कभी-कभी
ही खोलता हूँ। उस दिन जब खोला तो मेरे पेज पर उसका मैसेज मेरी
ओर रहस्यमय ढँग से देख रहा था। आठ मई को भेजे गए उस मैसेज में
उसने अँग्रेजी में लिखा था - मैं दस मई को दिल्ली आ रही हूँ।
अपना मोबाइल नम्बर दो, पहुँचने के बाद सम्पर्क करूँगी।
तकरीबन छह महीने पहले फेसबुक पर वह मेरी दोस्त बनी थी। उसके
साथ अधिक तो कुछ शेयर नहीं हुआ था, बस चैट पर कुछ हाल-चाल, दो
चार कमेन्ट्स और परिवार में बारे में मामूली जानकारी। बातचीत
कभी नहीं हुई जो न मैंने महसूस की और न उसने। वह कैलिम्पोंग,
पश्चिम बंगाल में रहती है, वहाँ के किसी अस्पताल में काम करती
है, शादीशुदा है, दो बच्चे हैं।
क्या संयोग था कि उस दिन दस तारीख थी। उसने तारीख तो बता दी,
समय नहीं बताया, सुबह, दोपहर, शाम, रात। वह आज इस शहर में है
क्योंकि अब रात हो चुकी है और शायद वह अपने मैसेज का वो जवाब
देख चुकी होगी जो उसे भेजा ही नहीं गया। और वह मेरे बारे में
कोई भी बुरा अनुमान लगा चुकी होगी? मुझे बड़ा अजीब सा लगा, वह
दिल्ली में है मेरे अपने शहर में और मैं उसका पता नहीं जानता।
वह मेरे शहर में साँस ले रही है और मैं उसका पता नहीं जानता।
उसे भी वो हवा छू रही होगी जो मुझे छू रही है और मैं उसका पता
नहीं जानता। मैंने तुरन्त मैसेज का उत्तर दिया था यानि अपना
मोबाइल नम्बर लिख भेजा। पर मुझे लग रहा था कि मेरा यह उत्तर
अपना अर्थ खो चुका है।
उस रात मैं बिल्कुल नहीं सो
पाया। मोबाइल सिरहाने खामोश पड़ा रहा जैसे उसका मुझसे, उससे और
कैलिम्पोंग से कोई सम्बन्ध न हो। कितनी अजीब बात है कि जब वह
मेरी मित्र बनी थी तब मैंने उसके बारे में कभी नहीं सोचा था
क्योंकि फेसबुक पर बहुत से अनजान लोग मित्र बन जाते हैं जो
हमारी मित्र सूची की संख्या तो बढ़ाते हैं लेकिन हम उनसे कभी
बात नहीं करते और न ऐसी कोई जरूरत ही समझते हैं और आज जब वह
मेरे शहर में है तो सारी रात उसी के बारे में सोचता रहा, बेचैन
रहा। एक बेहूदा-सा ख्याल भी आया, क्या वह भी मुझे याद कर रही
होगी? इतनी ही बेचैनी से?
मैं फिर डिपार्चर लाउन्ज में था। सुबह सात बजे उसका फोन आया
था, पहली बार। सुबह के मेरे अलसाएपन को उसकी आवाज ने झिंझोड़ कर
भगा दिया था। मेरे भीतर एक अजीब सी हलचल मचा दी थी।
‘मैं अभी दिल्ली एयरपोर्ट के लिए
निकल रही हूँ। मेरी बागडोगरा की फ्लाइट सवा ग्यारह बजे की है।
मेरे पास एक डेढ़ घण्टे का समय है क्या मेरा फेसबुक फ्रैण्ड
मुझसे मिलने एयरपोर्ट आ सकता है?’
क्या कुछ कहा जा सकता था सिवाय हामी के?
