बिना
अपने परिवारों को साँझा तल बनाए। अपनी आज़ादी को काम में लाते
हुए। कहना न होगा रश्मि सन सत्तर के दशक की उस पहली पीढ़ी की
सदस्या रही जिन की क्लास-टू नौकरी उन्हें न केवल किसी भी अजनबी
शहर में अपना डेरा डालने का अधिकार देती थी, वरन् उन्हें अपने
लिए क्लास-वन वर झपटने में सफलता भी। यह अलग बात है उस जैसी
लड़कियों के स्वयंवर असफल रहे। क्योंकि उनका ध्यान घर-गृहस्थी
के काम-काज की बजाए बाहरी निशानों और उलझनों पर अधिक केन्द्रित
रहा।
‘‘खुफ़िया विभाग से रिपोर्ट मिली थी रश्मि के विभाग में नक्सली
इकट्ठे होते हैं।” आलोक को अपने पास रोक रखने के लिए अपनी
मन-गढ़न्त में सनसनी की चुनट डालनी मेरे लिए जरूरी थी।
‘‘नक्सली?” आलोक सकते में आ गया, ‘‘जीजी के कॉलेज में?”
‘‘हाँ, तुम्हारे साथ इस बात का खुलासा करने का पहले कभी मौका
ही नहीं मिला। शायद तुम नहीं जानते रश्मि के विभाग में उसके
पास कुली-कबाड़ी भी बेरोकटोक कभी भी आ टपकते थे।”
“हरिगुण नक्सली था?”
‘‘इससे पहले कि मैं पता करता, वह भारत से गायब हो गया”, मेरी
चुगली ने कपोल-कल्पना में दूसरा गोता लगाया,‘‘फिर अभी कुछ साल
पहले उड़ती खबर मिली वह भारत लौट आया है और आपके कस्बापुर ही
में है”
‘‘आप उससे मिले क्या?”
‘‘नहीं, लेकिन मुझे यकीन है रश्मि के साथ उसने अपना मेल-जोल
फिर से बाँध लिया था।”
‘‘आप मुझसे क्या चाहते हैं?” आलोक खीझा। जटिल और टेक्ढे-मेक्ढे
रास्ते उसे गुस्सा दिलाते हैं।
‘‘उसका पता-ठिकाना?”
‘‘आप डी.जी. रैंक के अफ़सर हैं, किसी से भी उसका पता लगा सकते
हैं।”
“हरिगुण को मैं कोई नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। रश्मि का वह
प्रिय विद्यार्थी था। इसलिए पुलिस को तस्वीर से बाहर रखना
चाहता हूँ।”
‘‘उसकी कोई खास पहचान?”
‘‘वह अन्धा है और हमेशा काला चश्मा पहने रहता है।”
‘‘हरिगुण का पता लिखिए”, आलोक के कस्बापुर पहुँचने के चंद
दिनों ही में उसका फ़ोन आ गया।
अपनी बहन को मेरे उलाहने से छुटकारा दिलाने की उसे जल्दी थी।
‘‘पहले बताओ, भारत वह कब लौटा?”
‘‘भारत के बाहर वह कभी गया ही नहीं।” आलोक उत्तेजित हुआ, ‘‘ जब
तक उसकी माँ जीवित रही, उधर अमृतसर ही में पड़ा रहा। फिर नब्बे
में हुई उनकी मृत्यु के बाद इधर कस्बापुर के अपने भतीजे के पास
आन बसा।”
‘‘उसका अपना परिवार?”
‘‘नहीं है। भतीजे ने अपने घर ही में एक कंप्यूटर कोचिंग सेंटर
खोल रखा है। बस्तीपुर बस अड्डे के पास। घर के बाहर कंप्यूटर
कोचिंग का बोर्ड लगा है जिस पर आँखों से निर्योग्यजन को
कंप्यूटर सिखलाने की सुविधा के उपलब्ध होने की सूचना दर्ज़ है।
उसी बोर्ड से मैंने हरिगुण को पाया।”
‘‘रश्मि के बारे में बात हुई?”
‘‘हाँ, हुई। लेकिन हरिगुण ने बताया कि जीजी से सन इकहत्तर की
तेरह जून के बाद वह कभी नहीं मिला।”
सन् इकहत्तर की तेरह जून मेरी आँखों में आ तैरी...
