'ज़रूर
बताइए क्योंकि मेरे पास भी आपको बताने के लिए भेद की एक बात
है', मैं कहता हूँ।
'तो तुम्हीं पहले बताओ .. ' बेटी की मृत्यु से उनका ध्यान
हटाने की ख़ातिर मैं उनकी बात मान लेता हूँ, 'मेरे पिता आज
जीवित नहीं किन्तु आपको देख कर आज उनकी याद ज़रूर ताज़ा हो
गयी। आज यदि वे जीवित होते तो लगभग आप ही के आयु के होते और आप
ही जैसे दिखाई देते ..' मेरे भेद में सच घुला है।
'तुम्हारे पिता नहीं हैं?' वे मेरी ओर स्नेह से देख रहे हैं।
'नहीं हैं। नौ वर्ष पहले मैंने उन्हें एक सड़क-दुर्घटना में
खो दिया था..' ऐसा लगता है वे मेरी आँखों में अपनी आँखे गड़ा
देते हैं,
'मेरे परिवार में यदि एक पुत्र ने जन्म लिया होता तो वह ज़रूर
तुम्हारे जेसा होता ..' उनकी आँखों की ज्वाला मेरी आँखों में
उतरना चाहती है। किन्तु मेरे मन में एक अनजाना सागर उमड़ने
लगा है। मैं नहीं जानता, इसे मेरे पिता की स्मृतियाँ मेरे
समीप लायी हैं या फिर चन्द्रमोहन क्वात्रा की ये
अपेक्षाएँ-आशाएँ जो बॉस के यहाँ पहुँचने पर अभी धराशायी होने
जा रही हैं। बाहर बज रहा मोटर-गाड़ी का सायरन उनके आगमन की
सूचना है। मुझे उनका बाहर जाकर स्वागत करना होगा। अपनी कुर्सी
से मैं उठ खड़ा हुआ हूँ।
अपनी गाड़ी से बॉस एक राजा की भाँति उतरते हैं। अपने फुल फार्म
में, अपनी वर्दी में, रिवाल्वर से लैस, पूर्ण-सज्जित एवं
प्रसाधन-युक्त। उनसे पहले उनका तीख़ा 'आफ्टर शेव' मेरी दिशा
में आ लपकता है। 'कैसे हो निझावन?' वे मुझे मेरे 'सर-नेम' ही
से पुकारते हैं। बिना मेरा पहला नाम, अशोक उसमें जोड़े। अपनी
सत्ता की विज्ञप्ति के निमित्त भी और उस संयोग के निमित्त
भी, जिसके अन्तर्गत उनके 'सरनेम' कुलश्रेष्ठ, से पहले अशोक
ही लगता है।
'सर', मैं अपनी आज्ञाधीनता दर्ज करता हूँ। अपने फौलोअर्ज़ और
गनर को बॉस वहीं रूके रहने का संकेत देते हैं और मेरे साथ आगे
बढ़ लेते हैं।
'बुढ़ऊ अभी भी अन्दर है क्या?' वे आवेशित हैं।
'येस, सर .. '
'मैं बता रहा हूँ, निझावन, इन मध्यवर्गीय लोगों को आप एक इंच
भी देते हैं तो वे एक पूरा मील जीत ले जाना चाहते हैं ..'
'येस, सर .. ' 'कहिए', बॉस मेरे कमरे में दाखि़ल होते हैं।
अपने धूप के चश्मे को आँखों पर चढ़ाये-चढ़ाये। उन्हें सामने
पाकर चन्द्रमोहन क्वात्रा अचरज से मेरा मुँह ताकते हैं,
'तुमने इसे यहाँ बुलाया है?'
'आप भूल रहे हैं इस जिले का मैं कप्तान हूँ और मेरा कोई भी
सी.ओ. मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता। क्यों, निझावन?'
'सर', मैं अपना सिर झुकाता हूँ। प्रोटोकॉल के अधीन।
चन्द्रमोहन क्वात्रा अपनी कुर्सी पर ज्यों के त्यों बैठे
रहते हैं। बॉस के सम्मान में खड़े होने की चेष्टा तक नहीं
करते। बॉस के लिए शायद यह नयी बात नहीं है। वे इसे सहज
स्वीकार कर रहे हैं, मानो चन्द्रमोहन क्वात्रा की यह आदत
रही हो और बॉस उनकी इस आदत के अभ्यस्त हों।
'आप सीधे मेरे पास क्यों नहीं आये?' स्वप्रेरक मुद्रा में
बॉस मेरी कुर्सी पर जा बैठे हैं। उनकी तरफ से अपने बैठने का
कोई संकेत न पाकर मैं उनकी बगल में खड़ा हूँ।
'तुम्हारे पास आता तो क्या तुम बौरज़ो मुझे सौंप देते? या
फिर स्वीकार कर लेते, उसे भी तुमने आशा की तरह ख़त्म कर डाला
है? चन्द्रमोहन क्वात्रा तन लिये हैं।
'यू आर इन अ टिज्जी है। आप का चित्त अव्यवस्थित है ...'