आखिरकार, वह मुझे दिखाई दी। सबसे पहले टैक्सी के खुले दरवाजे
से जींस में मौजूद उसका पैर बाहर आया। पाँवों में प्यूमा की
सैन्डिल। फिर वो चेहरा, जिसे देखने के लिए मैं दस तारीख की
सारी रात जागता रहा था। उत्तर पूर्वी लड़कियों से कुछ अलग पर
वैसी ही मासूमियत और आँखों में वैसी ही निर्विकारता। वह
खूबसूरत तो नहीं थी पर साधारण भी नहीं थी, वह सिर्फ विशेड्ढ
थी, आज, मेरे लिए।
मैंने एक सुकून भरी साँस ली। लेकिन वह अकेली नहीं थी। उसके साथ
दो बच्चे थे। एक लड़का और लड़की। लड़की बड़ी थी शायद दस या ग्यारह
साल की और लड़का छह या सात का। अभी उसने मेरे लिए आस पास देखना
शुरू नहीं किया था। वह सामान उतारने में व्यस्त थी।
बिल्कुल यही क्षण था जिसमें मुझे आगे बढ़ना था, न कि वहीं बुत
बना खड़े रहना था।
‘हैलो?’, मैंने उसके पास जाकर धीमे से कहा। अपना बैग जमीन पर
रखते हुए वह चौंक गयी और उसने मुझे कोरे अजनबीपन से देखा। मुझे
ठीक से देखकर भी पहचान के चिन्ह उसकी आँखों में नहीं आए थे।
मैं यही अनुमान लगा पाया कि वो यहाँ थी ही नहीं।
बड़ी दुविधा भरी स्थिति थी। लैपटॉप का बैग थामें, जिसमें लॉफिंग
बुद्धा का पैकेट था जो मैंने उसके लिए खरीदा था, एयरपोर्ट की
जमीन पर मैं विचित्र बेचैनी से उसे देख रहा था।
‘मैं आपका फेसबुक फ्रैण्ड। आपने मुझे फोन किया था।’
‘ओह, आइम रियली सॉरी। मेरे दिमाग से बिल्कुल ही उतर गया था।’,
एक छोटी सी मुस्कान उसके चेहरे पर आई। तभी मुझे वो दिख गया,
उसकी गर्दन के सिरे पर जहाँ कॉलर बोन के मिलने से जो गड्ढा
बनता है, उस गड्ढे के बीचो बीच में उभरा हुआ छोटा सा काला तिल।
जो उसे औरों से अलग बनाता था।
‘लाइये मैं मदद करता हूँ।’, मैंने कहा और कार की डिक्की से
सामान उतारने लगा।
उसने न विरोध किया न ही समहति दी बस असमंजस में खड़ी मुझे देखने
लगी। दोनों बच्चे सामने लगी सामान के लिए ट्रॉली ले आए थे। मैं
उनकी ओर देखकर मुस्कराया परन्तु वे परिचय के दायरे में दाखिल
नहीं हुए।
‘बच्चों, ये मेरे फेसबुक फ्रैण्ड हैं, यहीं रहते हैं, मुझसे
मिलने आये हैं।’, उसने सन्तुलित शब्दों में बच्चों से मेरा
परिचय कराया। बच्चों ने लक्ष्मण रेखा बनाए रखी।
टैक्सी वाले को किराया देने के बाद अपने सामान और बच्चों के
साथ खड़ी उसने पहली बार मेरी आँखों में झाँकते हुए मुस्कराकर
पूछा, ‘सो, माई फ्रैण्ड, हाउ आर यू?’
