पहले
तो यह स्पष्ट कर दूँ कि यह कोई पॉलिटिकल कहानी नहीं है। दरअसल
इस कहानी का शीर्षक ही ऐसा है। और फिर कुर्सी और राजनीति आज के
वक्त में पर्यायवाची बन चुके हैं। लेकिन यह कुर्सी उन
राजनेताओं की नहीं है जिसे हर कोई हथियाने को तैयार रहता है।
यह कुर्सी तो अम्मा की है। इस कुर्सी को हथियाना नहीं पड़ा और
इसको हथियाने जैसी कोई बात भी नहीं थी। यह कोई ओहदा तो है नहीं
कि इसको मिलते ही व्यक्ति बहुत ऊँचा हो जाए।
मामूली बेंत की कुर्सी है यह। बस इतना है कि बहुत आरामदायक है।
किसी वक्त लालाजी ने घर पर ही बनवाई थी। एक वक्त था जब
गली–मुहल्लों में लोहे, लकड़ी और इस तरह के काम करनेवाले घूमा
करते थे। एक रोज़ लालाजी ने ही आवाज देकर रोक लिया था। अम्मा ने
तो रोका था– पहले क्या घर में कम कबाड़ जमा कर रखा है।’ लेकिन
लालाजी ने अनसुनी करते हुए मिस्त्री को सामने ही बिठा यह
कुर्सी बनवाई थी। लालाजी ने मिस्त्री को हिदायत दी थी, ‘भई काम
बारीकी से और प्यार से करना। भले ही दो पैसे ज्यादा लग जाएँ।’
सुबह आठ बजे से लेकर शाम पाँच बजे तक मिस्त्री यह कुर्सी तैयार
कर पाया था। कोई मुसलमान मिस्त्री था। अम्मा को आज भी उसका नाम
याद है। हाँ, अनवर मियाँ। अनवर मियाँ की नीली–नीली आँखें आज भी
अम्मा के सामने घूमती हैं। दिन में दो बार चाय और दोपहर का
भोजन खाया था अनवर मियाँ ने। पहले तो अम्मा ने नहीं सोचा कि
अनवर मियाँ रोटी भी खाएगा। काम करने के पैसे ले रहा है तो फिर
रोटी किस बात की? लेकिन लालाजी ने उठते–उठते आदेश दिया था,
‘मैं कमर सीधी करने के लिए जरा लेटने जा रहा हूँ। अनवर मियाँ
को रोटी जरूर खिला देना।
‘क्या दिहाड़ी नहीं ले रहा?’ अम्मा ने लालाजी के पास से गुजरते
हुए पूछ ही लिया।
‘भई दो रोटी खिला दोगी तो कुछ चला जाएगा क्या?’
‘कुछ भी न जाएगा।’अम्मा ने मुँह बिचकाया था। कहीं भीतर से
कुढ़ती हुई अम्मा दो रोटी परोस लाई थी।
अम्मा के हाथ का बना भोजन खाकर अनवर मियाँ निहाल हो आए थे।
‘बहुत स्वादिष्ट भोजन पकाया बीबी! अरसे बाद ऐसा भोजन खाने को
मिला।’
अनवर मियाँ की बात पर अम्मा और भी तुनक गई, ‘ऐसा भी कुछ नहीं
पकाया मैंने। क्या तुम्हारे घर में भोजन नहीं पकता?’
अनवर मियाँ हँस दिये। नल पर हाथ धोते बोले, ‘घर हो तो ऐसा भोजन
मिले।’
‘आय हाय! इतनी दिहाड़ी ले लेते हो, अभी तक घर नहीं बनाया क्या?’
