम नहीं लग रहा
था क्या?
-‘तो मैं मैं पैसे नहीं निकाल रही थी क्या!' सँझली थी।
-और मँझली? कहाँ गई... उसे भी इसी समय बाथरूम जाना था?
-ले, तो तेरी वजह से मैं बाथरूम नहीं जाती क्या?
बाथरूम से मुँह धोई, तरोताजा मँझली निकल रही थी -
बड़ी ने राहत की साँस ली।
-अच्छा बड़ी! तुम्हारा भी हमारी तरह लड़ने को मन करता होगा न!
-नहीं, मेरे और बड़ी के लड़ने की गुंजाइश ही कहाँ छोड़ती हो, तुम
दोनों, जनम की लड़ाकनों...
मँझली के कहते ही दोनों छोटी बहनें उस पर टूट पड़ीं-
वाह जी- वाह! चली हैं ‘बड़ी' की बराबरी करने... देखो, कैसी दूध
की धुली बन रही है। हमें सब याद है, बचपन में हम दोनों, जो भी
चुराते, खाते, गिराते या तोड़ते, सबकी चुगली झटपट अम्मा से कर
आती थी।
-फिर? मैं तुम दोनों से बड़ी नहीं थी? तुम जैसी छोटियों और
चोट्टियों को सुधारना भी तो मेरा फर्ज था।
-मी लॉर्ड! सुधार का नाटक करने वाली यह मँझली अपनी खुराफातों
पर पर्दा डाल रही है। वरना तो कच्ची इमली, खट्टी अमियाँ,
अमचुर-चीनी, चुरा-चुरा कर खाती ये... और हाँ, दूध के ऊपर की
कलाई भी... खी-खी-खी...
-देख लो, मेरा केस इतनी चटपटी चीजों से भरा होता कि तुम दोनों
भी पास आकर...जबान चटखार चटखार कर माँगती...
-‘हाँ, दूध-मलाई तो मँझली को शुरू से भाती थी।-‘ बड़ी मगन होकर
बोली।
-वाह बड़ी वाह! मँझली की चोरी पर भी तुम्हें प्यार आ रहा है। हे
भगवान!
-मँझली इतनी गबदुल्ली सी थी (मलाई खा-खा कर) कि सभी को इस पर
प्यार आता था...
-देखो कैसी फूल कर कुप्पा हो रही है... और हम दोनों छोटियाँ?
-तुम दोनों तो सींक-सलाई सी थीं... एक दूसरी की चोटियाँ खींचती
रहती थीं और ‘छोड़ो मेरी चोटी'... कह कर चीखती, रोती भी रहती
थीं... लेकिन चोटी दोनों में से कोई नहीं छोड़ती थी...
-हाउस्वीट... ही-ही-ही...
-और मी लॉर्ड! इन दोनों चिन-मिनों को चुपाने और तंग आने पर
चाँटे लगाने की जिम्मेदारी माँ हमीं दोनों पर तो छोड़ती थीं...न
बड़ी?--
-‘ऑर्डर! ऑर्डर...' दोनों छोटियाँ चीखीं-
-निरी बेवकूफों? ‘ऑर्डर-ऑर्डर' जज करते हैं, अभियुक्त नहीं...
-तो मी लार्ड! अम्मा का आदेश मिलते ही यह मँझली आव देखती थी न
ताव, बस हमें चाँटे लगा दिया करती थी... आप तक बात पहुँचने ही
नहीं देती थी- जानती थी न कि बड़ी तो कभी चाँटे लगाएगी नहीं...
-‘बिलकुल सँझली!' शोषण, धोखाधड़ी और धाँधली के जितने आरोप इस
मँझली पर हैं न--
-अरे देश की आज जो हालत है उसकी आधी से ज्यादा जिम्मेदारी इस
मँझली पर ही-
-‘चोऽऽऽप्प!‘ मँझली झपटी।
तीनों की इस गुत्थमगुत्थ में पानी पीती बड़ी को इतनी जोर की
हँसी आई कि हँसते हँसते सुरसुरी चढ़ गई... तीनों बहनों में, बड़ी
का माथा ठोकने, पीठ सहलाने और पानी तलाशने की होड़ मच गई...
मी. लॉर्ड का मुँह धुलाया गया और न-न करते भी उसका सिर मझली ने
अपनी गोद में रख कर लिटा दिया और बाकियों से चुप रहने का इशारा
किया।
छोटी, कान के पास मुँह ले जाकर फुसफुसाई बड़ीऽऽ! आराम हुआ कुछ?
