ऐसा
सुरम्य स्थल तो उसने पहले कभी देखा ही ना था सड़क के एक किनारे
बच्चों को खेलते देखना उसके लिये अनूठा था उसने तो अपने बच्चों
को मुश्किल कभी मुस्कुराते भर देखा था, खेलना और हँसना न तो
उसे नसीब हुआ था ना ही उसके बच्चों को।
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"लो यहाँ
अपना नाम लिखो ...!" सामने बड़ी सी कुर्सी पर बैठे साहब ने
कहा। उसे ऐसी बातों को समझ कर कार्य करने में ही वक्त लग जाता
था क्योंकि वह अक्सर चेतना शून्य रहती थी। मानो इंसान और
वस्तुओं में कुछ अंतर ही मालूम न हो। जेलर साहब ने जवाब न पाकर
फिर उसके आगे अँगूठे की छाप आगे बढ़ा दी और कहने लगे, “अब से
तुम अकेली नहीं हो विमला बेन तुम्हें अपने साथ लेकर जा रही है।
देखना अब तुम ठीक हो जाओगी। वह ठीक थी या नहीं, यह सोचना उसने
छोड़ दिया था।
और फिर वह यंत्रवत उन लोगो के साथ जेल से बाहर आ गयी जो काफी
दिनों से रोज उसके सामने आने के कारण जाने पहचाने से लग रहे
थे। बाहर आते ही अचानक ठंडी हवा का एक झोंका उससे टकरा कर गया
और चमकदार सूरज उसके पूरे शरीर को घेर कर ऐसे देख रहा था जैसे
उसमें कितने प्राण और बचे हो यह जल्दी से गिन लेना चाहता हो। यह
अहसास तो हुए उसे जैसे बरसों हो गए। हवा और सूरज की तो उसे आदत
कहाँ रही इन पाँच बरसों में। वे लोग उसे वैन में बैठा कर चल
पड़े थे।
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वैन रुकी और
"अन्दर आओ बेटी ...!" सुनकर उसका ध्यान उस महिला की
ओर भी गया
जो लगातार उससे प्रेम पूर्वक बात करने की चेष्टा कर रही थी।
शायद जेलर ने इन्हीं का नाम विमला बेन बताया था। अन्दर पहुँचने
को जैसे ही पाँव बढ़ाए अपने दोनों बच्चों को सामने बुआ-सा के
साथ बैठे देखा और फिर तो वह खुद को दौड़ने से रोक नहीं
पायी। बच्चे भी उसी की तरह, कुछ पल उसे देख कर, फिर दौड़ कर उसके
सीने से चिपट गए। वह उन्हें चूमते हुए रो रही थी और बच्चे उसे
पाकर पुलकित हो रहे थे यहाँ शायद जेल से उसके साथ उसे छोड़ने
आए हुए व्यक्ति ने पहली बार उसके मुख से आवाज सुनी थी क्योंकि
वह यह दृश्य देख कर अपनी आँखों को पोछने से नहीं रोक पाया था।
"बहू जी, अब अपनी अमानत संभालो..." भरे हुए गले से बुआ सास ने
उसे कहा।
वह भी अपने संस्कार भूली नहीं थी। जर्जर हुई साड़ी का पल्लू
किसी प्रकार खींच कर सर पर रखा और बुआ सा के पाँव छू
लिये। वह उनके अहसान से मानो उठना ही नहीं चाहती हो।
इसके पश्चात वे लोग एन.जी.ओ. के उस हॉल में पहुँचे जहाँ काफी
लोग पहले से एकत्रित थे। उसके वहाँ प्रवेश करते ही पूरा हॉल
तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। विमला बेन उसे हाथ पकड़ कर
मंच तक ले गईं और वहाँ मौजूद सभी से उसका परिचय करवाया और तिलक
लगा कर उसका स्वागत करते हुए कहा,
"अब हम सब तुम्हारे साथ हैं। यह देखो, हम सभी तुम्हारे परिवार
के सदस्य हैं। तुम एक मात्र इस रोग और यंत्रणा को झेल रही हो