‘‘आप कौन?” रश्मि के विभाग में वह मेरे वहाँ पहुँचने से पहले
बैठा है।
‘‘आप कौन?” मैं पूछता हूँ
उसकी हिमाकत मुझे हैरत में डालती है।
देखने में वह अल्लम गल्लम नज़ारा है, एक काले कीमती चश्मे ने
उसका एक तिहाई चेहरा ढाँप रखा है और दो तिहाई जो चेहरा नजर में
उतरता है वह निहायत मटियाला है, दो दिन की बेहजामती लिए है।
सिर के बेतरतीब बाल कंघी माँग रहे हैं। भूरे और सलेटी रंगों के
बीच की कोई रंगत लिए कमीज सिलवटदार है। सलेटी पतलून बेक्रीज
है। लेकिन चप्पल खस्ताहाल नहीं। नयी है और अच्छी चमक रही है।
उसके धूल सने पैरों से उसका मेल मिलाना मुश्किल है। हाँ, उसका
मेल रश्मि की पसन्द से जरूर मिलाया जा सकता है। बल्कि मेरी
सहजबुद्धि उसके चश्मे के खरीदार का नाम भी जान चुकी है...-
रश्मि। अब मुझे पता यह लगाना है कि रश्मि ने उसे ये दोनों
चीज़ें हमारी शादी से पहले लेकर दी थीं या बाद में।
‘‘ मैं हरिगुण हूँ।” वह अभी भी बैठा है।
‘‘मैं पुलिस हूँ।” मैं उसे धमकी देता हूँ।
“हमें रिहा कब करेंगे?” वह ठीं-ठीं छोड़ता है।
‘‘क्या हो रहा है?” तभी रश्मि अपने विभाग में आन दाखिल होती
है।
‘‘आपके मेहमान के साथ आप वाली फ़ैलेसी आव क्युसचन्ज (तर्काभास
के प्रश्न) का एक नमूना औंधा रहा था,” हरिगुण की ठीं-ठीं
दुगुनी तेज हो लेती है।
‘‘कौन सा? “ रश्मि मेरी तरफ़ देखती है। “हरिगुण मेरी एम.ए.वन का
स्टूडेन्ट है।”
‘‘वाइफ़ बीटिंग वाला”, हरिगुण अपनी मौज में बह रहा है, ‘‘ क्या
सवाल है? क्या फ़ैलेसी है? वैन डिड यू स्टॉप बिटिंग योर वाइफ़?
आप पूछते हैं जबकि पूछे जाने वाले आदमी ने शायद अभी शादी ही न
की हो या फिर अपनी पत्नी को पीटना शायद शुरू ही न किया हो या
फिर पीटना शायद शुरू कर भी दिया हो मगर अभी बंद न किया हो।”
‘‘क्या बक रहे हो?” उसका चश्मा उतार कर मैं अपने हाथ में ले
लेता हूँ।
उसकी आँखों की आइरिस, परितारिका, में बहुत ज्यादा सफ़ेदी है।
‘‘आप क्या कर रहे हैं?” रश्मि हमारी ओर बढ़ आयी है।
‘‘आप कौन हैं?” हरिगुण मुझे ललकारता है।
उसकी बायीं आँख की पुतली उसकी नाक की तरफ़ मुड़ जाती है और
दायीं आँख की पुतली अपने साकेट में तेज़ी से चल-फिर रही है।
‘‘बड़ी-बड़ी बातें बनाते हो और दूसरे की खरीद पहनते हो?” मेरे
हाथ उसके कालर की ओर बढ़ते हैं।
“हरिगुण मेरा दोस्त है”, रश्मि हम दोनों के बीच आ खड़ी होती
है, ‘‘उसे ये चीज़ें मैंने दोस्ती में दी है।”
बौखलाकर हरिगुण का चश्मा मैं जमीन पर पटकता हूँ और रश्मि को
पीछे धकेल कर उसके विभाग से बाहर निकल आता हूँ। अपनी सरकारी
जीप में सवार होने हेतु।
रश्मि उस दिन घर रिक्शे से लौटती है।
रश्मि की तेरहवीं निपटाते ही मैं कस्बापुर पहुँच लिया।
हरिगुण से मिलने मैं अकेला गया।
उसे देखकर मैं हैरान हुआ, जिस हरिगुण को मैं सालों साल देखता
रहा था वह तो हरिगुण था ही नहीं... मेरी कल्पना का वासी ...