सँझली ने पूछा-सिर के नीचे तौलिया रख दूँ?
बड़ी ने हाथ से न का इशारा किया और आँखों पे कोहनी रख ली।
शांत, स्तब्ध तीनों बहनें एक दूसरी को चुप का संकेत देती बैठी
रहीं।
गाड़ी एक छोटे स्टेशन पर रुकी और मिनटों में सरपट दौड़ चली।
-‘आज स्टेशन कितनी जल्दी-जल्दी आ रहे हैं न!' एक बहुत धीमे से
दूसरी के कान में फुसफुसाई।
दूसरी ने ‘शः चुप' कह कर... आँखें तरेरीं!'
-‘बड़ी! माथा दुःखता है? हम दबा दें?' ... कहते हुए तीसरी ने
कोहनी उठाई तो आँखों के पीछे तक की लटें तरबतर...
वह गीलापन तीनों बहनों ने एक साथ देखा और उनकी आँखें डबडबाती
चली गईं।
पूछ भी नहीं पाईं कि क्या दुःखता है बड़ी!
तीनों ने एक साथ सोचा, हम अपने ही दुःखों के खटरागों से उसकी
झोली ठूँस-ठूँस भरते रहे।
वह हम सब की सुनती, समझती, सहलाती, बहलाती रही। मुग्ध भाव से
हँसती-हँसाती रही... लेकिन उसके मन की गाँठें...
-क्या हुआ पगलियों चुप क्यों हो गईं तुम सब? क्या बात है,
बोलो?
-कुछ नहीं, बस स्टेशन बहुत जल्दी-जल्दी आ रहे हैं न, वही...
-गाड़ी थोड़ी लेट हो जाती तो क्या बिगड़ जाता इसका...
-कैसी बच्चों सी नटखटिया बातें
-फिर न जाने कब कर पायें! ऐसी बेतुकी उटपटाँग बातें... न बड़ी!
-अचानक गाड़ी एक तेज धड़धड़ाहट के साथ पुल पर से गुजरने लगी। बड़ी
ने जल्दी से अपना बटुआ खोला और तीनों छोटी बहनों को एक-एक
सिक्का थमा दिया।
-जैसे बरसों बरस पहले माँ और पिता दिया करते थे।
हाँ, वे पुल से गुजर रही थीं - अतीत और वर्तमान के... चारों ने
एक साथ खिड़की से सिक्का फेंका। छन्न की आवाज के साथ, पुल के
आयताकार गार्ड से टकराते सिक्के, चार नन्हें वृत्त बनाते, पानी
में विलीन हो गए।
-लाओ एक भाई के नाम का भी डाल दें।
-कहाँ होगा इस वक्त!
-शायद बहुत दूर, अरब देशों में बन रहे बाँध के नीचे बहती नदी
को ही देख रहा हो... हमारी तरह...
-जाने क्यों अरब देश चला गया...
-तुझे कुछ पता नहीं - मकान पर कर्ज बढ़ता जा रहा था...
-समय रहते कर्ज पर काबू करना था न उसे-
-माँ की बीमारी वाले कर्ज का क्या करता वो...
-अरे, भाई के नाम का सिक्का तो डाला ही नहीं?
-लेकिन नदी तो गुजर गई...
-दूसरी आयेगी। इस रास्ते में तीन नदियाँ आती हैं गंगा, गोमती
और घाघरा...
-तुम्हें कैसे मालूम बड़ी?
-हम जब भी इस रास्ते से गुजरते, माँ-बाबूजी बताते...
-तुम्हें बाबूजी की याद है?
-ले, मैं तो तेरह की थी- और इस रास्ते से तो हम हर साल छः
महीने पर गुजरते।
-हम सब भी?
-हाँ, लेकिन बहुत-छोटी थीं तुम दोनों। हम सब साथ-साथ... ये ही
शहर, रास्ते, नदियाँ... बनारस, इलाहाबाद, मिर्जापुर, जौनपुर...
गंगा, यमुना, घाघरा, गोमती...
-अच्छा बड़ी! तुम छोटी थीं तो कैसी दीखती थीं?
