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मेरे पास किताबों का अच्छा-खासा संग्रह था, जो मैंने समय-समय पर अपने पढ़ने के शौक के कारण खरीदे थे। जो उन्हें पढ़ना चाहता, उन्हें में देता रहता। इसीलिए प्रायः मेरे पास विभिन्न उम्र के लोग आया करते थे। मुफ्त की चीजों में सबकी रुचि रहती है। पर मुझे इसी बात की खुशी थी कि मुफ्त में ही सही, लोग मुझसे लेकर किताबें पढ़ रहे थे। इसलिए किताबों के लिए किसी का आना मुझे बुरा नहीं लगता था। मेरे कमरे का कैलेण्डर उनका अतिरिक्त मनोरंजन कर देता। बाद में मुझे पता चला कि यह कैलेण्डर ही कितने लोगों के आने का कारण बन गया था। कुछ ऐसे भी लोग थे जो सिर्फ कैलेण्डर देखकर चले जाते थे, किताबें नहीं लेते थे, कोई बहाना बना देते।

एक बुजुर्ग सज्जन आ आना इधर बढ़ गया था। मैं उन्हें चचा कहता था। चचा बड़े खुशमिजाज थे। हरदम हँसी-मजाक करते रहते। मगर मेरे कमरे में आते ही गम्भीर हो जाते थे। जितनी देर वे बैठे रहते, छिपी निगाहों से कैलेण्डर की गोरी को ढूँढ़ते रहते। उनका गोरा चेहरा धीरे-धीरे लाल होने लगता। महसूस होता कि वे आँच के सामने बैठे हों।

एक दिन मैंने भी चचा को कैलेण्डर की ओर घूरता पाकर मजाक में पूछ लिया, ’’चचा, क्या उधर कोई खास बात है ?‘‘
चचा बोले, ’’कितनी सुन्दर दीवार है!‘‘
मैंने कहा, ’’दीवार या और कुछ ?‘‘
चचा बोले, ’’दीवार है तभी तो और कुछ है।‘‘ कहकर वे हँसे। हँसने के बाद फिर गोरी को घूरने लगे। गोरी कैलेण्डर में थी इसलिए कुछ नहीं बोली, नहीं तो चचा कि आँखों में अजगर हिलते देखकर वह चचा को कहीं का न छोड़ती। पता नहीं आधुनिकाओं के तेवर से चचा कितने परिचित थे।
कुछ देर सन्नाटे में बीते, बस चचा के खाँसने और साँस लेने की आवाजों से सन्नाटा सिहर उठता था। मैंने उन्हें एक किताब देते हुए कुछ खीचकर कहा, ’’चचा, आपकी आँखें दर्द करने लगेंगी। नजर कमजोर पड़ जाएगी।‘‘

चचा अपनी परिचित मुसकान को मेरी ओर फेंकते हुए बोले, ’’मैं फालतू कुछ नहीं करता। अभी तुम लड़के हो, समझ नहीं पाओगे। यह नजर की वर्जिश है। इससे नजरें तेज होती हैं। लेकिन तुम जैसे जवानों को यह वर्जिश रास नहीं आएगी। ब्लडप्रेशर बढ़ने का खतरा भी हो सकता है।‘‘
मैंने पूछा, ’’और आप जैसे बुजुर्गों का ?‘‘
’’हम जैसों की बात और है,‘‘ चचा बोले, ’’हमारा प्रेशर लो रहता है तुम्हारे यहाँ आकर इस वर्जिश को करने से मेरा रक्तचाप सामान्य हो जाता है। एकदम नार्मल। अपने लिए यह वर्जिश फायदेमन्द है।‘‘
मैंने कहा, ’’गोया मेरा कमरा न हुआ आपका दवाखाना हो गया।‘‘
चचा शरारत से हँसे। बोले कुछ नहीं।
’’अब तो आपको फीस भी देनी पड़ेगी, चचा।‘‘
’’अरे लेन-देन की बात कहाँ से आ गयी।‘‘ चचा हड़बड़ाये।
’’आपकी आई और ब्लडप्रेशर की फीस।‘‘ मैं गम्भीर था।
चचा ने अपनी आँखें कुकुरमुत्ते की तरह करते हुए कहा, ’’बड़े शरारती हो।‘‘ फिर बोले, ’’मेरा मजाक तुम नहीं समझ पाये। अब जब तुमने ऐसा कैलेण्डर टाँग रखा है तो कुछ न कुछ कहा की जाएगा।‘‘
मैंने कहा, ’’चचा वाकई इस कैलेण्डर से आपकी तबीयत सुधरती हो तो इसे अपने घर ले जाइए। बुढ़ापे में यहाँ बार-बार आना नहीं पड़ेगा।‘‘ मैं कैलेण्डर उतारने के लिए आगे बढ़ा।