मेरे मन-मंडल का निर्मूल भ्रम... हरिगुण तो यह रहा, दईमारा,
फटेहाल, हतभागा... बूढ़ा, हड्डियों का ढाँचा... जिसके सिर के
बाल लगभग गायब हो चुके थे, जिसके चेहरे की बेहजामती ने एक घनी,
लम्बी दाढ़ी का रूप ले रखा था और जिसकी दाढ़ी के आधे से ज्यादा
बाल सफ़ेद थे, जिसकी बनियान-नुमा टी-शर्ट बिजूखी जैसी बेचरगी
उसकी क्षीण बाहों को और झुर्रीदार, झुकी गरदन को उघाड़ रही थी,
जिसकी सस्ती, नीली जीन्ज़ बदरंग हो चुकी थी, जिसके पैरों में
मटियाले, खाकी रंग के कपड़े के जूत थे, बिना मोज़ों के।
कंप्यूटर सेन्टर के एक कोने में वह अकेला बैठा था। कंप्यूटर का
स्पीकर बोल रहा था
“द औक्सन पास अंडर द योक एंड द ब्लाइंड आर लेड एट विल बट अ मैन
बौर्न फ़्री हैज अ पाथ आव हिज ओन एंड अ हाउस औन द हिल…”
(गाय बैल जुए के नीचे गुजर करते हैं। अंधों को दूसरे अपनी
इच्छानुसार चलाते हैं। लेकिन आज़ाद पैदा हुआ शक्स मालिक होता
है, अपने रास्ते का और पहाड़ी पर बने मकान का)
‘‘रश्मि के कंप्यूटर पर भी यह रहा” मैंने कहा।
इधर कुछ सालों से रश्मि अपने दर्शन-शास्त्र के क्लास नोट्स
कंप्यूटर पर तैयार करने लगी थी और कंप्यूटर की ‘हिस्ट्री’ चेक
करते सम‘ मेरी नजर से ये पंक्तियाँ गुजर चुकी थीं।
‘‘आप?” हरिगुण अपनी कुर्सी से उछल लिया। उसके हाथ अपने काले
चश्मे पर जा टिके। यह चश्मा उसकी तंगहाली का एक और सुबूत था।
उसकी एक कमानी टेढ़ी हो चुकी थी और दूसरी एक कामन पिन के सहारे
चश्मे के शीशे वाले हिस्से से सम्बद्ध की गयी थी।
‘‘ये रश्मि ने भेजी?” मैंने उसे टोहा।
‘‘क्या ?” वह काँपने लगा।
‘कंप्यूटर की ये पंक्तियाँ?”
‘‘नहीं! नहीं! तब कंप्यूटर कहाँ था? बहुत पहले जब वे अमृतसर
में पढ़ाती थीं तो उन्होंने सन चालीस में छपे हर्बर्ट रीड के
पैंतीस कविताओं वाले संग्रह में से यह कविता हमें सुनायी थी।”
‘‘किस सिलसिले में?”
‘‘अराजकतावाद पर दिए अपने लेक्चर के दौरान उन्होंने हमें बताया
था रीड की इस कविता को स्पेन के अराजकतावादी मिलकर गाया करते
थे।”
‘‘आपकी उम्र तब कितने साल थी?” अपने नरक-दूत की उम्र जाननी थी
मुझे।
‘‘जब वे पढ़ाती थीं तो लगता था मेरी उम्र पूरी मनुष्य जाति की
उम्र के बराबर है- सुकरात के बराबर है... अरस्तु के बराबर है।”
‘‘मैं आपके बर्थ सर्टिफिकेट वाली उम्र की बात कर रहा हूँ।”
मैंने उसे बहकने से रोक दिया।
‘‘बीस साल।”
‘‘यह दाढ़ी कब रखी?”
‘‘सोलह- सत्रह साल पहले। माँ को खोने के
बाद।”
‘‘अपनी एम.ए. पूरी की?”
अमृतसर का वह पी.जी. कॉलेज रश्मि ने उसी साल छोड़ दिया था मेरी
पोस्टिंग बदल जाने के कारण।
‘‘नहीं।” वह अचानक रोने लगा। दोनों हाथों से अपने चेहरे को
ढाँपकर। अपना सिर नीचे झुकाकर।
तभी मेरी आँखों ने एक अजीब, अजानी चुभन महसूस की। यह जानने में
मुझे समय लगा कि वे भी बरसना चाहती थीं... बरस रही थीं...
लेकिन जान लेते ही मैंने वह बौछार रोक दी। तत्काल।
‘‘अराजकतावाद का युग अब खत्म हो गया है” उसे सामान्य दशा में
लौटाने के लिए मैं वह नुस्खा अमल में ले आया जो रश्मि के साथ
हमेशा सफल सिद्ध होता रहा था। खिन्न से खिन्न मनोदशा में भी
रश्मि दर्शन शास्त्र के किसी भी विषय पर वाग्युद्ध करने के लिए
तैयार हो जाती थी। मुझे आज भी ऐसा लगता है रश्मि की आत्महत्या
वाले दिन अगर मैं उसे वाद-विवाद में उलझाए रहा होता तो वह
दुर्घटना टल गयी होती।
‘‘खत्म कैसे हुआ?” मेरी जुगत कारगर रही थी हरिगुण ने रुलाई
रोककर बहस शुरू कर दी, ‘‘खत्म हुआ होता तो साठ के दशक के
हालैण्ड के ‘प्रौवोस’ और अड़सठ की पैरिस ‘इनसरैक्शन’ के ‘लेदर
जैकेट्स’ बगावत कर रहे पैरिस यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी जैसे
युवा आज नेपाल में कैसे दिखाई देते? माओवादी आर-पार की अपनी
लड़ाई क्यों जीते होते?”
मैं हल्का हुआ। मुझे हँसी भी आई... हरिगुण पर... रश्मि पर...
दर्शन-शास्त्र पढ़ने-पढ़ाने वालों की चौकी-दौड़ पर। अराजकता की
इमदादी गाड़ी पर।
हरिगुण से वह मेरी आखिरी भेंट थी।
उसके बाद वह मुझे कभी दिखाई नहीं दिया। |