-ले, तूने बड़ी की वो बचपन वाली फोटो देखी नहीं? लेसदार फ्रॉक,
नन्हें-नन्हें बूट, हाथों में जापानी गुड़िया।'
-और सर पे फुलनेदार टोपा नहीं? ही-ही-ही-ही...
-हाँ, बड़ी गर्व से बोली ‘तब तक अकेली मैं ही थी न, यह मँझली
गबदुल्ली तो मुझ से पाँच साल बाद पैदा हुई... तो जरा छींक आई,
जरा हिचकी भी ली मैंने कि तहलका मच जाता - डॉक्टर, वैद्य, दीठ,
दिठौने, राई-मिर्चें उतारी जाने लगतीं... उस जमाने में भी मेरे
लिये मर्तबानों में बिस्कुट, टॉफियाँ रखी रहती थीं कि कब किस
चीज की फरमाइश कर बैठूँ... मैं
-लेकिन तुम कुछ खाती ही नहीं थीं न - जब देखो, हम छोटियों के
सामने भी अम्मा तुम्हारी ही चिंता में हलकान... दुष्टनियों!
आपस में छीन झपट कर सारा कुछ खा जाती हो... यह नहीं कि जरा बड़ी
बहन को भी-
-वाह! वह खुद क्यों नहीं खाती? जैसे हम खाते हैं, वह भी
खाये... तो अम्मा बड़े लाड़ से कहतीं - वह कहाँ खा पाती है! ...
चिड़ियों के बच्चों सी टूँगती है... एकाध बार तो इतना गुस्सा
आता कि चलो हम भी नहीं खाते... देखें अम्मा हमें भी बड़ी की तरह
खिलाती हैं कि नहीं... लेकिन घंटा, आध घंटा बीतते न बीतते, हम
वापस भण्डारे से आँवले के मुरब्बे निकाल रही होतीं... सच में
बड़ा गुस्सा आता था, तुम पर लुटते लाड़ को देख कर...
-नहीं, बड़ा अच्छा लगता था, बड़ा मजा आता था,
-जानती हूँ क्योंकि तुम सब भी तो उसी लाड़ में शामिल होती गईं।
तुम सबको अहसास भी है इसका, है न!
-हाँ बड़ी! है...
-इसका भी कि हमारी माँ, हमारे पिता कभी उदासे नहीं हम बेटियों
को देख कर... उन्होंने हमें अपने लाड़ से इतना पूर दिया, स्नेह
दुलार की इतनी भरपाई कर दी कि हम पूरे जीवन अघाये रहें। जीवन
में आने वाले सारे दुःखों, दुरापदों को सह, लड़ ले जायें। वह
स्नेह हमारे जीवन की बावड़ी पर स्निग्ध तेल सा उतराया रहे...
बाकी सारी धूल-धक्कड़ तलछट होती चली जाये।....
-लेकिन तू आज सिर्फ अपनी बता... बड़ी! अपने दुःखों, अपने
दुरापदों की... कहाँ सह ले गयी कहाँ लड़ ले गयी। अपनी बावड़ी की
बात! तुझे नहीं मालूम, माँ हमेशा तुझे सोचा करतीं थीं पर हमारे
पूछने पर कुछ नहीं बताया कभी...
-माँ की तो आदत ही थी परेशान होने की... चलो, रात छिरती आ रही
है... कब से खाया नहीं तुम तीनों ने...
-नहीं हमें बिल्कुल भूख नहीं है... तुम बहका रही हो... आज...
आज बताओ बड़ी... हम फिर न जाने कब मिलें... क्यों छोड़ दी थी
तुमने कोठी, क्यों त्यागा, राम जगह सीता ने राजपाट... सारी
सुख-सुविधाएँ...
-सुख नहीं, सिर्फ सुविधाएँ... और सुविधाएँ सुख या दुःख का कारण
नहीं हुआ करतीं।
-तब फिर? कारण?
-कारण बाहर से ज्यादा हमारे अंदर के हुआ करते हैं रे! बाहर जो
कुछ घटता है, उससे, ज्यादा हमारे अंदर घटित होता रहता है और
असल में वही हमारा जीवन संचालित करता है...
-तोऽऽऽ
-तो बस समझ ले... मन हठ कर बैठा कि बस बहुत हुआ, अब इस हवेली
में रहना नहीं हो पाएगा.... मोहमाया त्यागने की घड़ी आ गई--
-यों ही? नहीं, प्लीऽऽज बड़ी, बुझौलियाँ मत बुझाओ... ठीक ठीक
बताओ एक-एक शब्द... मुश्किल से हम साथ हुए हैं...