'चित्त तो तुम्हारा भी व्यवस्थित नहीं रह पाएगा जब नवाब
टोला के रहने वालों के सामने तुम्हें बुर्का पहनाकर चलने पर
मजबूर किया जाएगा और वे कहेंगे - हाँ, हाँ। यह ठेलमठेल और यह
डील-डौल पहचान रहे हैं। यही है वह बुर्के वाली है जिसने आशा
क्वात्रा के कुत्ते को अगवा किया है ... '
'क्लैम अप। चुप रहो।' 'मैं चुप नहीं रह सकता। चुप नहीं
रहूँगा... '
'आप शायद जानते नहीं नवाब टोला में आधी से ज़्यादा स्त्रियाँ
बुर्का पहनती हैं और...'
'आप नहीं जानते, यहाँ के सिविल अस्पताल में मेरे एक
विद्यार्थी की बहन डॉक्टर है जो मुझे आप लोगों की पूरी ख़बर
भेजा करती थी। उसे मालूम है आशा को तुमसे गर्भ ठहर गया था और
वह भ्रूण की डी.एन.ए. रिपोर्ट भी तैयार करवाएगी ..'
'डू अ डबल-टेक। दोबारा विचार कीजिए। आशा नाबालिग नहीं थी।
बेपढ़ भी नहीं थी। उसका गर्भ उसके यौनसुख का फल था, किसी
बलात्कार का नतीजा नहीं। मैं आपको बता रहा हूँ वह मुझ पर बुरी
तरह रीझी हुई थी...'
'और बदले में तुमने उसे जला डाला?' चन्द्रमोहन क्वात्रा के
चेहरे की सभी मांसपेशियाँ और हड्डियाँ हरक़त में आ रही हैं।
उनकी भौहें उनके माथे की त्यौरियाँ छूने लगी हैं। फूले हुए
उनके नथने उनकी गालों पर मुड़क लिये हैं। दाँत एक दूसरे पर
मसमसा रहे हैं और जबड़ा ऊपर-नीचे चढ़-उतर रहा है। उनकी ठुड्डी
और गरदन की झुर्रियाँ और लकीरों को उभारता हुआ।
'शिक़ायत करने की आपकी आदत से मैं अघा गया हूँ', बॉस के स्वर
में अहंकार भरी खीझ है, 'सच आप मुझसे सुनिये। नवाब टोला वाले
गवाह हैं इधर कुछ दिनों से उसके घर से उसके कुत्ते की भौंक के
साथ कुछ-न-कुछ जलने की बदबू उन्हें बराबर आया करती थी। कभी
कपड़ा, कभी चमड़ा, कभी प्लास्टिक, कभी पॉलीथीन। उनके पूछने पर
अव्वल तो पहले वह दरवाज़ा खोलती ही नहीं और जब खोलती तो कभी
बोलती, मैं फल और सब्जियों के छिलके जला रही हूँ, कभी बोलती
मैं अपने पुराने कपड़े जला रही हूँ, कभी बोलती मैं अपने पुराने
जूते जला रही हूँ। उसी झख में परसों उसने अपने आपको जला डाला
है। यह सीधा-सीधा एक आत्महत्या का केस है।'
बिना कोई
चेतावनी दिये चन्द्रमोहन क्वात्रा गोली की गति से अपनी
कुर्सी से उठते हैं और मेज़ की दूसरी तरफ़ बैठे बॉस पर झपट
लेते हैं। अप्रत्याशित इस आक्रमण की प्रतिवर्ती क्रिया में
बॉस गिर रहे अपने धूप के चश्मे को सँभालने की बजाय अपने हाथ
अपने रिवाल्वर की दिशा में बढ़ा रहे हैं। उन्हें रोकने के
लिए मैं मेज़ पर रखी अपनी घंटी टनटनाता हूँ। पूरे ज़ोर के साथ।
चन्द्रमोहन क्वात्रा छिटककर बॉस से अलग हो लेते हैं।
'हुजूर!', 'हुजूर!', 'हुजूर!'
थाने में जमा सभी पुलिस-बूट मेरे कमरे में पहुँच रहे हैं।
सलामी देकर 'सावधान' की मुद्रा में बॉस से अपने आदेश लेने
हेतु। लेकिन बॉस उन्हें कोई आदेश नहीं दे रहे। वे चुप हैं।
चतुर हैं जो अपनी सार्वजनिक छवि जोखिम में नहीं डाल रहे। मैं
उनके समीप पहुँचता हूँ और ज़मीन पर उनका धूप का चश्मा उठाकर
मेज़ पर टिका देता हूँ। तत्काल वे उसे मेज़ से उठाकर अपनी
आँखों पर चढ़ा लेते हैं और वापस मेरी कुर्सी पर बैठ जाते हैं।
चन्द्रमोहन
क्वात्रा अब सुरक्षित है।
'आइए', मैं उनकी पीठ घेर लेता हूँ, 'मैं आपके साथ बाहर चलता
हूँ...'
'मुझे रास्ता मालूम है', वे मेरा हाथ पछाड़ देते हैं, 'मुझे
सभी रास्ते मालूम हैं और मैं अपनी लड़ाई जारी रखूँगा। और मुझे
खु़शी है तुम मेरे पुत्र नहीं हो ...'ऐसी नीच और दोहरी मनफ़ी
से कुछ कहना-सुनना प्रतिष्ठा के एकदम विरूद्ध है!'
'येस, सर', मेरे कमरे में जमा सभी अधिनस्थ कर्मचारी समवेत
स्वर में अपनी जीहुजूरियाँ प्रदर्शित करते हैं। मेरे
अतिरिक्त।
मुझे काठ मार गया है। |