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“अभी कुछ खाकर आए हैं?” डॉक्टर ने पुन: पूछा।
“जी, बैड-टी लेने की आदत है मेरी।” उसने बताया।
“कोई बात नहीं,” अपने लेटर हेड पर कुछ लिखकर उसे देते हुए उसने कहा,“ये कुछ टेस्ट कल सुबह आठ बजे बिना कुछ खाए-पिए क्लीनिक में आकर आपको कराने होंगे। रिपोर्ट कल शाम को मुझे मिल जाएगी। परसों सुबह आकर मुझसे मिलिए।”
“अगले हफ्ते करा लूँ?” उसने डॉक्टर से पूछा।
“मैं तो यही कहूँगा कि रोग को पलने नहीं देना चाहिए।” डॉक्टर ने कहा,“बाकी, जैसी आपकी मर्जी।”
“कल क्यों नहीं?” यह सवाल डॉक्टर की बजाय वहीं बैठी नीलू ने उससे पूछा।
“सुबह आठ बजे ऑफिस के लिए नहीं निकला तो…”
“तो ठप हो जायगा ऑफिस?” उसने व्यंग्यभरे अंदाज़ में उससे पूछा।
“ऑफिस की नहीं, मुझे सुरेशजी की चिन्ता है।” नितिन ने कहा,“वह बेचारे…”
“कल लेट पहुँचो ऑफिस में, छुट्टी करो आधे दिन की या पूरे दिन की—मैं नहीं जानती।” डॉक्टर के सामने ही उसने निर्णायक फरमान जारी किया,“टेस्टिंग के लिए कल सुबह यहाँ आना है, बस।”

नीलू के ये तेवर देख नितिन को अपनी एक वरिष्ठ महिला-कुलीग मिसेज ऊषा गुप्ता याद आ गयी जो कहा करती थीं—“शुक्लाजी, आयु-विशेष पर पहुँचकर ज्यादातर मर्द अपनी पत्नी के सामने पुत्र-समान जीवन व्यतीत करने लगते हैं।…इस बात को आप यों भी कह सकते हैं कि समझदार पत्नियाँ बच्चों के साथ-साथ आखिरकार पूरे घर को अपने आँचल के साए-तले ले लेती हैं; पति को ही नहीं, सास-ससुर को भी।”

यह अब से लगभग बीस वर्ष पहले की बात है। तब वह तीसेक साल का रहा होगा। उनकी बातें तब उसे बड़ी अटपटी और बेहूदी लगती थीं। कोई स्वाभिमानी पति कैसे अपनी पत्नी के सामने बच्चा बनकर जी सकता है! लेकिन अब, एकाएक ही उसे लगा कि उस महिला की बात सौ प्रतिशत अनुभवजन्य थी और वह आयु के उसी दौर में प्रविष्ट हो चुका है जिसका जिक्र वह किया करती थीं।

वैसे तो वह कहीं भी नीलू की घुड़की का प्रतिवाद नहीं कर पाता है, लेकिन डॉक्टर के केबिन में प्रतिवाद प्रस्तुत करना तो उसे बिल्कुल भी उचित नहीं लगा, सो वहाँ से चुपचाप बाहर निकल आया। क्या मुसीबत है!—क्लीनिक से बाहर निकलते हुए नीलू को सुनाते हुए वह बुदबुदाया; लेकिन उसने बुदबुदाहट को अनसुना कर दिया। उसे साथ लेकर वह घर आ गई।

सोमवार को अन्य दिनों की अपेक्षा वह जल्दी बिस्तर से उठ बैठी। नितिन ने रुटीन के मुताबिक ही अपनी आँखें खोलीं। घड़ी पर नजर डाली—सवा सात बज रहे थे।
“चाय लाना जी…” उसने रोजाना की तरह ही नीलू को हाँक लगाई।
“चाय-पानी जो कुछ भी लेना हो, टेस्टिंग के लिए ब्लड एंड यूरिन देने के बाद क्लीनिक की केन्टीन में बैठकर लेना आज।” रसोईघर से पत्नी की आवाज आई तो उसे डॉक्टर की सलाह पर नीलू द्वारा तय किया गया अपना आज का कार्यक्रम याद हो आया। उसे लगा कि ऑफिस की सारी फाइलें भड़भड़ाकर उसके सिर पर आ गिरी हैं और उन्होंने उसका साँस लेना दूभर कर दिया है। अन्दर ही अन्दर वह थरथरा-सा उठा।