ऐसा नहीं है देखो तुम–सी और भी महिलाएँ और पुरुष हैं जो अब यहाँ
सुकून की जिन्दगी गुजार रहे हैं।"
उसने देखा पूरा हॉल उसे ही देख रहा था। चारों और खुबसूरत झालर
लगे थे। सुन्दर बड़े पर्दों के किनारों से निकल कर आती ठंडी
बयार का असर उन सबके चेहरों को जीवन के प्रति आशावान बनाता दिख
रहा था। उसकी जीवन धारा में जैसे नए ओज का संचार हुआ हो। उसने
तो इतना स्नेह और ऐसा सुरम्य वातावरण कभी देखा ही नहीं था। वह
तो अब तक कहीं और ही गुम थी। शायद कहीं छिपी हुई। और वह याद करने
लगी उन दिनों को जहाँ वह अब तक थी।
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पाँच वर्ष
पहले की एक शाम वह बेंच पर पाँवों को मोड़कर घुटनों में सिर
छिपाए बैठी थी। यह उसकी आदत में है कि जब भी उसे सबके सामने
लाया जाता, वह इसी तरह अपना चेहरा छिपाकर बैठा करती है।
क्योंकि लोगों का सामना करने की उसमें हिम्मत नहीं थी। लोग भी
उसे घृणास्पद दृष्टि से देखा करते थे, यह उसे मालूम था।
हालाँकि इस जन्म में उसने कोई पाप नहीं किया था। पर हाँ, पिछले
जन्म में उसने जरूर कोई भयंकर पाप किए होंगे कि वह आज ऐसे रोग
के साथ जेल में सलाखों के पीछे अपने आप से भी घृणा करते हुए
अपनी मौत का इंतजार कर रही थी।
पिछले कुछ दिनों से बाहर के लोग उसके बारे में जेल में आकर
जानकारियाँ ले रहे थे। यह सोच भी उसे आशंकित कर रही थी कि अब
विधाता ने उसके लिये क्या फिर नई सजा मुकर्रर की है। जो भी हो
वह सबकुछ भोगने को तैयार है। इसी जन्म में, ताकि अगले जन्मों
में यह सब न हो उसके साथ। अपने मुँह से निकली आवाज सुने तो उसे खुद
ही चार वर्ष हो गए थे। यादों को कुरेदकर अपने जख्म हरे नहीं
करना चाहती थी वह।
‘सीमा तुमसे कुछ लोग मिलने आए हैं।’
हाँ, यही तो नाम था उसका, सुनकर उसे याद आया। वह उन लोगों को
देखने लगी। एक सफेद कोटवाला, एक काले कोट वाला और एक महिला उसी
की तरफ देखते हुए खड़े थे। सफेद कोट वाले ने बिना कुछ कहे उसके
शरीर की जाँच करनी शुरू की।
"तुम्हारे चेहरे और हाथों पर हुए घाव कब से ठीक नहीं हो रहे
हैं।" यह पूछने पर सीमा ने कोई जवाब नहीं दिया। इन सालों में
उसके पति ने एक घाव ठीक होने से पहले ही कई घाव बनाने का नियम
जो बना रखा था। अब उन लोगों ने जेल की उस कोठरी में मौजूद
अन्य लोगों से सीमा के बारे में पूछताछ करनी शुरू कर दी।
उसे बस इतना ही समझ में आया कि कल नए साल में फिर उसके साथ कुछ
घटित होने वाला है। वह नए साल का पहला दिन ही तो था, जब उसकी
शादी विजय के साथ हुई थी। कितना सजीला दिखाई दे रहा था, जब
बारात के साथ घोड़े पर चढ़ा आया था। अभी तो बस उसे केवल अपने
दोनों बच्चों की चिंता खाए जा रही थी। वह उनकी एक झलक देखना
चाहती थी। अरसा बीत गया था, उन्हें अपने रिश्तेदारों को सौंपे।
जेल में कई पुलिसकर्मियों को उसकी कहानी पता थी। वे सीमा से
हमदर्दी रखने लगे थे। मगर क्या केवल हमदर्दी उसके दर्द को कम
कर सकती थी। या एड्स जैसी बीमारी से निजात दिला सकती थी...!