‘घर तो बनाया था लेकिन साथ–के–साथ उजड़ गया।’
‘क्या मतलब?’ अम्मा का चौंकना स्वाभाविक था।
‘बीबी जल्दी ही साथ छोड़ गई। खून बनना बन्द हो गया था। अब
तुम्हीं जानो, घर तो घरवालों से होता है। दीवारों से घर थोड़े न
बने।’ अम्मा तो बस पिघल गई। बोली, ‘खाया तो कुछ न। एक कड़छी भात
ले आऊँ ?’
‘न! थोड़ा खाया हजम हो जाए, उतना ही बहुत है।’
लालाजी आराम करके उठ गए थे। अम्मा समझ गई, कुर्सी की चिन्ता
में जल्दी उठ आए हैं।
कुर्सी की मजबूती बनाने में अनवर मियाँ ने कोई कसर न छोड़ी थी।
लालाजी रोज सुबह–शाम कुर्सी आँगन में बिछा आकाश की ओर निहारा
करते थे। एक रोज़ अम्मा हँसी थी, ‘तुम तो कुर्सी से चिपक ही गए।
तुम कुर्सी को नहीं छोड़ पाते या कुर्सी तुम्हें नहीं छोड़ती?
किसी भी चीज़ से इतना मोह अच्छा नहीं।’
कभी तुम भी इस पर बैठ कर देखो तो जानो।’
‘न बाबा! मेरे को तो अपनी ये पीढ़ी भली। टाँगें लटका कर कुर्सी
पर बैठना अब मेरे बस में नहीं।’अम्मा अपनी लकड़ी की पीढ़ी लालाजी
के पाँव के पास सरकाकर उस पर बैठती हुई कहती।
लालाजी सुबह–सवेरे ही इस कुर्सी पर विराजमान हो जाते और
कम–स–कम एक घण्टा अखबार के पन्नों को पलटते रहते। घर में एक
नहीं, दो–दो अखबार आया करते। एक अँग्रेजी का, एक हिन्दी का।
लालाजी का कहना था, अगर अपनी ही भाषा छोड़ देंगे, तो अपना तो
सबकुछ छूटता चला जाएगा।
रविवार के दिन तो पूरे चार अखबार आते। और जब महीने बाद कलुआ
अखबार का बिल लेकर आता, तो लालाजी के मुँह से निकल ही आता,
‘अरे भई, बहुत बिल आ गया!’
‘ये चार–चार अखबार लेना बन्द कर दो।’
‘अरी चार–चार अखबार कौन लेता है। यह जो रविवार का दिन होता है
न, बड़ा लम्बा और भारी लगता है। बस इसी दिन ही तो आती हैं चार
अखबारें।’
अम्मा खिलखिला कर हँस देती। लालाजी चुप रहना चाहते हुए भी खुद
को रोक नहीं पाते। जरा गुस्से से कहते, ‘इसमें हँसने जैसी क्या
बात थी भला!’
‘हँसूँ न तो और क्या करूँ। सच में सठिया गए हो तुम तो। सरकारी
नौकरी से रिटायर हुए पूरे सात बरस हो चले हैं। अब तुम्हारे
लिये सोमवार क्या और रविवार क्या! अब तो सुबह–शाम इसी कुर्सी
पर बैठना होता है तुम्हें।’
‘बात तो तुम ठीक कह रही हो लेकिन केवल एहसास की बात है यह।
रविवार के दिन का एहसास ही कुछ और होता है। सड़कों पर वो
चहल–पहल नहीं होती। आकाश की ओर भी देखो तो सूना–सूना दिखाई
देता है। कोई परिन्दा भी उड़ता दिखाई नहीं देता। ऐसा लगता है
जैसे उनके लिए भी आज छुट्टी का दिन हो।’
लालाजी की फिलॉसफी अम्मा की समझ में न आती। कुछ बहस करने की
बजाए अम्मा वहाँ से उठ खड़ी होती। यों भी, वहाँ पर बैठकर करने
का अम्मा का काम खत्म हो चुका होता और अम्मा रसोईघर में जाकर
व्यस्त हो जाती।
कुछ दिन से अम्मा देख रही थी कि लालाजी कुर्सी पर सिर्फ थोड़ी
देर के लिए बैठते हैं, फिर भीतर जाकर लेट जाते हैं। एक रोज़
अम्मा ने पूछ ही लिया था, ‘तबियत ठीक नहीं है क्या?’