-सिर्फ हम चारों
यह समय सिर्फ हमारा है।
-और रात बीतने के साथ फिर छिन जाने वाला है।
-तो बताओ बड़ी! ठीक-ठीक कब? कैसे?
-बस ऐसे ही... किसी जलसे की शाम... बैठक खाने से आवाजें आ रहीं
थीं... अपने-अपने खानदानों की खूबियाँ बखानी जा रही थीं... राव
उमराव सिंह की आवाज बुलंद हुई - हमारे यहाँ तो हमेशा बेटे की
पैदाइश पर बंदूकें दागी जाती हैं जनाब!... बाकायदे ऐलान किया
जाता है, खानदान के नये वारिस की पैदाइश का-... लेकिन इसके
पहले कि लोगों की रश्क भरी वाहवाहियों का समा बँधे... रायजादा
साहब की अंधे अहंकार से भरी आवाज गूँजी थी - लेकिन हमारे यहाँ
तो बन्दूक दोनों हाल में दगती हैं उमराव सिंह! बेटा हुआ तो भी,
बेटा न हुआ तो भी‘-
एक जोरदार ठहाके से भरी दाद मिली थी इस घोषणा को-
-क्याऽऽऽ
-मैंने लाख पीछा छुड़ाना चाहा लेकिन उसके बाद रात दिन,
सोते-जगते वे शब्द मेरे अंदर धाँय-धाँय दगते रहे... मैं उन
आवाजों से डर कर गुमसुमी सुरगों में सुन्न होती चली गई। मेरे
लेसदार फ्रॉकों की झालरें नुचती चली गईं, मेरे हाथों में पकड़ी
जापानी गुड़िया क्षत विक्षत थी... और टॉफियों वाले मेरे मर्तबान
चकनाचूर... मैं शहजादियों वाले झूले की ऊँची पैग से नीचे औंधे
मुँह गिरी थी - अचानक मुझे लगा, मेरी कोख को सहम कर सूख जाना
चाहिये। हमेशा के लिये बंजर...
-और... तुमने हवेली छोड़ दी...न!
-वहाँ पाने लायक था भी क्या... जो रखने सहेजने को मन होता...
सहेजने लायक तो वह बचपन था जो हमने जिया। मन में सोचा अहंकार
के इस बर्बर साये में भावी संततियाँ भला कैसे फलेंगी
फूलेंगी... बेटी हो, चाहे बेटा... ऐसी नृशंसताओं के भरोसे नहीं
छोडे़ जाने चाहिये न! कोई सृष्टि नहीं पनपने वाली यहाँ...
-ओह बड़ी!...
धीरे-धीरे उस सन्नाटी हवेली की पथरीली मनहूसियत समझ में आने
लगी थी, जिसमें बरसों से किसी बेटी की किलकारी नहीं गूँजी
थी... हवेली तरसती रह गई थी... सिर्फ कुछ मिथ्याभिमानी और
अहंकारी कुटेवों की वजह से।....
-फिर?
बहुत सोचा और शुभांगी को ले आयी। मैं प्रतिश्रुत थी, हवेली के
प्रति भी। अन्याय नहीं कर सकती थी न!
-लेकिन उनके माँ-बाप ने -
-पूछा मुझसे... मैंने कहा, वंध्या हूँ मैं... बस इतना छुपाया
कि यह वंध्यत्व मेरा स्वयं का चुनाव है।
-और बड़ी! तुम्हें नहीं मालूम, तुम्हें लेकर कैसी कैसी
किंवदंतियाँ कही-सुनी जाती रहीं पास दूर से... कैसी बेतुकी
अफवाहें... रहस्य भरी चर्चाएँ, लोकापवादों से जोड़ कर...
-वह सब मैं नहीं जानती... लेकिन मेरे जीवन का चरम-आल्हाद... जब
शुभांगी ने हवेली में अपनी अगवानी के तुरंत बाद, मेरे कमरे में
आ, मेरे पाँव छुए और अपनी सौगंध देकर पूछा-
-आपके वंध्यत्व का रहस्य क्या है, मुझे बताएँगी दीदी!
-तो? तुमने बताया बड़ी?-
उसकी दृष्टि इतनी निष्पाप और खरी थी कि झूठ बोलना उसके साथ छल
होता। जानने पर बोली - तो अपने संकल्प में मेरी अंजलि भी शामिल
कर लीजिए।...