‘मैं ठीक हूँ पर क्या आप ठीक हैं?’, मैंने पूछा।
‘अगर सच कहा जाए तो नहीं। मैं बिल्कुल ठीक नहीं हूँ।’, उसकी
आवाज डूबी हुई थी।
‘अभी चैक इन करने में टाइम है। क्यों न हम कहीं बैठ जाएँ?’,
मैंने हिचकते हुए कहा।
उसने आसपास देखा। मैं उसका मंतव्य समझ गया।
‘एराइवल लाउन्ज में बैठने की जगह है। वह नीचे है, वो सामने।’,
मैंने उसे इशारे से दिखाया।
उसने सहमति में सिर हिलाया। सामान उठाए हम चारों नीचे एराइवल
लाउन्ज में आ गए।
हम दोनों एक दूसरे के नजदीक बैठ गए। दोनों बच्चे उसी गिफ्ट शॉप
के पास चले गए जहाँ से मैंने उसके लिए लॉफिंग बुद्धा खरीदा था
जो अभी भी मेरे लैपटॉप बैग में रखा था। उसे देने का अभी उचित
समय नहीं आया था। उसके गोरे चेहरे पर तनाव की रेखाएँ थीं और
उसकी धँसी हुई आँखों में पीड़ा। क्या हुआ है उसके साथ? मुझे बात
करने का सिरा नहीं मिल रहा था। तभी वह बोली, जैसे मुझसे नहीं
खुद से कह रही हो।
‘मैंने कहीं सुना था जो मुझे याद रह गया कि हमारा कोई भविष्य
नहीं होता। हमारा वर्तमान ही हमारे भविष्य को निर्धारित करता
है। वर्तमान में किये जा रहे कामों के परिणामों और
दुष्परिणामों का जो रूप है वही भविष्य है। लेकिन फिर भी हम जिस
छलावे के पीछे भागते हैं उसी में अपना भविष्य खोजते हैं पर हाथ
कुछ नहीं आता।’
मैं समझ नहीं पाया वो क्या कहना चाह रही है। वह हिन्दी अच्छी
बोल लेती है। मैंने उसकी प्रोफाइल में देखा था कि वह हिन्दी,
अंग्रेजी, नेपाली और बांग्ला भाड्ढाओं की जानकार है।
‘मैं बच्चों के लिए कुछ लेकर आता हूँ।’, मैंने कहा और उठ खड़ा
हुआ।
‘रुको। कल रात तक मैं निश्चिन्त नहीं थी आपसे मिलने के लिए।
मुझे जरूरत नहीं लग रही थी मगर रात में ऐसा कुछ हुआ कि उन
लोगों ने मुझे रात में ही जाने के लिए कह दिया, तब मुझे आपका
ध्यान आया कि दिल्ली की आखिरी रात अपने दो बच्चों के साथ मैं
सिर्फ आपके पास ही जा सकती हूँ क्योंकि और कोई नहीं था मेरा
यहाँ। फिर उनसे रिक्वैस्ट कर मैंने फेसबुक एकाउन्ट खोलकर आपका
मोबाइल नम्बर नोट किया। बट फाइनली, रात बीत ही गयी। लेकिन आपसे
मिलना लिखा था और मैंने सुबह होते ही आपको फोन कर दिया।’, तनाव
का कुछ हिस्सा उसके चेहरे से उड़कर हवा में घुल गया और वो हवा
मेरी साँसों के साथ मेरे भीतर चली गयी।
‘कौन थे वे लोग, जो आपको रात में ही चले जाने के लिए कह रहे
थे?’, मुझे लगा मेरी आवाज रुँआसी हो गयी है।
‘कौन थे वे लोग...?’, उसने धीरे से दोहराया, ‘...वे लोग...उनके
परिवार वाले थे।’
‘किनके?’, मैं पूछना चाह रहा था मगर प्रश्न मेरे भीतर से नहीं
निकला क्योंकि वह यहाँ नहीं थी। वह शायद वहीं लौट गयी थी जहाँ
से अभी आ रही है। मैंने सोचा था कि उससे पहली मुलाकात बहुत
अच्छी होगी। मेरे लिए शायद हमेशा के लिए यादगार मगर जैसा हम
सोचते हैं वैसा कहाँ होता है?
