|
परसों दिन भर इन्दौर के टेम्पो, टैक्सियों में,
सिटी बसों और उनके स्टाप्स् पर घूमते हुए मैंने लगभग हर उस
लड़की से बेसाख्ता पूछा, जो एक नजर में दूर से सलीकेदार जान पड़ती थी कि-‘क्या आप सविता बनर्जी हैं?‘ और, शाम
होते-होते मुझे किसी भी लड़की से पूछने के पहले दहशत होने लगी
थी, इस बात को सोचकर कि वह बेलिहाज हो कर इनकार देगी।
यह बात शुक्रवार की शाम की है। इन्दौर में मुझे धुंआरी शामें,
शोर और भीड़ के बीच होल्करों के, राजबाड़े की पुरानी इमारत की
दीवारें देखकर हमेशा लगता है, जैसे सामन्त-समय की मुँडेर पर
बैठा इतिहास बहुत खामोश होकर वक्त की रफ्तार का जायजा ले रहा
है।
मैं राजवाड़े से जी.पी.ओ. (जनरल पोस्ट ऑफिस) की तरफ जाने के लिए
एक तिपहिया टेम्पो में बैठा ही था कि अचानक सिटी बस आ गई। बस
को आता देखकर सहसा मेरे सामने की सीट से एक साँवली-सी दोशीजा
आँखों वाली लड़की उठी और टेम्पो से लगभग कूद कर बाहर हो गयी और
उठकर सिटी-बस की ओर भागती उस लड़की की भर-आँख तो मैंने केवल पीठ
ही देखी, शक्ल नहीं। टेम्पो चालक ने सवारी के हाथ से निकल जाने
पर कुढ़ना शुरू कर दिया था। तभी मेरी निगाह सामने की उस खाली
सीट पर पड़ी जहाँ वह लड़की बैठी हुई थी, वहाँ लाल रंग के कवर की
एक डायरी थी। |