मैं सिहर गई - नहीं, यह हवेली के साथ विश्वासघात होगा। मैं
तुम्हें इसलिए नहीं लाई हूँ।
वह अड़ गई -‘बिलकुल नहीं, यह एक नई शुरुआत होगी। विश्वासघात तो
कितनी कोखों के साथ इस हवेली की पीढ़ियाँ करती आई हैं दीदी...
आप परेशान मत होइये, हम कोई साजिश, षडयंत्र नहीं रच रहे, हम
सिर्फ एक सही शुरुआत की कोशिश कर रहे हैं, आपको भी बीच में
नहीं लाऊँगी - आपने तो बोतल से जिन्न बाहर निकाल दिया। अब उसे
उसका काम करने दीजिए - लेकिन निर्णय की घड़ियों में आपके पास ही
आकर पूछूँगी-हुक्म मेरे आका...
साँस रोक कर सुनती तीनों बहनों का सब्र जवाब दे गया- लेकिन,
लेकिन लोग कहते हैं... उन पर बहुत जुल्म हुए... उन पर भी बंदूक
चली...
-नहीं... वह तो हवेली का भाग्य पलटने आई थी, अपना काम पूरा कर
के गई। जो मुझसे कहा, कर के दिखाया। दाँतों तले उँगली दबा कर
लोगों ने देखा उसका न्याय। जैसे नियति को अपने वश में कर, अपना
चाहा करवाती गई! प्रारब्ध का हर खेल उसके इशारों पर...
-कैसे बड़ी?
-एक करिश्मे की तरह... जो किसी ने सोचा तक नहीं था-- पहलौंठी
के बच्चे जुड़वा-एक बेटी एक बेटा... और उसमें भी - बेटी तो
आसानी से जनम गई लेकिन बेटे की नाल फँसी रह गई... सारी तहसील
के डॉक्टरों का जमघट लगा था हवेली में... सलाह मशविरों के बाद
एकमत होकर औजार से खींच कर निकाला गया शिशु को - बचा भी ले
गए... निढाल, लस्त, निस्तेज होती हुई भी मुझे देख कर हँसी थी -
देखा बड़ी दी! टेव रखी न मैंने। राय साहब ने (अनमने मन से ही
सही) बेटी स्वीकारने का वचन दिया तो मैंने भी अपने दोनों की
तरफ से उन्हें इनाम बख्श दिया। मुझे शाब्बाशी नहीं देंगी!
-मैं उसकी निस्पंद होती हथेलियाँ सहलाती रही थी। जितनी
शाब्बाशी, जितना प्यार और जितना आभार उसका मुझ पर था उतना ले
पाने का वक्त तक नहीं था उसके पास।
-‘क्यों... बड़ी!... आशंकित बहने रो पड़ीं।
-क्योंकि सारे उपायों के बावजूद डॉक्टर थक्कों, झोंकों में
होता रक्त स्राव नहीं रोक पाये थे। असहाय से सब उसे धीरे-धीरे
अस्त होते देखते रहे... विजय गर्व से दीप्त आँखें बुझती चली
गईं - चेहरे पर धूप सी खिली रहने वाली मुस्कान निस्पंद होती
गई।
-तो इसका मतलब बंदूक दगने वाली बात-
-सही है... राय साहब ने खुद उसके सम्मान में दागी और बन्दूक
उसकी चिता के हवाले कर दी...
-सुनने में ये सारी बातें सच नहीं, कहानी लगती हैं बड़ी...
-मैं खुद भी उससे यही कहती थी तो कहती वैसे भी कुछ ज्यादा फर्क
है नहीं बड़ी दी कहानी और सच में... जहाँ तक सोचो, वह सब कहानी
और हिम्मत कर, कर डाला तो, सच... मुझे भी लगता है, शुभांगी सच
से ज्यादा एक कहानी थी। लेकिन मेरे जीवन के सबसे सुंदर सच,
शुभांगी से जुड़ी स्मृतियाँ हैं। मंगल तोरण सी सजी। जैसे स्त्री
जीवन की सारी ऊर्जा, सारा वरेण्य, संचित हो वहाँ... बहुत
चिढ़ाती, खिझाती थी मुझे... कभी कहती - आज रात राय साहब से बात
करने वाली हूँ दीदी!... तैयार रहियेगा क्या मालूम आज की रात ही
गोली चल जाए?... फिर मेरा सफेद फक् होता चेहरा देख हँस पड़ती...
