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एक समय था जब वह घण्टों इन बादलों से बातें किया करती थी, उनसे अपने मन की हर कथा कहा करती थी और हर वक्त उसे बादलों की घुमड़न में एक मीठा स्वर सुनाई देता था- “कहो कहाँ जाना है? क्या कहना है?” और हवाओं पर तैरती धुन की तरह वह अपना आपा खोलकर सबकुछ सौंप देती थी उसे।

फिर बड़े लाड़ से मनुहार करते हुए गुनगुना देती-
“कबहु वा बिसासी सुजान के आँगन, मो असुँवानंहि लै बरसो।”
वे कुछ वैसे ही दिन थे... हवाओं पर तैरते। बादलों पर सवार। उसके आस पास का संसार कल्पनाओं की चादर से ढँका हुआ बिल्कुल अदृश्य! उस पर चारों ओर सिर्फ़ महकते फूल और रंग-बिरंगी उड़ती तितलियाँ थीं। जिन्हें कभी वह पकड़ लेती, हौले से चूम कर फिर बादलों में उड़ा देती। और कभी-कभी उनका पीछा करते वह हाँफ जाती, लेकिन तितली उसकी हथेली पर नहीं बैठती। तब उसकी शरारती मुस्कुराहट में एक ही जुबान होती- “अच्छा अब कल देखना!”

सुर्ख गुलाब की पंखुड़ियों की तरह नर्म और गुलाल भरे वे दिन थे। जिनका आना जाना पलक झपकते ही हो जाया करता। जिनकी दशा में खुशबुओं का डेरा था और जिनकी रात्रि जुगनुओं की दीप दीप रोशनी से जगमग थी। वे बिल्कुल झाग के बुलबुलों की तरह फिसलते हुए दिन थे। मुट्ठी में बंद इत्र की तरह महकते हुए। वे उसकी जिन्दगी में हर्ष के दिन थे।

हर्ष ही तो था। जब उसकी जिन्दगी बिना और किसी नाम के भी पूरी-पूरी भरी और छलक रही थी। वे गजब के दिन थे। उसका मन हमेशा ही भरा और खाली दोनों हुआ करता था। एक ही साथ अघाया और अतृप्त दोनों ही अनुभूतियाँ उसे समेटे रहती थीं। एक ही साथ बँधा और मुक्त। पाने और खोने की समानांतर आतुरता में उमगा। तब मोबाइल की सुविधा के दिन नहीं थे। लेकिन फोन प्राय: सभी घरों में थे। लेकिन चिट्ठियाँ सिर्फ़ सरकारी दफ्तरों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के शेयर होल्डरों के पतों पर उतनी नहीं जाती थीं जितनी लड़कों और लड़कियों के होस्टल के सामने घने छितनार छावों में बैठे या सड़क किनारे किसी चाय-स्टॉल की कोने की बेंच या बाथरूमों में साँस रोके धड़कते दिल से काँपते हाथों में!

इन्हीं दिनों “पत्र-मित्र” कॉलम के जरिये परिचय के साथ धीरे-धीरे हर्ष उसके जेहन में उतर रहा था। उसे सिर्फ़ पढ़ने का शौक था। चिट्ठी-विट्ठी तो उसने कभी किसी को लिखी ही नहीं थी। वीनू के कहने पर उसने भी अपना नाम उसमें दे दिया था। और हाँ, पता भी “केयर ऑफ” अपने डैडी के नाम से ही।

पहला पत्र ही हर्ष का आया। पता लिखा लिफाफा। वह भी हल्के नीले रंग का। कितनी सुन्दर लिखावट थी। सुनहरे रंग से लिखा उसका नाम सचमुच स्वर्ण अक्षर की तरह चमक रहा था- “खुशी!”

लेटर बास से पत्र डैडी ही लेकर आए थे। लेकिन उन्होंने उसे खोला नहीं। उसे दे दिया था खोलने और पढ़ने के लिए। पहली बार। पहली बार उसने बिल्कुल व्यक्तिगत तौर पर अपने नाम आया पत्र खोला था। खोलने के पहले पता नहीं कितनी देर तक बैठी उलट-पुलट कर उस लिफाफे को ही देखती रही थी। हर्ष ने लिखा था-

“प्रिय खुशी!