कुछ भी तो नहीं हो सकता था। सोचकर वह फिर से अपने सिर को
घुटनों में छिपाकर बैठ गई। मानो वही एकमात्र तरीका हो। जिससे
वह इन तकलीफों को खुद से दूर होता महसूस करती है। सीमा नाम कब
और किसने रखा उसे नहीं मालूम, मगर क्या सच में उसने कभी कोई
सीमा तोड़ी थी। नहीं..!
वह तो बिन माँ-बाप की बेटी थी। मामा-मामी ने किसी तरह तेरह साल
की करने के बाद एक परिवार में उसका रिश्ता तय कर दिया था। नए
बरस की बेला में वह अपने पति के घर आ गई जहाँ उसने नए सपने
संजोए। जब शादी करके अपने पति के घर आ गई तो उसे लगा कि अब
सबकुछ ठीक हो जाएगा, वह प्राणपण से अपने परिवार को ऊंचा
उठाएगी। पति की इतनी सेवा करेगी कि वे कभी उसे खुद से दूर नहीं
करेंगे। मगर क्या जो हम सोचते हैं, वह होता भी है। उसका तो
मानो जन्म ही दुख को झेलने के लिये हुआ था। पति को शराब की
बुरी लत थी। एक दुकान थी किराने की, उसी से घर का खर्च चलता
था। दुकान से आई आधी रकम शराब में तो बाकी बची का अधिकांश
हिस्सा कर्ज चुकाने में चला जाता। दो जून की रोटी के लिये भी
परिवार संघर्ष कर रहा था। पहले दो साल इसी संघर्ष की आड़ में
निकल गए। इस दौरान एक साल के अंतर में दो बच्चों ने घर में
किलकारियाँ कर उसे खुशी का नया बहाना दे दिया था। पति की ओर से
उसे प्रेम या सहानुभूति कभी नहीं मिली। वह तो मानो शराब के
लिये ही जी रहे थे। बच्चों से भी कभी लाड़ दुलार जताते उसने
नहीं देखा।
हाँ, एक रिश्तेदार थी, उसकी बूढ़ी बुआसास। वह बाल विधवा थी। वह
अवश्य कभी कभार आकर उससे और बच्चों से प्रेम से बात कर लेती
थी। एक दिन पति गुमसुम से घर आए और चुपचाप पड़ गए। पूरे दिन
बोले नहीं। उसने पूछा तो जवाब नहीं दिया। दूसरे दिन तक चार
पाँच लोगों को घर के बाहर चिल्ला़ते हुए सुना। पति उन्हें
समझाने की विफल कोशिश कर रहे थे। पति ने उनके पास दुकान गिरवी
रख रखी थी और कर्ज की अदायगी नहीं होने के कारण वे नाराज थे।
आखिर फैसला हुआ, दुकान उन लोगों ने जब्त कर ली। पति हमेशा के
लिये घर आकर बैठ गए। शराब का क्रम पहले की तरह ही चलता रहा।
कमाई बंद हो चुकी थी। ऐसे में घर के सामान अब शराब की भेंट
चढ़ने लगे। बीवी बच्चों को खाना कैसे नसीब होगा। यह विजय ने
कभी सोचा भी नहीं। गहने तो उसके गरीब मामा-मामी ने उसे वैसे भी
नहीं दिए थे। शादी के समय तो गुजारा ठीक से चल जाता था, पर
अंतिम दो साल में ही यह स्थिति हो गई थी कि घर में सामान भी
गिनती के ही रह गए थे। तन ढकने को कुछ कपड़े और जरूरी बर्तन ही
बाकी थे। ढंग से खाना नहीं मिलने की वजह से बच्चे सूखकर काँटा
हुए जा रहे थे। वह अपनी ओर से घर से बाहर जाकर कुछ इधर उधर काम