“यार…बिना किसी पूर्व-सूचना के इस तरह लेट ऑफिस में पहुँचना या छुट्टी पर बैठ जाना नियम के अनुकूल नहीं है।” दबे स्वर में ही सही, नीलू के निर्णय का प्रतिवाद करता-सा वह बोला,“ऐसा करता हूँ कि आज ऑफिस जाकर कल के लिए…”
“क्या कर लेंगे…” उसकी बात पर वह लगभग उग्र स्वर में वहीं से बोली,“एक दिन का वेतन काट लेंगे? काट लेने दो।”
“यार, बात वेतन की उतनी नहीं है जितनी कि सुरेशजी के अकेले रह जाने की है।” उसने भावनात्मक पासा फेंका।
“सुरेशजी क्यों अकेले रहेंगे?” इस पासे को वापस मेरे मुँह पर मारते हुए उसने कहा,“आप क्लीनिक जा रहे हैं या बाघा बॉर्डर?”
“तुमसे बहस करने से कहीं अच्छा है कि आदमी दीवार में सिर मार ले दो-चार बार।” वह झुँझलाया।
“दो-चार बार नहीं, दस बार।” उसकी इस बात पर नीलू रसोई से बाहर आकर बोली। इसके साथ ही रोजाना से कुछ बड़ा टिफिन कैरियर उसके बैग में फँसाकर उसने मेज पर टिका दिया। बोली,“आधा घंटे से ज्यादा लेट नहीं होओगे ऑफिस के लिए, समझे! फिर भी, नमूने देने में अगर कुछ ज्यादा समय लग जाय और क्लीनिक की कैन्टीन में जाकर ब्रेकफास्ट लेने का समय न रहे तो ऑफिस के लिए निकल जाना सीधे। लंच के अलावा ब्रेकफास्ट का भी कुछ सामान रख दिया है, ऑफिस में जाकर खा लेना चाय के साथ।”

नितिन ने घड़ी देखी। अन्य दिनों के मुकाबले पेंतालीस मिनट पहले टिफिन लगाकर सामने रख दिया था नीलू ने। वह एक अक्षर भी आगे न बोल सका। उसके दवाब के चलते उसी दिन क्लीनिक जाकर उसने जाँच के लिए खून और पेशाब के नमूने दिये और दसेक मिनट के अन्तर से लगभग सही समय पर ऑफिस भी पहुँच गया। लंच टाइम के आसपास फोन आ जाने पर नीलू को उसने हालाँकि यही उलाहना दिया कि उसकी नादानी की वजह से वह नाहक ही एक घंटा देर से ऑफिस पहुँचा।

तीसरे दिन नीलू ने उसे पुन: डॉक्टर के सामने जा उपस्थित किया।
“आपको सेकेंड स्टेज डायबिटीज़ है मिस्टर शुक्ला,” मेज पर रखे बहुत-से लिफाफों में से उसके नाम वाले लिफाफे से निकालकर रिपोर्ट को देखते हुए डॉक्टर ने कहा,“बट यू डोंट वरी। भीतर किडनी, लंग्स वगैरा सब ठीक-ठाक हैं, कुछ बिगड़ा नहीं है अभी। यह…एक गोली और एक केप्सूल सुबह नाश्ते से दस-पन्द्रह मिनट पहले लेना शुरू कर दीजिए, बस।”

“इन दवाइयों के अलावा कुछ और…?” नीलू ने पूछा।
“कुछ नहीं,” डॉक्टर ने कहा,“मीठी चीजें खाना एकदम बन्द। काउंटर से एक डाइट-चार्ट ले लेना। खाने का शिड्यूल उसके अनुसार रखने की कोशिश कीजिए। शुगर को कन्ट्रोल रखेंगे तो सब ठीक-ठाक चलता रहेगा, डोंट वरी। घूमने जाते हैं?”
“जी नहीं।” नीलू ने बताया।
“जाने लगिए मिस्टर शुक्ला।” उसका जवाब सुनकर डॉक्टर ने नितिन से कहा,“शुगर कन्ट्रोल रखने में बड़ी मदद मिलती है।”