‘आपने कुछ कहा?’, कुछ क्षण पश्चात उसने चौंककर मेरी ओर देखा।
‘मैं कह रहा था कि आप और बच्चे कुछ लेंगे, चाय, कॉफी वगैरहा।
शायद आपने सुबह से कुछ नहीं खाया।’
वह कुछ देर चुप रही, फिर बोली, ‘मैं बच्चों से पूछकर आती हूँ।
आपके सामने पूछूँगी तो वे शायद बता न पाएँ।’, वह उठी और बच्चों
के पास चली गयी।
मैं अकेला उसके सामान के पास बैठा रहा। सोचने के लिए मेरे पास
कुछ नहीं था क्योंकि सोचने के रास्ते में वो खड़ी थी। तभी मेरा
मोबाइल बजा, पत्नी का फोन था।
‘हैलो।’
‘एयरपोर्ट पर ही हो?’, उसने पूछा।
‘हाँ।’
‘आ गयी आपकी पहाड़न?’, वह मेरी इस दोस्त को मजाक में पहाड़न कहती
है। दस तारीख की बेचैनी वाली रात को ही उसने उसका नामकरण कर
दिया था।
‘हाँ। आ गई।’
‘हाय राम! क्या मैंने आप दोनों को डिस्टर्ब कर दिया?’, उसने
खिलखिलाते स्वर में कहा।
‘वो पहले से ही डिस्टर्ब है। मैं बाद में बात कँरू?’, मैंने
पटाक्षेप करते हुए कहा।
‘कोई सीरियस बात है क्या?’
‘हाँ। बाद में बताता हूँ।’
‘ठीक है।’, उसने कहा और फोन काट दिया।
वह लौट आई। बच्चे भी उसके साथ थे।
‘बच्चे आपके साथ जाने के लिए तैयार हैं। ये अपनी पसन्द की चीज
लाएँगे।’, अब उसका चेहरा धुल सा गया था। तनाव की काली छायाएँ
कहीं छिपकर बैठ गयीं थी।
दोनों बच्चे मेरे साथ चल दिये। दोनों अपनी माँ पर गए थे, वैसा
ही गोरापन, वैसी ही मासूमियत। बच्चे अपना सामान लेकर तुरन्त
अपनी माँ के पास चल दिये। मैंने उसके लिए कॉफी और सैंडविच
लिया। मैं वापस आता हुआ उसे देख रहा था। बच्चों की खुशी से वह
भी खुश दिख रही थी। जब मैंने उसे कॉफी और सैंडविच दिया तो
मैंने उसके चेहरे को नहीं देखा। मैंने उसके कॉलरबोन के गड्ढे
के तिल को देखा। मेरी तीव्र इच्छा हुई कि मैं उस तिल को अपनी
जीभ से स्पर्ष करूं मगर जितनी तेजी से ये विचार मेरे मन में
आया था उतनी तेजी से ही मैंने उसे झटक दिया। मिथ्या इच्छाओं से
कुछ हासिल नहीं।
‘आप...?’, उसने हिचकते हुए दोनों चीजें पकड़ी।
‘मैं ब्रेकफास्ट करके आया हूँ।’, मैंने कहा, ‘आप खाइये, मैं
अभी आया।’
मैं फिर उसी काउन्टर पर आया और दोनों बच्चों के लिए चॉकलेट
खरीदी। मैं दूर से उन्हें देख रहा था। बच्चे शरारत करते हुए खा
रहे थे और वो वात्सल्य भाव ने दोनों को देख रही थी। उसने
ब्राउन टीशर्ट पहनी थी, उससे उसके चेहरे का गोरापन और बढ़ गया
था और चमक भी।
चॉकलेट मिलने से बच्चे और खुश हो गए। दोनों लाउन्ज में खेलने
चले गए।
‘आपके पति साथ नहीं आए?’, मैं बातचीत का सिरा टटोलता हुआ आगे
बढ़ा।
उसने गर्दन मोड़कर मेरी ओर तनिक आश्चर्य से देखा जैसे बहुत
गैरजरूरी सवाल पूछ लिया हो। गर्दन मुड़ने से उसके गड्ढे की
हड्डी उभर आई थी और उसका तिल तिरछा होकर मुझे दिखाई दे रहा था।
‘मैं यहाँ अपने पति से ही मिलने आई थी।’, उसने धीमे स्वर में
कहा, ‘वे मृत्यु शैया पर हैं।’
उसके आखिरी पाँच शब्दों ने मेरे भीतर विस्फोट कर दिया और सब
चिथड़ा-चिथड़ा हो गया। मुझसे कुछ नहीं कहा गया। क्या? कैसे?