चचा घबराहट में उछल पड़े। बोले, ’’हैं हैं, यह क्या करते हो ? अब मेरी उम्र कमरे में ऐसा कैलेण्डर टाँगने की है ? मेरी बुढ़िया ने देवी-देवताओं के कैलेण्डरों से दीवार भर रखी है। मेरे हाथ में ऐसा कैलेण्डर देखेगी तो वह मुझे कहीं का न छोड़ेगी। ऐसी कैलेण्डर सुन्दरियाँ चलते-चलाते के लिए ठीक हैं, इससे ज्यादा के लिए नहीं।‘‘
जाते-जाते वे बोले, ’’तुम जैसे बैचलर को अपने कमरे में ऐसा कैलेण्डर नहीं टाँगना चाहिए। स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। अच्छा हो, इस पर एक दूसरा कैलेण्डर टाँग लो। चाहो तो मुझसे एक हनुमान जी का कैलेण्डर ले लेना।‘‘

वे चले गये। उनकी नसीहत पर मैंने ध्यान नहीं दिया। बड़ी मुश्किलों से मिला यह कैलेण्डर मेरे कमरे की शोभा था। उससे मेरी दीवार खिल गयी थी। मैं अपनी दीवार का दिल नहीं दुखाना चाहता था।

चचा कई दिनों तक नहीं आये। मैं चिंतित हो गया। पता चला कि ये मेरे यहाँ से जाने के बाद बीमार पड़ गये थे। उनका ब्लडप्रेशर बहुत हाई हो गया था। जब कोई चीज बहुत हाई हो जाती है तो चिंताजनक हो जाती है। हाई की हाय बहुत खतरनाक होती है। चचा से मेरी भेंट नहीं हो पायी क्योंकि डॉक्टर ने किसी के भी उनसे मिलने पर पाबन्दी लगा दी थी। वैसे भी में जब गया था तो चचा दवा के असर से सो रहे थे।
एक दिन एक लड़की मेरे यहाँ आयी। वह देखने में स्मार्ट थी पर अकेले आने के कारण वह सकुचायी हुई थी। परिचय से पता चला कि वह चचा की भतीजी थी। चचा ने उसे मेरी किताब लौटाने के लिए भेजा था। वह चचा के लिए चिन्तित थी। हाँलाकि चचा अब पहले से बेहतर थे।

मैंने पूछा, ’’चचा ने किताब पढ़ ली ?‘‘
’’नहीं वे तो पढ़ नहीं पाये पर मैंने जरूर पढ़ ली। अच्छी लगी। क्या आप के पास ऐसी और भी किताबें हैं ?‘‘
’’हाँ, है ढेर सारी हैं। असल में अपने पास पूरी लाइब्रेरी है।‘‘ ऐसा कहते हुए मेरी छाती चौड़ी हो गयी।
’’इतनी किताबें क्यों रखते हैं ? आपने सचमुच सब पढ़ ली हैं ?‘‘ उसके पूछने में चौंकना शामिल था।
मैंने कहा, ’’मुझे पढ़ना अच्छा लगता है। किताबें मेरी दोस्त हैं।‘‘
वह हँसने लगी।
मैंने इशारे से पूछा, ’’क्यों हँसी ?‘‘
’’यू ही!‘‘ उसका जवाब था।
’’फिर भी ?‘‘ कुछ उलझनवश मैंने पूछा।
’’हँसने वाली बात ही थी। कुछ लोग आदमियों से कम; चाँद-सितारों से ज्यादा अपनापन रखते हैं। वे सामने बैठे आदमी से बात नहीं करते मगर चाँद-सितारों से बातें करते हैं, पुस्तकों में जिन्दगी ढूँढ़ते हैं।‘‘ उसने बेधड़क ऐसा कहा तो मुझे कुछ सूझा नहीं।