ये सब बातें उसने क्योंकि नीलू की उपस्थिति में कही थीं इसलिए इनमें से किसी एक को भी उससे छिपा पाना नितिन के लिए असम्भव था। तात्पर्य यह कि डॉक्टर की सलाह के अनुरूप उसी शाम से चीनी उसकी चाय से रफू-चक्कर हो गई। वस्तुत: तो चाय के नाम पर उसे एक प्याला काढ़ा थमाया जाने लगा। दूसरे, उसने उसे सुबह-शाम पार्क में भी भेजने का दवाब बनाना शुरू कर दिया।

“सच कह रहा हूँ…घूमने जाना मेरी प्रकृति में कभी नहीं रहा नीलू।” नितिन उसके सामने कई बार गिड़गिड़ाया लेकिन बेकार। उसने उसकी एक न सुनी। एक रात सुबह पाँच बजे का अलार्म लगाकर सो गई। सुबह अलार्म बजते ही खुद उठ बैठी और उसे झिंझोड़ती हुई बोली,“कपड़े पहनकर तैयार हो जाइए, घूमने चलना है।”

“क्या मुसीबत है यार, तुम तो पीछे ही पड़ जाती हो।” चादर को कुछ-और जकड़ते हुए वह उस पर झुँझलाया। लेकिन उस झुँझलाहट का नीलू पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने पुन: नितिन को झिंझोड़ डाला। उनींदा-सा वह तकिए को गोद में रखकर बिस्तर पर बैठ गया। आँखें खोलकर देखा तो घूमने जाने के लिए एकदम तैयार उसे सामने खड़ी पाकर बोला,“तुम भी साथ चलोगी तो नाश्ता कौन बनाएगा बच्चों के साथ रखने के लिए?”
“वह सब कल सोचना,” उसने कहा,“आज रविवार है।”

हे भगवान!—वह मन ही मन बुदबुदाया—इस औरत का आँचल है या ऑटोमेटिकली एक्सटेंडेबल तम्बू! जितना इसके साये से दूर रहने की सोचो, उतना ही ज्यादा सिर पर मँडराए जाता है यह। कम से कम आराम करने के समय तो मेरे सिर हटा लेना चाहिए इसे। कुढ़ता-सा वह उठा। शौचादि से निपटकर कुल्ला किया और कुर्ता-पाजामा पहनकर मरे कदमों से पत्नी के पीछे-पीछे हो लिया। बिल्कुल वैसा नजारा था जैसा किसी पिल्ले या मेमने को जबरन घसीटने के समय बनता है। नितिन के गले में पट्टा नहीं बँधा था, बस। पार्क तक जाना-आना और वहाँ घूमना कुल मिलाकर एक घंटे में निपट गया। सात बजे यानी कि रोजाना ही अपना बिस्तर छोड़ने के समय से भी दस-पन्द्रह मिनट पहले वे लोग वापस घर में आ घुसे थे। अनिच्छापूर्वक घुमाया जाने के कारण नितिन का शरीर ऊपर से नीचे तक टूटता-सा महसूस हो रहा था। सो वह जूते उतारकर सीधा बेडरूम में गया और बिस्तर पर पसर गया। सम्भवत: रविवार होने के कारण ही नीलू ने उसे टोका या रोका नहीं। लेट जाने के बाद साढ़े आठ बजे उसकी आँखें खुलीं।