क्यों? कुछ भी नहीं। कुछ बातें हैं जो हम सिर्फ बीच से सुनते
हैं, न हमें उसके आरम्भ का पता होता है और न अन्त का।
‘कैंसर हो गया उसे, गले का कैंसर। अब तो बोल भी नहीं पाता।
किसी भी टाइम वो मर सकता है।’, वह भावशून्य स्वर में कह रही
थी, ‘उसी ने मुझे यहाँ बुलाया था कि मैं आखिरी बार उसे देख
लूँ। मैं भी उसे आखिरी बार देखना चाहती थी। उसे तड़पते हुए मरता
देखना चाहती थी।’
‘क्या हुआ ऐसा? मेरा मतलब है, वो आपके साथ क्यों नहीं रहते?’
‘कैसे रह सकता है वो मेरे साथ? उसका यहाँ परिवार है, मुझसे
शादी करने से भी पहले का परिवार। मुझसे तो बारह साल पहले शादी
की थी लेकिन वो तो बीस साल पहले से शादीशुदा था। मैं तो प्यार
में मर गयी थी मगर वो अपने झूठ और फरेब में जिन्दा रहा, हमेशा।
और आज वो सचमुच मर रहा है। अच्छा है, मैं पूरी तरह मुक्त हो
जाऊँगी।’
‘मौत के इतने करीब व्यक्ति के लिए आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए।’,
कुछ बातें हैं जो मैं नहीं कहना चाहता हूँ मगर न चाहते हुए भी
वे बातें मुँह से निकल पड़ती हैं जिसके लिए मुझे बाद में पछताना
पड़ता है।
तभी उसके मोबाइल फोन में मैसेज टोन बजी। अपने हाथ में पकड़े फोन
को आँखों के दायरे में लाकर वह मैसेज पढ़ने लगी। वह होंठ हिलाकर
पढ़ रही थी। मैं उसकी बगल में बैठा उसके हिलते होंठो को देख रहा
था। जैसे एक जादू बन रहा था चाहत का जादू कि उसके हिलते होंठो
की थिरकन मेरे होंठो पर आ जाए, पर ये जादू का पल बहुत अल्प समय
का था, टूट गया और मुझे लगा कि शायद ऐसे ही किसी जादू के पल
में उसके पति ने इससे झूठ बोलकर शादी कर ली होगी।
‘आप जानते नहीं उसके बारे में, इसलिए ऐसा कह रहे हैं।’, एक
फीकी मुस्कराहट से उसके होंठ रंग गए जो अभी पिछले क्षण हिल रहे
थे, ‘इनका कलकत्ता में हॉस्पिटल इक्विपमेंट का बिजनेस है। मेरे
हॉस्पिटल में भी ये आया करता था, वहीं मेरी इससे पहचान हुई और
बाद में शादी। जब मेरी बेटी पैदा हुई तब मुझे मालूम हुआ कि ये
तो बहुत पहले से शादीशुदा है लेकिन अपनी फरेबी कहानियों से वह
मुझे बहलाता रहा। मुझे नौकरी नहीं छोड़ने दी और मुझे वहीं रहने
के लिए मजबूर किया जबकि मैं उसके साथ उसके घर में दिल्ली में