मैंने अपने डूबने से उबरने के लिए कहा, ’’ये बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएँगी‘‘
वह हँसी। फिर बोली, ’’चाचा तो पढ़ नहीं पाएँगे। एक बढ़िया किताब मुझे ही पढ़ने के लिए दे दीजिए। सही-सलामत लौटा दूँगी।‘‘

मैंने क्षण-भर सोचा, फिर कहा, ’’तुम यहाँ रूको, मैं लाता हूँ।‘‘ यह कहकर मैं किताब लेने भीतर चला गया, जहाँ कई अलमारियों में मेरी किताबें सुरक्षित थीं।
मुझसे किताब लेकर जब वह ’थैंक्स‘ कहकर पलटी तो उसकी भी नजर उस कैलेण्डर पर पड़ी। वह चिहुँक उठी। मुझे आश्चर्य हुआ कि अभी तक उसकी नजर उधर क्यों नहीं गयी थी। उसका चेहरा भोर के आसमान जैसा हो गया। उसने कहा, ’’कितनी बेहूदी तसवीर है।‘‘ मेरे कुछ कहने के पहले ही वह कमरे से गेंद की तरह उछलकर भाग गयी।

मैंने उदास होकर खुद से कहा, ’’धत् तेरे की।‘‘
गुस्से से मैंने उस कैलेण्डर को पलट दिया। कमरे का दृश्य बदल गया। कमरे में जाड़ा भरता हुआ-सा लगा। मैंने कैलेण्डर को फिर से उलट दिया। कमरे में धूप-सी छा गयी। मैंने कहा, ’’वाह रे प्रभु, तुम्हारी लीला।‘‘
संयोग से उस लड़की का नाम भी लीला था, उसी ने बताया था। सप्ताह भर बाद वह किताब लौटाने आयी थी। उस दिन उसने कैलेण्डर की ओर न देखने की कसम खा रखी थी। उसने एक और किताब की माँग की।
मैं किताब लेने अन्दर चला गया। किताब लेकर लौटा तो लीला खिड़की के पास खड़ी बाहर देख रही थी। बोली, ’’यहाँ से आसमान कितना नीला दिखता है।‘‘
मैंने कहा, ’’सब प्रभु की लीला है।‘‘
वह शरमाकर जाने को हुई।
मैंने कहा, ’’लीला किताब तो लेती आओ।‘‘

उसने मेरे हाथ से किताब झपट ली। फिर बिल्ली की तरह कमरे से भाग गयी।
मैंने कैलेण्डर की गोरी की ओर देखा। लगा वह हँस रही थी।

अगले दिन एक सज्जन चन्दा माँगने आये। भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए वे कोई यज्ञ कर रहे थे। उनके साथ दो सज्जन और आये थे। तीनों एक-दूसरे की नकल लग रहे थे। तीनों ने दरवाजे पर खड़े होकर बड़े अधिकार से मुझसे चन्दा माँगा।
मैंने कहा,’’चन्दा स्त्रीलिंग है, मैं उसे किसी को नहीं देता।‘‘