“पहले तो इस बात के लिए बधाई कि हमारे और तुम्हारे नाम में ही एक आन्तरिक लय है! शायद इसी ने हमें यह संयोग दिया हो। बाई दि वे, मैं तुम्हें अपने बारे में कुछ बता दूँ- नाम तो तुम जानती ही हो। मेरी उम्र बाइस वर्ष है, मैं तुम्हें जन्मदिन का कार्ड भेजूँगा तो अपनी जन्म तिथि उसमें लिख दूँगा। मैं यहाँ यानि कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एमएससी थर्ड इयर की पढाई कर रहा हूँ। कभी-कभी कविताएँ वगैरह भी लिखता हूँ। मेरे मम्मी-पापा गाँव में रहते हैं। एक छोटा भाई है जो इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। वैसे मैं हमेशा खुश रहता हूँ, कभी-कभी ही मुझे गुस्सा आता है। लेकिन तुमसे वायदा करता हूँ कि मैं अब वह कभी-कभी का जायका भी बदल दूँगा- अब तुम मेरे साथ हो!

है ना खुशी!
-तुम्हारा हर्ष

उसे लगा पल में कायनात पलट गई। ब्रह्मा ने उसकी चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते सृष्टि को आदि से अंत तक नई रंगत दे डाली। दिन दिन नहीं, शाम शाम नहीं, रात रात नहीं, सब किसी जादूगर की पिटारी में बंद हो गये- रह गया है तो सिर्फ़ एक जादुई संसार जिसमें एक ही साथ सब कुछ घुला-मिला है। रात वहीं सो रही है तो दिन भी वहीं जग रहा है और शाम भी वहीं ढल रही है। सिर्फ़ वह है और उसके नीचे नर्म मुलायम रुई के फाहों की तरह धवल बादल, जिन्हें वह कभी अपने आगोश में भर लेती है और फिर कभी बिछा कर उन्हीं पर लेट जाती है।

सम्पूर्ण सृष्टि और उसके बीच एक आंतरिक लय है, एक तरंग जिसे वह अच्छी तरह महसूस कर पा रही है। जिसमें ही उसकी साँसे पूरी तरह रच-बस गई हैं और कानों में लगातार किसी धुन की तरह
एक ही पंक्ति बज रही है- “हमारे और तुम्हारे नाम में ही एक आन्तरिक लय है।”
सपनों के राजकुमार के घोडों पर सवार दिन सरपट भाग रहे थे।

एक दिन उसका फ़ोन आया। फ़ोन तब ऐसे ही नहीं आया करते थे। तार और फ़ोन दिल धड़काने के लिए पर्याप्त साधन थे। खुशी और गमी की बातों के दूत थे। इस अवस्था में हर्ष ने फ़ोन किया और सिर्फ़ इतना ही कहा था, “खुशी, आई लव यू वेरी मच! अब बिना तुम्हें देखे नहीं रहा जाता!” कितनी बार हर्ष ने पत्र में लिखा था कि वह उसे अपनी एक फोटो भेज दे, पर न जाने कौन सा संकोच था जो हर बार नई-नई वजहों से उसे रोक लेता और “फिर कभी” कहकर वह उसे टाल देती।

कुछ भी तो अचीन्हा नहीं था। सब कुछ कितना-कितना परिचित हो गया था। कभी-कभी आँखें बंद कर वह उसकी देहगंध तक को अपने भीतर ज़़ज्ब होते महसूस करती थी। अपने होंठों पर उसके गर्म होंठों की तपिश... माथे पर नर्म पलकों की छुअन और शरीर पर हौले-हौले रेंगते स्पर्श को। उसका पूरा वजूद उसी में समाया हुआ था। वह अलग कहाँ थी। कभी-कभी उसे लगता कमरे की दीवारों को किसी ने फूँक मार कर गायब कर दिया है और वह हरी-हरी वादियों में तैरते बादलों पर सवार उड़ी जा रही है, कहीं कोई भी व्यवधान नहीं है, हर्ष और उसके बीच। यहाँ तक कि उसके अपने शरीर के आवरण को भी धीरे-धीरे किसी ने हटा लिया है, बाकी है तो सिर्फ़ उसकी और हर्ष के धड़कनों की घुलती हुई धक्-धक् ध्वनि।

ऐसे में उसकी चेतना पूरी तरह हर्ष के मादक एहसास से सराबोर हो जाती। उसे लगता हर्ष उसके कानों में करीब-बहुत करीब आकर कह रहा है, “मैं तुम्हारा हूँ, सिर्फ़ तुम्हारा!”