‘पीठ में कुछ अकड़ाव रहने लगा है।’
‘डाक्टर को दिखला लेते?’
‘डाक्टर क्या करेगा? उम्र का तकाज़ा है। अगर इस उम्र में भी
आदमी चंगा–भला रह जाए, तो फिर बुढ़ापे की कद्र कौन करेगा?’
लालाजी मुस्कुरा दिये तो अम्मा के होंठ भी फैल आए थे। अम्मा ने
हामी भरते हुए कहा था, ‘सो तो ठीक है।’
लेकिन लालाजी अपनी तकलीफ को ज्यादा देर के लिए नहीं टाल पाए
थे। जब ज्यादा ही चारपाई से चिपकने लगे तो अम्मा जिद्द करके
उन्हें अस्पताल ले गई। डाक्टर ने जैसे–जैसे लालाजी की पीठ की
हड्डी को छुआ, दर्द की एक तेज लहर लालाजी के पूरे बदन को सहरा
गई। बड़ी मुश्किल से अपनी चीख को दबा पाए थे।
‘आप काम क्या करते हैं?’ डाक्टर ने पूछा तो लालाजी हँस दिये–
इस उम्र में क्या काम करूँगा। सरकारी नौकरी से कब का रिटायर हो
चुका हूँ। एक कम पचहत्तर का होने वाला हूँ। अब तो बस आराम ही
करना है।’
‘तभी तो!’ एकाएक डाक्टर बोला, ‘सारी उम्र सरकारी कुर्सी पर
बैठकर कुर्सी ही तोड़ी होगी। तभी यह हाल हुआ है।’
डाक्टर साहब के कुर्सी शब्द पर जोर पड़ते ही अम्मा का माथा
ठनका। और अम्मा ने तुरन्त डाक्टर साहब से उस बेंत की कुर्सी का
बखान कर दिया।
अम्मा ने अस्पताल से लौटते हुए यह निश्चय कर लिया था कि अब
लालाजी को ज्यादा देर के लिए उस कुर्सी पर नहीं बैठने देगी।
लेकिन ज्यादा तो क्या, उस रात के बाद लालाजी पलभर के लिए भी उस
कुर्सी पर नहीं बैठ सके। आधी रात को ही लालाजी को दिल का ऐसा
दौरा पड़ा कि हमेशा के लिए उस कुर्सी से नाता तोड़ गए।
तेरह दिन अम्मा जमीन पर बैठी रही। उसके बाद पीढ़ी पर बैठने के
लिए कमर जवाब दे गई। दो–दो औरतें अम्मा को बाजू और बगल से
पकड़कर बिठाने–उठाने लगी थीं। लेकिन वे भी कब तक इस बोझ को
सहारा देतीं। नाम की रिश्तेदार थीं अम्मा की। गाँव से आई जमुना
काकी की बहू ने तो साफ–साफ कह दिया था, ‘हम कल जा रही हैं
अम्मा। जल्दी से अपना कोई ओर इन्तजाम कर ले।’
पड़ोस की पारवती भी अपने को रोक नहीं पायी। हाथ नचाती बोली,
‘अम्मा, अब इस पीढ़ी का मोह छोड़। यह कुर्सी पड़ी है न, अब इस पर
बैठा कर।’
‘नहीं री, यह तो लालाजी की कुर्सी है, इस पर सिर्फ वही बैठ
सकते थे।’
अम्मा की बात पर पारवती खिसिया दी, ‘सठिया गई हो अम्मा,
तुम्हारा भी कोई कसूर नहीं।’
पारवती की बात अम्मा समझती थी लेकिन बोली कुछ नहीं।
सर्दियों की गुनगुनी धूप में अम्मा पीढ़ी दरवाज़े तक खींच लेती।