रहना चाहती थी मगर मैं बेवकूफ बनती रही, बनती रही।’, उसने एक
गहरी साँस छोड़ी जो वह पता नहीं कितनी देर से अपने भीतर जमाकर
बैठी थी।
मैं कुछ नहीं बोला, बस उसके चेहरे पर आती जाती रेखाओं को देख
रहा था।
‘कहते है कि औरत को समझना बहुत मुश्किल होता है लेकिन मैं कहती
हूँ कि आदमी को समझना तो उससे भी अधिक मुश्किल होता है। मैं तो
किसी भी आदमी को नहीं समझ पाई। अपने पिता तक को नहीं।
पता है, जब मैं बहुत छोटी थी और
हम लोग गंगटोक में रहते थे, वहाँ मेरे पास ढेर सारी गुड़ियाँ
थीं...।’, मुझे लगा, वह अतीत के जंगल में घुस गई है क्योंकि
उसकी आँखें ठहर गयीं थी और चेहरा स्थिर हो गया था, सिर्फ उसके
होंठ हिल रहे थे, ‘...मेरे पिता और चाचा नेपाल, तिब्बत, भूटान
जाते थे तो वहाँ से मेरे लिए गुड़िया लेकर आते थे। फिर हम लोग
कैलिम्पोंग चले गए। उस दौरान मेरे पिता ने मुझसे कहा था कि
उन्होंने मेरी सारी गुड़ियाँ रख ली हैं मगर उन्होंने मुझसे झूठ
कहा था। उन्होंने सब की सब वहीं गंगटोक में छोड़ दी थीं कबाड़
समझ कर। मैं कई दिनों तक रोती रही थी और सामान में अपनी
गुड़ियाँ खोजती रही थी। इतने प्यार करने वाले मेरे पिता ने
मेरा दिल दुखाया था और क्यों दुखाया था ये मैं आज तक नहीं जान
पाई। और आज जो अपने कर्मों को फेस कर रहा है, वह समझता है कि
मुझे यहाँ उसका प्यार खींच लाया है। प्यार...ये प्यार भी बड़ी
कमीनी चीज होती है। क्यों?’
‘पता नहीं।’, मैंने अनिश्चय स्वर में कहा। पता नहीं, प्यार
कमीनी चीज है या नहीं लेकिन ये मैं अभी भी नहीं समझ पाया था कि
मुझे यहाँ क्या खींच लाया था? दोस्ती, एक अजनबी सी फेसबुक की
दोस्ती या एक औरत से मिलने का लालच या किसी औरत से नजदीकियाँ
बढ़ाने का अवसर या...?
जब हम दूर बैठे किसी के बारे में सोचते हैं तो ऐसा लगता है दूर
बैठा व्यक्ति सचमुच सुखी होगा, खुश होगा, हमसे बेहतर जिन्दगी
जी रहा होगा, उसे दुख छू भी नहीं गया होगा मगर आज जो मेरे
सामने बैठी है वह दुख की सबसे बड़ी मूर्ति लग रही है। दुख सभी
को होता है, पर कहीं साफ और चमकदार होता है तो कहीं धुँधला,
मुरझाया हुआ। क्या मैंने कभी उसके बारे में ऐसा सोचा था?