करके कमाने की कोशिश करने लगी। मगर पति तो मानो ताक में बैठे
रहते। उससे रुपए छीनने को। गिद्ध की भांति उसकी कमाई पर नजर
गड़ाए बैठे उसके पति और उसके बीच चंद रुपयों को लेकर ऐसी
छीना-झपटी होती कि बच्चे भी सहम जाते।
बड़ा बेटा दो वर्ष का था, पर अपनी उम्र से मानो दोगुनी समझ
रखता था। चुपचाप आकर माँ के आँसू पोंछता मानो कह रहा हो, "तू
मत रो माँ, मैं हूँ ना ..."मगर ईश्वर को अब भी उस पर दया नहीं
आई थी। एक रात पति के साथ दो व्यक्ति आए। उसकी न सुनी जा सकने
वाली चीखें भी पति को पिघला न सकी। सुबह उसके पति के सामने
सिंदूर की कीमत उसके हाथों में रखकर दोनों ग्राहक लौट गए। विजय
ने सिसकती हुई सीमा के हाथ से पैसे छीन लिये। उनमें से कुछ
रुपए देकर बाकी बची कमाई को लेकर दारू के ठेके की ओर रवाना हो
गया। मजबूरी क्या नहीं करा देती। यह बात उस पर चरितार्थ हो रही
थी। हाथ में बचे हुए पैसों में उसे बच्चों का खाना दिखाई देने
लगा। कुछ ही दिनों में यह रोज का क्रम बन गया। उसने अब इसे भी
नियति मानना शुरू कर दिया था। मगर क्या ऐसी बातें छिपती हैं !
उसकी गली शहर के सबसे व्यस्ततम सड़कों में से एक थी।
यह बात धीरे धीरे सभी को मालूम हो गई।
पुलिस उसके घर आई और उसे वेश्या वृत्ति के जुर्म में पकड़कर
थाने ले गई। पति पहले ही गायब हो चुका था। सीमा को कोर्ट में
पेश किया गया, जहाँ उसे पाँच वर्ष के कारावास की सजा सुना दी
गई। बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। ऐसे में उसे
बच्चों को साथ रखने की छूट मिल गई। कठोर समाज की तुलना में जेल
की जिंदगी उसे कुछ आसान लगी। यहाँ उसे दो जून की रोटी और
बच्चों का साथ मिल रहा था।
क्या अब भी ईश्वर और प्रकृति उसके साथ थे...!" नहीं".... शायद
अभी भी नहीं। उसके किए कृत्यों का परिणाम अभी सामने आना बाकी
था। अचानक वह बीमार रहने लगी। उसे बार बार बुखार आने लगा। शरीर
की हल्की चोटों के घाव भी भर नहीं पा रहे थे। इन परेशानियों के
चलते जेल में हुए सामूहिक स्वास्थ्य परीक्षण में चिकित्सक ने
उसके लक्षणों का पूर्ण चेकअप किया। जो बताया उसे सुनकर उसके
पैरों तले धरती खिसक गई। उसे एड्स हो गया था। अब तो जैसे उसका
बचा-खुचा जीवन भी जीने लायक न रहा।
बड़ा बेटा चार और छोटा तीन साल का हो चुका था। वह उनकी देखभाल
ठीक से नहीं कर पाती थी। आखिर उसकी बुआसास जब उससे मिलने आई,
तो उसने उसे बच्चों को अपने साथ ले जाने की मिन्नतें की। वह
मान गई और बच्चों को अपने साथ ले गई। क्योंकि सीमा अब नहीं
चाहती थी कि उसके दुर्भाग्य का साया उसके बच्चों पर पड़े। शेष