हर्ष ने पूछा था- “तुम कहो, तो मैं आ जाता हूँ। तुमसे मिलने की बहुत इच्छा है। तुम्हें देखने और महसूस करने का मन करता है। तुम्हें पास और बहुत पास से देखना चाहता हूँ, जहाँ कहने-सुनने को कुछ न रहे... सब कुछ स्वत: ही खुलता चला जाय, सिर्फ़ एक दूसरे को देखते... छूते और फील करते...”

वह क्या करेगी अगर हर्ष सचमुच आ गया तो? वह भी तो उसे पास से देखना चाहती है... छूना चाहती है, महसूस करना चाहती है। उसके वजूद को रेशमी दुपट्टे की तरह ओढ़ लेना चाहती है। स्वयं को उसमें विसर्जित कर उसी में हो लेना चाहती है....। सारी रात उसे नींद नहीं आई। आसमान में दौड़ते-भागते बादलों में भिन्न-भिन्न आकृतियों को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते सुबह हो गई।


सुबह सामान्य थी रोज की तरह। लेकिन अचानक ही वह सामान्य से कुछ अलग हो गई थी। डैडी माँ से कह रहे थे। या कह रहे थे ठीक-ठीक तो उसने नहीं सुना था, लेकिन कुछ था जो गले में आड़ा-तिरछा हो अटक गया था। माँ की बातें स्पष्ट थीं- “अभी-अभी तो एम.ए. पास किया है, इतनी भी या जल्दी है? कुछ दिन अपने मन से जी लेने दो मेरी बच्ची को।”

उसने हर्ष को पत्र लिखा। साफ-साफ लिख दिया “...मुझे अपने से अलग मत करना। मैं जी नहीं पाऊँगी” और यह भी कि “जो कुछ करना है तुम्हें ही करना है हर्ष! तुम आ जाओ जल्दी से जल्दी।”

पत्र पोस्ट करने के बाद उसने घण्टों अपने स्टडी की सफाई की थी और लगातार एक ही धुन बारबार बजाए रखा था “एहसान तेरा होगा मुझ पर, दिल कहता है तो कहने दो...”
आषाढी मेघ की तरह उस धीमी स्वर लहरी में उसकी आँखें रिमझिम बरसती रही थीं।

यातायात के साधन तो थे ही लेकिन फिर भी तब यात्राएँ इतनी सहज नहीं थीं। कोस दो कोस की बात और है, जब इतनी लम्बी दूरी तय करनी हो तो जरूर सोचना पड़ता था। कितनी सारी कैफियत थी। सात समंदर पार का परदेशी भूत अभी भागा नहीं था और न ही बैरन रेल कुछ सहृदय हो पाई थी। छत की मुँड़ेर से काँव-काँव करता कागा दिल में उम्मीद का दिया जलाए रखने में कामयाब था। शाम-सबेरे अपने दरवाजे पर मुस्कुराता डाकिया गोपियों के ऊधौ से कम नहीं था।

न जाने क्या था कि पलक झपकते भागते दिन के पैरों में मोच आ गई थी। दिन बीतने का नाम ही न लेते थे और रात आ जाती तो सबेरा दिखता ही न था।

वे बेहद सुस्त दिन थे।
डरे और सहमे से दिन थे।
भय और आशंका में लिपटे हुए दिन थे।
वे हर्ष के इन्तजार के दिन थे।
वे खुशी की जिन्दगी में फैसलों के दिन थे।

हर्ष की चिट्ठी आई। वैसा ही नीला लिफाफा। वैसी ही सुन्दर लिखावट। स्वर्ण अक्षरों में अंकित उसका नाम- खुशी!

बड़ी आतुरता से खोला था... पत्र को पढ़ा और फिर कुछ देर के लिए बैठी रही वैसे ही। हर्ष ने लिखा था- क्या बात है? इतने दिनों से तुमने एक भी पत्र नहीं दिया। नाराज हो या? यहाँ तो मैं तुम्हारी याद में दीवाना हुआ जा रहा हूँ और तुम्हें कोई परवाह ही नहीं है। हाँ, मेरे पास दो-दो सरप्राइज हैं तुम्हारे लिए। नहीं- अभी नहीं बताऊँगा। ऐसे कैसे बता दूँ। अच्छा चलो एक बताए देता हूँ- मुझे यहीं एक स्थानीय कालेज में लेचररशिप की नौकरी मिल गई है। थोड़ी व्यस्तता बढ़ गई है
लेकिन फिक्र न करना... तुम्हारे लिये हमेशा समय है मेरे पास, मुझे प्यार है तुमसे जानूँ!”

