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जाफर मियाँ
शहनाई के लिए मुहल्ले क्या अपने पूरे कस्बे में मशहूर
थे। तीन-चार बजते ही वे शहनाई लेकर चबूतरे पर आ बैठते और धूप
निकलने तक बजाते रहते। वे शहनाई बजाते और ढोल पर साथ देता उनका
दोस्त, सम्भू। सम्भू शहनाई के बजते ही उठ बैठता और जाफर मियाँ
के साथ ताल भिड़ाता। बताने वाले बताते हैं कि शहनाई का ऐसा
बजैया और ढोल का ऐसा पिटैया कस्बेत क्या, दूर-दूर के इलाके में
दूसरा न था। सवेरे शहनाई और ढोल न बजे तो मुहल्ले के लोगों की
आँखें न खुलती थीं। लगता कि रात है, अभी सोये रहो।
लेकिन अब न शहनाई है और न ढोल की आवाज़। लम्बे समय से सब कुछ
ख़ामोश है जैसे सज़ा दे दी गयी हो। और वास्तलव में सजा दे दी
गयी थी। ढोल और शहनाई को नहीं, जाफर मियाँ को। उस सजा से जाफर
मियाँ इतने ग़मगीन हुए कि उन्होंने शहनाई बजाना ही छोड़ दिया।
शहनाई से जैसे उनका कभी कोई ताल्लुक ही न रहा हो! और जब शहनाई
नहीं बज रही थी तो ढोल क्यों बजेगा? सम्भू ने मारे अफ़सोस में
ढोल खूँटी के हवाले कर दिया।
रहे शहनाई और
ढोल के आदी लोग, उन्हें लगता है कि शहनाई और ढोल की आवाज़ बस
उठने ही वाली है। ऐसा वे सोच तो लेते पर तुरन्त ही अपनी गलती
महसूस करते। शहनाई क्या, जाफर मियाँ ने तो दर्जीगिरी तक छोड़
दी। कुछ नहीं करते वे। चबूतरे पर हर वक़्त ग़मगीन से बैठे
रहते। |