आप भी बड़ी दी... शुभांगी को समझती क्या हैं?... आपका चाहा पूरा
किये बिना हिलने वाली नहीं इस हवेली से... लेकिन ये तो
बताइए... बाद में, बहुत बाद में, कितनी-कितनी बेटियों की
सप्तपदियाँ पढ़वाना चाहेंगी आप इस हवेली के आँगन से? आप जितनी
कहेंगी, उतनी बेटियाँ जनूँगी... और हँसती जाती...
मैं भावुक हो जाती - न जाने कितनी पीढ़ियों की अजन्मी बेटियों
का ऋण हम पर है शुभांगी, जो हमारे बचपन वाली लाड़ दुलार की अपार
संपदा से वंचित कर दी गईं... यह प्रायश्चित लंबा चलने वाला
है...
-बाप रे... तब तो आप ही चलाइएगा... समझीं... मैंने आपका कहा
किया... तो आप भी तो मेरा कहा -- और करना भी क्या है एकदम आपकी
मन चाही बात... आप ढेर ढेर सारी बच्चियों में अपना बचपन ही तो
साकार होते देखना चाहती है न!
-हां, शुभांगी - एक ऐसा बचपन जो पूरा जीवन सँवार ले जाने की
ताकत और आत्मविश्वास दे पाये उन बच्चों को उन्हें। हमारे पास
जो पूँजी होगी, वही तो हम सारी उम्र दूसरों पर
खर्चेंगे-सौंपेंगे।... हमारा बचपन तो एक अदृश्य ताल की तरह है
न... जब चाहे डुबकी मार कर तरोताजा हो लें... नयी ताकत, नयी
ऊर्जा... और मछलियों की तरह जी भर कर तन-मन भिगो लें...'
-‘और जब लोग पूछें, मछली! मछली! कित्ता पानी?'... छोटी मुग्ध
खिलखिलायी।
-तो हम कह सकें कि इतना पानी कि समूची धरती कमल ताल सी खिल
जाए... रेलगाड़ी की यह आधी रात हम सबने आँखों में काट दी। सुबह
जल्दी उठना है न! चलो, सो जाओ सब...
0 0 0
बाहर भीतर का सन्नाटा गहराया था। ट्रेन अपनी रफ्तार पर।...
अँधेरे में एक सहमी फुसफुसाहट तैरी थी...
-बड़ी ऽऽ! सो गईं?...
-नहीं, सँझली, तुझे ही सोच रही थी।
-एक बात कहनी थी तुझसे-
-कह डाल!
-तुम्हारे और शुभांगी दी जितनी तो नहीं लेकिन एक छोटा ही सही
पर बहुत दुस्साहसी कदम मैं भी उठा ले गई बड़ी... तुम से उस पर
सही करवाना चाहती हूँ। मँझली और छोटी के सामने हिम्मत नहीं
पड़ी।.... बड़ी, वृंदा न, वृंदा अब नहीं मेरे पास... मैंने उसे
एक रात चुपचाप पिछले दरवाजे से चली जाने दिया...
-जानती हूँ...
-क्या?
-कि गलत नहीं किया तूने!
-...बस यही सुनना था तुझसे-
-तेरी जगह हम तीनों में से कोई होती, तो अपनी बेटी के साथ यही
करती, समझी।
-लेकिन आशुतोष ने उसका गुस्सा मुझ पर उतारा।
-तो जान गए वो...
-वो तो जानते ही थे, मुझसे उगलवाने की तरकीबें उन्हें मालुम
हैं।
-हम सबको सच छुपाने की युक्तियाँ भी नहीं आतीं न!...
-वृंदा बहुत रोती थी।... वह इस तरह अपने घर से, रात के अँधेरे
में छुप कर नहीं जाना चाहती थी। वधू-वेष में धान-पान के साथ
विदा होना चाहा था उसने। विट्ठल ने भी। उसे यह भी पता था कि
उसके जाने के बाद आशुतोष मुझे...
-मुझे मत बता सँझली...
-मेरा मन हल्का हो जायेगा बड़ी!
