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संस्मरण

दशहर अवसर पर इसे सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
शीला इंद्र का संस्मरण- वे सुंदर दिन बचपन के


मैं बदहवास सी उस विशाल भीड़ के सामने खड़ी थी, समझ ही नहीं आरहा था, कि किधर से अन्दर जाऊँ? कहाँ जाकर बैठूँ? ज़िन्दगी में पहली बार तो राम लीला देखने का अवसर मिला था, वह भी इतनी भीड़ के कारण रह जाएगा... तभी औरतों की ओर की उस भीड़ के बीच में एक लड़की खड़ी हो कर चिल्लाई,‘‘ऐ!... शीला... इधर से आ जाओ, इधर रास्ता है। मेरी छोटी बहन सुधा और मैं उसके बताए रास्ते से आगे बढ़े और हमने देखा, कि ज़मीन पर बैठे लोग अपने आप हमें रास्ता देते गए। और हम दोनों उस लड़की के पास पहुँच गए। वह हँसी, ‘‘पहचाना नहीं मुझे? मैं कमला... ’’
‘‘हाँ! हाँ! तुम मेरे स्कूल में ही पढ़ती हो न? तुम्हें रोज़ ही तो देखती हूँ।’’
‘‘हाँ! मैं भी तो देखती हूँ। और तुम्हारा नाम भी जानती हूँ। तुम छठी कक्षा में पढ़ती हो न? मैं सातवीं में पढ़ती हूँ। तुम उधर मिल हाउस में रहती हो न... ’’
‘‘
हाँ... और तुम कहाँ रहती हो?’’ मैने पूछा।
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उसने हाथ के इशारे से दिखाया, ‘‘इधर ही नीचे बहुत नीचे मेरा घर हैं। वहाँ उधर बहुत सारी सीढ़ियाँ हैं न, वहीं से नीचे जाना होता है।’’ तभी ढोल और बाजों की आवाज़ों में हमारी आवाज़ें खो गई। रामलीला आरम्भ हो चुकी थी। और सब लोग शांत हो गए। स्टेज पर दो तीन माइक खड़े थे। उसके सामने पात्र अपने अपने संवाद बोलते और पीछे हट जाते। बड़ा ही अच्छा लग रहा था। मैंने सिनेमा तो देखे थे किन्तु ऐसा नाटक नहीं।

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