उनके प्रमुख ने कहा, ’’चन्दा को मामा समझकर इस भ्रम को दूर कर लीजिए। न हो तो हमें चन्दा परसाद दे दीजिए।‘‘ अपनी बात पर मुग्ध होकर वे तीनों गद्गद हो गये।
फिर भी मैंने प्रतिवाद किया। मेरी सिकुड़ी भौंहें देखकर वे जरा भी संकुचित नहीं हुए। उन तीनों में से उनके प्रमुख ने भारतीय संस्कृति के अभ्युत्थान में चन्दे के महत्व पर मुझे एक भाषण पिलाया। प्रमुख के दोनों उप ने मुझे दबाने में अपनी-अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उसी धुन में मेरे न चाहने के बावजूद वे भीतर आ गये। भीतर आकर उन सबकी बोलती बन्द हो गयी, क्योंकि उनकी नजरें कैलेण्डर पर पड़ गयी थीं। कुछ देर तक वे ठगे-से खड़े रहे। फिर गहरी साँस लेकर प्रमुख ने हुंकार भरी-’’भारतीय संस्कृति का कितना पतन हो गया है।‘‘ गोरी को देखकर उनके चेहरे पर गुण्डई झलक आयी थी।
मैंने आश्चर्य से पूछा, ’’एक कैलेण्डर के कारण भारतीय संस्कृति का पतन ? कितनी कमजोर है वह।‘‘
’’आप जैसे लोग जहाँ रहेंगे, ऐसा ही होगा।‘‘ वे दहाड़े।
’’तो फिर कहाँ चला जाऊँ ?‘‘ मैंने पूछा।
’’अभी भी वक्त है अपने को सँभाल लीजिए।‘‘ तीनों बहुत तैश में थे।
एक उप ने कहा, ’’आप मोहल्ले को प्रदूषित कर रहे हैं। मुझे सूचना मिली है।‘‘
मैंने कहा, ’’मुझे हँसी आ रही है।‘‘
दुसरे उप ने कहा, ’’बाद में रोना पड़ेगा।‘‘
मैंने खतरा महसूस करके कहा, ’’आपके यज्ञ के सहायतार्थ कुछ दे ही देते हैं।‘‘
’’कितना लिखूँ ?‘‘ पहले उप ने लिखकर पूछा।
’’इक्यावन रूपये।‘‘ मैंने बढ़-चढ़कर चन्दे की बोली बोली। प्रमुख बोले, ’’एक सौ एक से हर्गिज कम नहीं।‘‘
मैंने पूछा तब प्रदूषण दूर हो जाएगा ?‘‘
दोनों उप हँसने लगे। प्रमुख मुस्कराये। बोले, ’’आपकी शादी हो गयी ?‘‘
’’तब यह कैलेण्डर यहाँ होता ?‘‘ मैंने मजाक किया, ’’कोई भी पत्नी अपने कमरे में दूसरी औरत की तसवीर भी बर्दाश्त नहीं कर सकती।‘‘

वे हँसे। फिर इत्मीनान से उस गोरी को घूरने लगे।
मैंने पूछा, इस तसवीर के बारे में आपकी क्या राय है ?‘‘
प्रमुख ने कहा, ’’खजुराहो की आधुनिक मूर्ति लगती है। पर युवाओं के चित्त में विकार पैदा कर सकती है।‘‘
मैंने दोनों उप से कहा, ’’आप दोनों युवा हैं, क्या वाकई ऐसा है ?‘‘
दोनों ने कहा, ’’हमारी बात और है। हमारा चित्त निर्मल है।‘‘
मैंने कहा, ’’तब मैं इस कैलेण्डर को लपेट देता हूँ, घर ले जाइए।‘‘

वे चौंकते हुए बोले, ’’हमारी बीवियाँ हैं। वे बड़ी पराक्रमी हैं।‘‘
उन्होंने समझा बड़ा अच्छा मजाक किया है। वे खुलकर हँसे। हँसते-हँसते वे निकल गये। मुझे खुशी हुई कि मैंने भारतीय संस्कृति को बचाने में अभी-अभी अच्छा खासा मूल्य देकर बड़ा योगदान किया है।‘‘

इस घटना के करीब सप्ताह भर बाद लीला आयी। उपन्यास उसने पढ़ लिया था। उसने उसे लौटाते हुए कोई और उपन्यास माँगा। लीला की पुस्तक देते हुए मुझे बड़ी खुशी होती थी। मैं किताब लेकर बाहर आया तो लीला गम्भीर होकर खड़ी हुई थी। उसकी आँखों में विस्मय था। मैंने शरारत से उस कैलेण्डर को उसके सामने ही उलट दिया।
उसके मुँह से निकला-’’धत्!‘‘ वह मेरे हाथ से किताब झपटकर जाड़े की धूप की तरह खिसक गयी।

न जाने क्या बात थी लीला जब भी कैलेण्डर को देखती तो वह बेचैन होने लगती थी और जब मैं उस कैलेण्डर को उलट देता तो खुद बेचैन हो जाता था। लीला के जाने के बाद मैंने उस कैलेण्डर को फिर से सीधा कर दिया।