आने–जानेवालों की रौनक देखती रहती। अम्मा को सामने देख
मोहल्लेवालियाँ अम्मा के पास आ बैठतीं। अम्मा का वक्त अच्छा
निकल जाता। सारा दिन अच्छी गपशप हो जाती। सास–बहू के झगड़े
सुनना तो अम्मा के लिए आम बात हो गई थी। अब अम्मा उन्हें
सुलझाने में लगी रहती।
अम्मा का आज का दिन कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहा। कोई एक उठकर
जाता तो दूसरा आ टपकता। अम्मा तो यह भी भूल गई कि उसे कुछ
खाना–पकाना भी है। दोपहर के पूरे तीन बज रहे थे, जब अम्मा को
पीढ़ी से उठने की फुर्सत मिली। अम्मा की पीठ बुरी तरह से अकड़ गई
थी। अम्मा धीरे–धीरे कमर को दबाती हुई उठी और रसोई की ओर मुड़ने
को हुई थी, तभी शंकर की आवाज़ कानों में पड़ी, ‘अरी ओ अम्मा!’
अम्मा ने रुककर मुँह मोड़ा और शंकर की ओर देखने लगी।
शंकर दूर से चिल्ला रहा था, ‘अम्मा, आज के समाचार सुने के
नहीं? इस सरकार का क्या होगा! कुर्सी के चक्कर में देश को
बर्बाद करने पर तुली है।’
अम्मा तनिक मुस्कराई और दबी–सी आवाज में बोली, ‘चिन्ता नहीं
करो। ये कुर्सी हथियानेवाले एक दिन अपनी मौत मरेंगे। कुर्सी पर
बैठे–बैठे जब इनकी पीठ अकड़ जाएगी, तब ये जानेंगे कि कुर्सी का
नशा क्या होता है।’
शंकर अब तक पास आ गया था। अम्मा के पीछे–पीछे चलता बोला–
अम्मा, इस बार मोहल्ले के इलैक्शन में तू खड़ी हो जा।’
अम्मा हँस पड़ी, ’न रे! मुझे कुर्सी का कोई नशा नहीं है रे!’
अम्मा रोटी सेंकती बोली, ‘तू कुछ खाएगा क्या?’
‘नहीं अम्मा! तू रोटी खा ले, एक कप चाय तेरे साथ ले लूँगा। तब
तक तेरे सामने ही बैठता हूँ।’शंकर ने सामने पड़ी बेंत की कुर्सी
आगे सरका ली।
शंकर को कुर्सी पर बैठते देख अम्मा के भीतर जैसे कोई ज्वाला
भड़क उठी, ‘अरे! तू कैसे बैठ गया इस कुर्सी पर। ये कुर्सी तो
लालाजी की है। उठ यहाँ से…उठ…! तेरी हिम्मत कैसे पड़ी इस कुर्सी
पर बैठने की। यह कुर्सी सिर्फ लालाजी की है।’
एकाएक
अम्मा का यह रूप देख शंकर बौखला गया । बिना कुछ कहे वह दबे
पाँव बाहर को निकल गया। शंकर के बाहर जाते ही अम्मा कुर्सी के
पास आई और कुर्सी के पल्लों का सहारा लेती हुई बोली, ‘अब यह
कुर्सी मेरी है… सिर्फ मेरी। अब इस कुर्सी पर मैं बैठूँगी। अब
इस पर सिर्फ मैं बैठ सकती हूँ… सिर्फ मैं।’
कुर्सी के पल्लों का सहार लेती हुई अम्मा कुर्सी पर बैठ
गई। कुर्सी पर बैठते ही अम्मा जार–जार फूट पड़ी थी।
इस वक्त अम्मा को देखने वाला वहाँ कोई नहीं था। |