“आज तो चल गया,” कुछ देर बाद ही काढ़े का कप ड्रेसिंग टेबल पर टिकाते हुए नीलू बोली,“कल ऑफिस भी जाना होगा इसलिए घूमकर आने के बाद का लेटना बन्द।”
“यानी कि एक-और तुगलकी फरमान। धीरे-धीरे सारी सुख-सुविधाएँ बन्द हो जानी हैं—ऐसा लगता है।” नितिन ने कहा।
“तुगलक बताओ या तैमूर लंग। घर और शरीर के स्वास्थ्य को सही रखने के लिए जो-जो चीजें बन्द करनी जरूरी लगेंगी, वो की ही जाएँगी।” वह निर्णायक स्वर में बोली।
“ठीक है बाबा,” काढ़े का कप टेबल से उठाते हुए उसने मुस्कराते हुए गाया,“सुख भरे दिन बीते रे भैया, अब दुख आयो रे…”
“शाम का खाना खाने के बाद भी घूमने को चलना है, समझे!” जले पर नमक छिड़कती वह बोली।
“चलना है माने?” नितिन ने पूछा,“शाम को भी मेरे साथ चलोगी?”
“अकेले नहीं निकलोगे घूमने को तो चलना ही पड़ेगा।” नीलू ने कहा।
“मैं चला जाया करूँगा बाबा,” उसने अपने कंठ को चुटकी में भरकर उससे कहा,“कसम से।”

वह मान गई। वस्तुत: तो घरेलू काम-काज और बच्चों को सँभालने की विवशता के चलते उसे उसकी बात पर विश्वास करना पड़ा। नीलू के साथ घूमते हुए पहले दिन ही उसने निर्बाध आराम करने की जगह तय कर ली थी। पार्क के गेट से दूर वाले छोर पर एक पेड़ के नीचे सीमेंट की बनी एक बेंच रखी थी। अगली सुबह उसने उसी पर जाकर बैठना और लेट जाना शुरू कर दिया। अपने मोबाइल में उसने ठीक सात बजे सुबह का ‘रिपीट अलार्म’ सेट कर लिया था। अलार्म बजता। वह जागता; और तरोताजा मूड में घर वापस आ जाता। रविवार और राजपत्रित अवकाश के दिनों को छोड़कर, लम्बे समय तक वह उस सुख को भोगता रहा। फिर एकाएक ही सुख के उन क्षणों पर वज्रपात हो गया।

हुआ यों कि किन्हीं प्रशासनिक कारणों से बच्चों के स्कूल दो दिन के लिए बन्द घोषित कर दिए गए। तीसरे दिन रविवार था। सो उनके स्कूल तीन दिन के लिए बंद हो गए। नीलू ने उन तीनों दिन बच्चों को पार्क में घुमा ले आने का कार्यक्रम बना लिया। उसकी दृष्टि से देखा जाय तो यह सब नितिन को बताने की कोई जरूरत उसने नहीं समझी। पहले दिन—वह अपने रुटीन के अनुरूप घर से निकला और पार्क की बेंच पर जा पसरा।

उसके जाने के पन्द्रह-बीस मिनट बाद ही—जैसाकि नीलू और बच्चों ने तीसरे यानी रविवार वाले दिन घर पहुँचने पर उसे बताया—वे भी वहाँ जा पहुँचे। दौड़ लगाते हुए, पार्क में बच्चे पहले दाखिल हुए। घूमते-घामते, पापा को तलाशते, सबसे पहले उन्होंने ही उसे बेंच पर सोया देखा। वे वापस मुड़े और इसकी शिकायत उस ‘डॉन’ से कर आए जिसकी ‘कम्पनी’ में वे ‘भाई’ थे। डॉन ने उनको समझाया कि वे अब उस बेंच की तरफ न जाएँ और ‘डैड’ को यानी कि नितिन को इस बारे में जरा भी शक न होने दें कि हमें यह सब पता है। कमाल की बात यह रही कि दोनों बच्चे अपनी माँ के पक्के चमचे निकले। समर्पित माँएँ बिना प्रयास ही किस हद तक बच्चों को अपने अनुरूप ढाल लेती हैं—यह नितिन ने तभी जाना।