इस बार लीला काफी दिनों तक नहीं आयी। जब भी मैं उस कैलेण्डर को देखता तो मुझे लीला की याद आ जाती। सोचा, लीला के बहाने मैं चचा से मिल आऊँ। गया तो चचा से भेंट हो गयी। काफी बातें हुई मगर लीला से भेंट नहीं हुई। वह अपनी किसी सहेली से मिलने गयी थी।

कुछ दिन बाद लीला ने अपने छोटे भाई के हाथों मुझे पुस्तक भिजवा दी। वह खुद नहीं आयी थी इसलिए मेरा चौंकना स्वाभाविक था।

मैंने उससे पूछा, ’’दीदी की तबीयत तो ठीक है ?‘‘
’’हाँ।‘‘
’’वह क्यों नहीं आयी ?‘‘
’’पता नहीं, ’’लीला के भाई ने कहा, ’’दीदी आजकल सारा काम मुझी से करवाती है।‘‘
वह अपनी दीदी से चिढ़ा हुआ लगा।
उसने कहा, ’’दीदी के लिए कोई और किताब दे दीजिए।‘‘
जवाब में मैं बोला, ’’दीदी से कहना, खुद आकर अपनी मनपसन्द पुस्तक चुनकर ले जाए।‘‘
वह चला गया।

एक दिन लीला बाजार में मिल गयी। मैंने पूछा, ’’क्या बात है, तुमने आना ही छोड़ दिया।‘‘
लीला मेरी बात का जवाब न देकर बोली, ’’आपने मेरे भाई को किताब नहीं दी ?‘‘
’’किताब पढ़नेवाले को खुद आना चाहिए।‘‘
’’क्यों ?‘‘
’’यह मेरा उसूल है।‘‘
लीला चुप रही।
मैंने पूछा, मेरे कमरे में आना बुरा लगता है ?‘‘
वह फिर चुप रही। इस बार उसका चेहरा शाम के आसमान की तरह लाल हो गया।

फिर वह किसी जेबकतरे की तरह वहाँ से खिसक गयी।
एक दिन लीला आयी। हालाँकि मुझे उम्मीद नहीं थी, फिर भी मन में कहीं कोई आशा तो थी ही। आज वह साड़ी पहनकर आयी थी। पहले वह सलवार-कमीज में आती थी। मुझे वह बहुत सुहानी लगी। पहले से बड़ी भी।
मैंने कहा, ’’बहुत बदली हुई लग रही हो।‘‘
लीला मन्द-मन्द मुस्कुराती रही।
बोली, ’’आज तो किताब मिलनी चाहिए। मैं खुद आयी हूँ।‘‘
मैंने कहा, ’’तुम भीतर जाकर खुद अपनी पसन्द की किताब चुन लो।‘‘

वह हँसी, ’’यह आपका काम है। आप चुनिए, मैं पढूँगी।‘‘
मैं लीला का संकोच समझ गया। कहा, ’’तुम बैठो मैं एक बढ़िया सी किताब चुनकर लाता हूँ। कुछ देर लग सकती है।‘‘
मैं जब बाहर आया तो चकित हो गया। लीला खुद उस कैलेण्डर के पास जाकर तन्मयता से उस गोरी को देख रही थी। वह इतनी खोयी हुई थी कि उसे मेरे आने का पता ही नहीं चला।

मैं लीला के पीछे जाकर खड़ा हो गया। सोचा, उसकी तन्मयता भंग करूँ कि नहीं। या मैं खुद ही पहले की तरह दूसरे कमरे में चला जाऊँ! मैं भी संकोच में पड़ गया था।
तभी वह पीछे मुड़ी। मुझे देखकर वह बुरी तरह चौंक गयी। फिर हथेलियों से अपना चेहरा ढँकते हुए बोली, ’’हाय, यह कैसी बेशर्म है!‘‘

मैंने कहा, ’’अब दुनिया तुम्हारी तरह बात-बात में शर्माती नहीं। सब अपनी तरह से जीते हैं। हर हाल में खुश रहते हैं। देखो, यह गोरी हँसती हुई कितनी सुन्दर लग रही है। तुम भी ऐसे ही हँसो, शर्माओं मत!‘‘
अचानक लीला मेरे सीने में अपना चेहरा छिपाते हुए बोली, ’’बड़े बेशर्म हैं आप।‘‘

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२७ अगस्त २०१२

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