‘एक बात और। आप दिल्ली वाले हमारे बारे में क्या सोचते हो? हम
कैरेक्टरलेस होती हैं क्या? वो बिच, मेरे बारे में कह रही थी
ये चिंकी लड़कियाँ बहुत ओपन होती है, इनका कोई कैरेक्टर नहीं
होता, किसी के साथ भी...।’, पहली बार मैंने उसके चेहरे पर
गुस्सा देखा।
दुखी होने से गुस्सा होना ज्यादा अच्छा है, उससे चेहरे की चमक
और स्मार्टनेस बढ़ जाती है। दुख खुद को और सामने वाले दोनों को
ही बेचैन कर देता है।
‘...हम नार्थ ईस्ट की लड़कियाँ को कोई इण्डियन ही नहीं समझता।’,
वह अभी भी रोष में बोल रही थी।
‘गलत समझते हैं लोग।’, कुछ कहने की वजह से मैंने कहा।
‘और आप क्या समझते हो मेरे दोस्त?’, उसने फिर गर्दन मोड़कर मेरी
ओर देखा।
मैं अचकचा सा गया। मैंने एक क्षण उसकी आँखों में देखा, अगले
क्षण उस तिल को और उससे अगले क्षण कहीं नहीं देखा।
‘मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा।’, मैंने जल्दी से कहा, ‘और आज आपसे
मिलने के बाद तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता। कोरा अनुमान लगाना
और सच्चाई के साथ अनुमान लगाना दोनों अलग बातें हैं। मैं समझता
हूँ आप बिल्कुल अलग है। जब सुबह आपका फोन आया था और आपने बड़े
ही अधिकारपूर्ण ढँग से मुझे मिलने आने के लिए कहा तो मुझे
अच्छा लगा था। ऐसा महसूस हुआ कि आपकी मुझसे बरसों पुरानी पहचान
है और मेरे लिए आप नितान्त अजनबी। आपके कहते ही मैं तुरन्त चला
आया लेकिन शुरू से ही मेरे मन में नार्थ ईस्ट लड़कियों वाली
दुर्भावना नहीं थी।’
‘तो मैं ये समझूँ कि आप मेरे सच्चे दोस्त है, एक सच्चे
दोस्त?’, उसने कहा।
‘मैं खुद क्या कह सकता हूँ। ये आपकी भावनाओं पर निर्भर है। आप
ही मेरे बारे में बेहतर अनुमान लगा सकती हैं।’, मैंने ईमानदारी
से कहा।
उसने अपनी कलाई घड़ी में समय देखा।
‘अच्छा दोस्त, समय हो रहा है, दस बजने वाले है। मुझे चलना
चाहिये।’, वह उठ खड़ी हुई।
यही उचित समय था और आखिरी भी। मैंने अपने लैपटॉप बैग की चेन
खोलने के लिए उस पर हाथ रखा ही था कि उसके मोबाइल की मैसेज टोन
फिर बजी। मैं रुक गया। मैजिक मोमेन्ट फिर बनने वाला था और बना
भी। वह फिर होंठ हिलाकर पढ़ रही थी। ये शायद उसकी आदत थी। मगर
कुछ गड़बड़ थी, उसके हिलते होंठ एकाएक रुक गए, चेहरे के भाव बदल
गए और... और आँखों से आँसू बहने लगे।
‘कोई बुरा समाचार है?’, मैंने धीरे से पूछा।
‘अब मैं बिलकुल मुक्त हूँ। मर गया वो।’, उसने रुआँसे स्वर में
बताया।
वह सिसक रही थी और मैं बुत बन गया था। अब क्या कहा जा सकता था?
क्या कहूँ उसे? मेरे पास कोई शब्द नहीं थे जिससे उसे सान्तवना
दी जा सके। कुछ तो कहना ही था। मैंने उसके काँपते हुए कन्धे पर
हाथ रखा और कहा, ‘आपको उनके पास जाना चाहिए, उनके आखिरी दर्शन
के लिए।’
उसने गीले नेत्रों से मेरी ओर देखा।
‘नहीं।’, वह धीमे पर दृढ़ स्वर में बोली, ‘अब नहीं जा सकती।
वैसे भी वो लोग मुझे घर में घुसने नहीं देंगे। मुझमें लड़ने की
हिम्मत नहीं है।’
उसने अपने पर्स से रुमाल निकाला और आँसू पौंछने लगी। पोंछने के
