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मैं घर के अंदर दाखिल हुई ही थी कि देखा चिल्की
खिल खिल करती कमरे में चक्कर काट रही है और उसके सिर के ऊपर एक
बर्रेनुमा कुछ मंडरा रहा है। पास आई तो देखा, वह बर्रा नहीं,
एक बड़ी सी मधुमक्खी थी। सामने बाल्कनी के काँच के दरवाजे़ बंद
थे और वह मक्खी काँच के आर पार दिखती रोशनी से धोखा खाकर, बाहर
खुले में निकल भागने की कोशिश में बार बार काँच के दरवाज़े से
टकरा जाती। ‘‘क्या हो रहा है, चिल्की!’’ मेरे मुँह से एकदम
निकला, ‘‘काट लेगी! हट जा!’’ चिल्की ने तो नहीं, मक्खी ने सुन
लिया और थक-टूट कर लकड़ी के उस टुकड़े पर जा बैठी जिसे एअर
कंडीशनर का खोल बंद करने के लिये लगाया गया था और उस पर करीने
से वारली का डिज़ाइन आँका गया था कि वह एअरकंडीशनर का खाली खोल
न लगकर चित्रकारी का नमूना दिखे।
‘‘दादी, सो क्यूट ना?’’ चिल्की उसे निहारती रही, ‘‘ कित्ती देर
से मेरे साथ खेल रही है ! ’’
मैंने उसके बोलते होंठों पर हथेली रख उसे चुप करवाया और सोफे
पर उसे बिठाकर बहुत आहिस्ता बैठक के कोने कोने से सरकते हुए
बिना आवाज़ किए आगे बढ़ी कि दरवाजा आहिस्ता से सरका कर खोल दूँ
कि तभी वह मक्खी फिर उड़ी और मेरे कान के पास से भुन भुन करती
हुई गुज़र गई। मैं अपना सिर बचाती झुक कर वापस सोफे पर आ बैठी।
चिल्की मज़ा ले रही थी कि दादी कैसी बुद्धू है, एक मक्खी से हार
जाती है। वह होंठ भींचकर फिसफिसाकर हँस रही थी। |