आसमान बादलों से बिल्कुल रिक्त था। गाढे नीले रंग की चादर बिछी हुई थी। जिनकी ओर रंगबिरंगे विहगों का झुण्ड उड़ा जा रहा था, लेकिन वे ऊपर और ऊपर जाकर न जाने कहाँ खो से जाते। नीला रंग और भी गाढ़ा होता जाता। उसे लगता आसमान के एक छोर पर वह खड़ी है। और दूसरे छोर पर हर्ष है, जहाँ तक उसकी आवाज पहुँच ही नहीं पा रही है। जब-जब वह उसे पुकारना चाहती शब्द नीचे फैले सागर की गहराइयों में न जाने कहाँ चुपचाप गिर जाते। आगे बढ़ने की कोशिश करती तो पैर जैसे दलदल में धँस जाते। हाथ बढा कर छूना चाहती तो हवा के थपेडों से ऐसी जोरदार आँधी आती कि वह आँखों से ही ओझल हो जाता।

वे बड़े भारी दिन थे।
बड़े कठिन और मुश्किल दिन थे।
वे आषाढ़ के दिन थे।

लगातार बारिश हो रही थी। लग रहा था पूरा बरसाती मौसम ही बूँद-बूँद चू जाएगा। आसमान पर बादलों का जमावड़ा था। सब एक से बढ़कर एक। काले-काले भरे-भरे। गरजते-चमकते और झमझमाकर बरसते।

दो-दो दिन डाक नहीं आती। आती भी तो उसमें नीला लिफाफा न रहता।

खुशी की तबीयत ठीक न थी। उसने हर्ष को लिखा- “प्लीज हर्ष! एक बार! एक बार मेरे पत्रों का जवाब तो दो। तुमने अपना पता बदल दिया या? तुम्हें मेरे पत्र यों नहीं मिल रहे? प्लीज! प्लीज!” पाँचवें दिन डाक थी। हर्ष का पत्र मिला। हर्ष ने लिखा था- “अभी नई नई सर्विस है ना- व्यस्तताएँ ज्यादा हैं! तुम समझ सकती हो... आखिर तुम मेरी अच्छी खुशी हो ना! हाँ, एक बात और, तुम्हारी पढाई तो हो गई ना? पीएचडी में क्यों नहीं रजिस्ट्रेशन करवा लेती, भविष्य सुनिश्चित हो जाएगा। वैसे जो भी करना बताना जरूर। आजकल तुम बेहद चालाक हो गई हो। मुझसे सब कुछ छुपाकर करना चाहती हो... इसीलिए तो इतने-इतने दिन होते जा रहे हैं तुम्हारा कोई अता-पता नहीं है। कहीं कोई शादी वादी का चक्कर तो नहीं है? अरे... रे नहीं भाई, मैंने तो मजाक किया था.। भला ऐसा होगा कि मुझे बिना बताये..”

बहुत जोर की हवा चली। आसमान चूमते पेड़ तक ऐंठ गए। कई टहनियाँ टूट कर जमीन पर गिर गर्इं। कई छोटे-छोटे पौधे धरती पर लोट गए। एक भीषण आवाज के साथ आसमान का कलेजा चर्रा गया।

खुशी ने हर्ष को लिखा-

“प्रिय हर्ष,

शुक्रिया, तुमने मुझे याद दिलाया। मैं सचमुच इधर कुछ व्यस्त हो गई थी। इसीलिए तुम्हें लिख न सकी। बधाई! तुम्हें इतनी अच्छी नौकरी मिली है! मैं तुम्हारे सुझाव पर विचार करूँगी। इधर मैं एक काम में व्यस्त थी, इतनी व्यस्त कि तुम्हें बताना भी भूल गई- बड़ी उलझन वाला काम मिल गया था, पर क्या करूँ... खैर... मुझे तुम्हारे सारे के सारे पत्र मिले हैं, फुर्सत से सबका जवाब दूँगी, लेकिन प्रतीक्षा मत करना। तुम जानते तो हो, मैं थोड़ी आलसी हूँ... जून में मेरे यहाँ एक कार्यक्रम है अगर आ सको तो... मैं जोर नहीं डालूँगी... जानती हूँ तुम्हारा काम नया है... हाँ, जानते हो आजकल मैंने भी तुम्हारी देखा-देखी कुछ लिखना शुरू किया है.। यह एक छोटी-सी कवितानुमा चीज... यह मत पूछना किसके लिए... इसे रहस्य ही रहने दो... तुम जानते हो...” लेकिन पढ़ना तो पहले तुम्हें ही है, ठीक है अपना ख्याल रखना।”

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३० जुलाई २०१२

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