-लेकिन मेरा मन भारी हो जायेगा बेटा!... तू बस इतना सोच, तूने
वृंदा और विट्ठल को उनके जीवन की सबसे बड़ी खुशी सौंप दी।
-जो मुझे नहीं मिली... न बड़ी।
-तभी तो तूने बेटी के सुख की कीमत अदा करने का जोखिम उठाया।
-लेकिन मन घबराता है बड़ी!... पता नहीं कैसे हैं, दोनों...
आशुतोष का ठिकाना नहीं...
-दोनों ठीक से हैं... सुरक्षित...
-सच! तुमने कैसे जाना बड़ी?
-वृंदा ने मुझे पत्र लिखा था, फोन पर बात भी की... उसे और
विट्ठल को तेरी बहुत चिंता है।
-लेकिन आशुतोष...
-समझ जाएँगे। एक इंसान उनके भीतर भी है। तू ले आयेगी उस इंसान
को बाहर!... सो जा अब।
0 0 0
सुबह की उजास फूटने से पहले ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी। मँझली
ने खिड़की से बाहर झाँका - अंदर एक हौल सी उठी--
-‘उ-मे-द-पुर आ गया'-
-क्याऽ?... बाकी बहनें झटके से उठ, रुआँसी हो आयीं-
-इसका मतलब कुल तीन स्टेशनों बाद मँझली को उतरना है।
-‘छोटे मोटे सामान समेट ले मँझली, बड़ी ने पीठ पर हाथ रखा।'
-‘मैं स्टेशन से चाय लाती हूँ'- सँझली थी।
-‘धत् पगली! अभी तो सुबह की किरन भी नहीं फूटी है।'
-मिलने तो दे। देख तो रही हूँ, पूरा प्लेटफार्म कितना सूना
सनाका है।
-मेरे दो स्टेशन बाद ही तुझे भी तो बस पकड़नी है न!
-हाँ, फिर बड़ी उतरेगी। सो तो छोटी रहेगी ही। वह आखिरी स्टेशन
तक गाड़ी का पिंड नहीं छोड़ने वाली। सुन, तू सँभाल कर उतार देना
बड़ी को अच्छा।
-मेरी चिंता मत करो। मनु और प्रिया आयेंगे न, उतार लेंगे
मुझको। छोटी को ट्रेन से नीचे उतरने की जरूरत नहीं।
-बड़ी! आखिरी स्टेशन पर तो अकेली ही उतरेगी न छोटी? और वहाँ से
टैक्सी लेकर अकेली ही एयर पोर्ट भी जाएगी... तो बिना ट्रेन से
उतरे ही?
-वो बात और है... वहाँ तो पूरी ट्रेन ही रुक जानी है।
-अरे, एक और स्टेशन गुजर गया। ट्रेन को थोड़ा तो रुकना था। रुकी
ही नहीं।
-जाने कौन सी आफत आई जा रही है इस गाड़ी पर कि बदहवास भागी जा
रही है।....
-हमेशा लेट होती है यह ट्रेन... आज लेट भी नहीं हुई।...
-कल तक हम चारों अलग-अलग अपने-अपने ठिकानों पर होंगे न!
-फिर न जाने कब...
अचानक छोटी बेसब्र हो बोल पड़ीं - बड़ी!
-बोल, बड़ी ने प्यार जताया।
-अगर हम इस गाड़ी के इंजन को पीछे की तरफ लगा दें तो यह ट्रेन
उल्टी चलती जाएगी न!... और हमसब ऐसे ही बैठे रहेंगे,
साथ-साथ...
-अरे वाह! शाब्बाश छोटी! क्या बात सूझी है तुझे... चल हम चारों
बहनें इस गाड़ी के कलपुर्जे तजबीजते हैं और ऐसी चाभी घुमाते हैं
कि हम चारों हमेशा हमेशा... वे सब आखिरी बार एक साथ उन्मुक्त
हँसना चाहती थीं कि-
-‘स्टेशन आ गया'
उतरने से पहले वे चारों एक साथ गलबहियों में प्रार्थना के
गुंबद की तरह जुड़ीं फिर अलग-अलग हो गयीं।
गाड़ी धीरे-धीरे खिसक रही थी।
निर्जन प्लेटफॉर्म पर, मँझली अकेली अपने थैले के साथ खड़ी थी और
ट्रेन के दरवाजे पर सिर से सिर जोड़े तीनों बहनें एक टक, ओझल
होने तक उसे देखे जा रहीं थीं। |