जीवन अब उसे चुपचाप दबे छिपे रहकर मर जाना है। यही उसकी सोच बन
गई।
‘’सीमा जानती हो, ये लोग क्यों आए हैं?’’सामने खड़ी महिला
कांस्टेबल ने सहानुभूति भरे अंदाज में उससे पूछा।
सुनकर अज्ञात आशंका के साथ उसने घुटनों में रखा सिर ऊपर किया,
क्योंकि अभी तो वह जिंदा थी। सीमा नि:शब्द रही। कांस्टेबल ने
बताया कि यह लोग स्वास्थ्य संगठन की ओर से एक एन.जी.ओ. चलाते
हैं। जिसकी संचालिका वह महिला है, जिसके सामने अभी कुछ देर
पहले सीमा को ले जाया गया था। विमलाबेन नाम से वह जानी जाती
थी। विमलाबेन उन सभी महिलाओं की मदद करती, जो पुरुष की
ज्यादतियों का शिकार होकर जेल में जीवन जीने के लिये मजबूर हैं।
सीमा को तो इन सब जानकारियों से जैसे कोई लेना देना ही नहीं
था। हाँ, उसे आने वाले कल का नया सूरज अंदर ही अंदर दुख को याद
दिला रहा था। जिसे वह देखना ही नहीं चाहती थी।
मगर समय तो करवट लेता ही है।
नए साल की किरणें जैसे ही सलाखों को पार कर सीमा तक पहुँची,
उसे जेल से बाहर ले जाने का फरमान सुनाया गया। वह यंत्रवत उन
तीन-चार लोगों के पीछे पीछे चल रही थी। पहले वे लोग उसे कचहरी
ले गए। जहाँ वकील साहिबा ने उसकी सजा को जेल से हटवाकर
एन.जी.ओ. द्वारा चलाए जाने वाले आइसोलेशन में भेजने की पैरवी
की। अदालत ने सीमा को उसकी बीमारी और पहले अपराध को देखते हुए
एन.जी.ओ. के मार्फत मौका देने की दलील मान ली। अब सीमा को जेल
की बजाय एन.जी.ओ. के साथ रहना था। बच्चों की परवरिश की
जिम्मेदारी भी एन.जी.ओ. ने अपने ऊपर ले ली। अब बच्चे एन.जी.ओ.
की चारदीवारी में उसके साथ रह सकेंगे और स्कूल भी जा सकेंगे।
"सीमा का हम स्वागत करते हैं नववर्ष के दिन ...साथ ही आज हम सब
मिल कर नए साल के उपहार के रूप में एक नया कुटीर उद्योग शुरू
करने के लिये आपको एक राशि प्रदान करेंगे, जिससे आप अपना जीवन
यापन कर सकेंगी। यह आपको अपने व्यक्तिगत जीव और आपके बच्चों के
भविष्य के लिये आत्मनिर्भर बना देगा।" नववर्ष शब्द के साथ ही
सीमा की तन्द्रा भंग हुई क्योंकि नववर्ष और अपनी शादी की
वर्षगांठ के दिन उसने एन.जी.ओ. के कांप्लेक्स में प्रवेश
किया।
सीमा ने देखा कि लाल पत्थरों की चारदीवारी से घिरे खूबसूरत
आँगन में कई तरह के पौधे खिले थे। उसकी जिंदगी में पहली बार
रंगों और खुशबू ने दाखिला लिया था।
कई दिन बाद उसे सूचना मिली
कि उसका पति बुरे कामों में लिप्ततता के चलते पुलिस के हत्थे
चढ़ चुका था, और उसे जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया था।
विजय को अपने किये की सजा मिल चुकी थी। सीमा अपने जीवन के सत्रहवें
साल में पहली बार नए साल की उमंग को महसूस कर रही थी। |