बावजूद आँखों का गीलापन नहीं गया।
‘आइम गोइंग। चलो बच्चों।’
बच्चे असमंसज की स्थिति में उसे देख रहे थे लेकिन गम्भीरता ने
उनके चेहरों को भी जकड़ लिया था। अपनी माँ को रोते देख वे फौरन
उसके पास आ गए थे। हम फिर डिपार्चर गेट की ओर चल दिये।
चलते हुए मैं फेंगशूई में सौभाग्य का प्रतीक लॉफिंग बुद्धा के
बारे में सोच रहा था। उचित और आखिरी समय निकल चुका था। अब उसे
पैकेट देने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। क्या लॉफिंग बुद्धा की
ये बेजान मूर्ति किसी को वास्तव में वह खुशी दे सकती है जिसका
वह हकदार हो? क्या यह सचमुच किसी को सौभाग्य दे सकती है? आज
उसे मुक्ति मिल गयी, क्या यही उसका सबसे बड़ा सौभाग्य है? मेरे
पास कोई उत्तर नहीं था। मैं उसके सौभाग्य के बारे में सोच रहा
था मगर खुद मैंने कभी अपने सौभाग्य के बारे में नहीं सोचा था।
‘एक बात कहती हूँ जिसे मैं बिल्कुल अभी सोच रही हूँ कि एक्चुली
मैं यहाँ सैकड़ों किलोमीटर दूर आपसे अपना दुख शेयर करने आई थी न
कि उससे आखिरी बार मिलने।’
मैंने धीरे से अपना सिर हिलाया जो न हाँ था और न ना। पता नहीं
उसने क्या समझा? लेकिन उसने जो कहा वह सच था। वह सचमुच अपना
दुख शेयर करने आई थी। उस दुख से मुझे सराबोर करने आई थी। मैं
जो कहना चाहता था वो तो मैं कह ही नहीं पाया।
‘अच्छा, नमस्ते मेरे दोस्त। आपसे मिलकर अच्छा लगा। अब फेसबुक
पर मिलेंगे।’, आँसुओं से धुले चेहरे पर हल्की सी चमक आ गई थी
और होंठो पर बहुत हल्की मुस्कान। उसने मिलाने के लिए अपना हाथ
आगे बढ़ाया जो मैंने थामा और हल्का सा दबाव देकर छोड़ दिया।
‘जरूर। मुझे भी आपसे मिलकर अच्छा लगा, गुडबाय और गुडबाय
बच्चों।’
बच्चों ने मेरी ओर हाथ हिलाए। वह बच्चों और सामान के साथ
प्रवेश द्वार की ओर मुड़ गयी।
ये आखिरी बार था जब मैंने उस तिल देखा। मैं तिल के बारे में
उससे कुछ कहना चाहता था पर अच्छा हुआ जो नहीं कहा। न कही जाने
वाली कुछ बातें बाद में हमें सचमुच बहुत सुख देती हैं।
तभी अचानक एक विचार मेरे भीतर उठा। मुझे ‘दिलवाले दुल्हनियाँ
ले जाएँगे’ फिल्म का वो सीन याद आ गया जब काजोल प्लेटफार्म पर
चल रही होती है और पीछे शाहरूख खान उसके एक बार पलटकर देखने की
कामना कर रहा होता है। उसकी कामना सच हो जाती है। काजोल ट्रेन
पर चढ़ने से पहले उसे पलट कर देख लेती है।
क्या वह आखिरी बार मुझे पलट कर देखेगी? वह प्रवेश द्वार पार कर
गई। शीशे की दीवार के पार वह मुझे दिखाई दे रही थी। इतनी दूर
से वह मुझे बिल्कुल अजनबी लगी। उसकी टीशर्ट का ब्राउन रंग मेरी
आँखों से दूर होता जा रहा था। मेरी जान अटकी हुई थी। आखिरकार,
वह ओझल हो गई और उसने पलटकर भी नहीं देखा। रील और रियल में
शायद यही फर्क है।
न होने वाली कुछ घटनाऐं हमें हमेशा याद रह जाती हैं। सोचने के
साथ एक गहरी साँस छोड़ी और मुड़ गया। लॉफिंग बुद्धा का पैकेट
मेरे बैग में ही पड़ा रह गया। मुझे हल्की सी खुशी हुई कि उसे
कभी पता नहीं चलेगा कि मैंने उसके लिए सौभाग्य खरीदा था। |