माँ के इशारे से पहले उन बदमाशों ने तिलभर भी इस रहस्य से अपने परिचित होने की भनक डैड को नहीं लगने दी। पार्क से उठकर वह करीब सवा सात बजे घर पहुँचता था और वे तीनों उससे आधा घंटा पहले, ठीक पौने सात बजे। उसके बाद ऑफिस के लिए उसके निकलने तक घर का माहौल वे ऐसा बनाए रखते थे जैसे स्कूल जा चुके हों और घर में हों ही नहीं। इस नाटक का पर्दाफाश तीसरे दिन संयुक्त रूप से उन तीनों के द्वारा स्वयं ही किया गया। उन्होंने किया यह कि उस दिन पार्क में इधर-उधर खेलने न जाकर वे नितिन की बेंच के आसपास ही घूमते रहे, किसी भी प्रकार का शोर किए बिना। ठीक सात बजे उसके मोबाइल का अलार्म टिनटिनाया। वह उठकर बैठ गया और आँखें खोलकर सामने जो देखा तो नीलू और बच्चों को घास में बैठकर आसन करते पाया।
“अरे, तुम लोग!” वह अचकचाकर बच्चों से बोला,“स्कूल नहीं गए आज?”
“नहीं, मॉम ने आज छुट्टी करा दी।” चिंटू ने सीधे-सादे स्वर में कहा।
नितिन को लगा कि नीलू उसे चेक करने की नीयत से ही पार्क में आई होगी बच्चों के साथ। सो बेंच पर अपने लेटे होने की सफाई देते हुए बोला,“घूमते-घूमते थोड़ा थक गया था इसलिए…”
“लो सुनो, हमने कुछ पूछा भी है?” उसके बोलते ही नीलू ने दोनों बच्चों से कहा।
“आप तो गए डैड…” उसके यह कहते ही दोनों बच्चे एक साथ बोले,“हालांकि माँ अच्छी है लेकिन ऐसी परिस्थितियों में वह नाराज भी हो सकती है, आप तो जानते हैं!”
“अरे यार…” आसपास घूम रहे लोगों को ध्यान में रखकर वह फुसफुसाहट के अन्दाज़ में गिड़गिड़ाया,“मैं कभी झूठ बोलता हूँ क्या?”
“कभी नहीं, कभी नहीं।” दोनों बच्चे व्यंग्यपूर्वक होंठ बिचकाते, गरदन हिलाते हुए एक स्वर में कविता-पाठ कर उठे।
“अच्छा, मजाक छोड़ो और घर चलो।” नितिन ने कहा,“सात से ऊपर बज चुके हैं। मुझे ऑफिस के लिए भी निकलना है।”

उसकी इस बात पर किसी ने कुछ नहीं कहा, कनखियों से एक-दूसरे को देखते हुए मुस्कराते-से सब-के-सब उठकर खड़े हो गए। वहाँ से चलकर वे घर आए। नितिन ने यथासम्भव अपने-आप को सामान्य बनाए रखा। घर पहुँचकर नीलू ने साबुन से हाथ-पैर धोए। रसोईघर में गई। अपने और बच्चों के लिए नाश्ता व पति के लिए काढ़ा तैयार कर लाई और बोली,“कल से, पार्क में अपना मोबाइल साथ नहीं ले जाएँगे आप।”

उसका यह वाक्य सुनकर उसके गले में चाय का फंदा लगते-लगते बचा।
“अरे यार,” वह स्वर को सामान्य रखते हुए बोला,“आज वाकई मैं थोड़ा थक-सा गया था। तुम विश्वास क्यों नहीं करती हो मेरी बातों पर।”
“उसका कारण तो अभी, इसी समय ये बच्चे आपको बता देंगे।” नीलू ने भी सहज स्वर में ही कहा,“सिर्फ एक घंटे की तो बात है।”
“उस एक घंटे के दौरान कहीं से कोई कॉल आ गई…” कोई लाभ न होता जानकर भी उसने प्रतिवाद किया,“या घूमते-घूमते मुझे ही तुमसे…या तुम्हें मुझसे कुछ कहना पड़ गया तो?”
“कोई भी कॉल मिस नहीं होगी आपकी।” वह पूर्ववत बोली,“इस मोबाइल को हाथ में लेकर मैं पीछे-पीछे चला करूँगी आपके।”
“क्या!!!” उसकी बात सुनते ही यह शब्द नितिन के गले में कुछ इस तरह अटका कि उसके मुँह में भरा चाय का सारा काढ़ा बड़ी मुश्किल से मुँह में रुका।

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१२ मार्च २०१२

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