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ये मेरे आज की तस्वीर है। मेरी तस्वीर, रौनक लाल की और मेरे निष्ठुर वर्तमान की। अतीत के मोह से जकड़ा हुआ मैं आज इस वर्तमान तक पहुँचा हूँ। पराजित। और भविष्य का कुछ पता नहीं। हमारे चेहरे पर क्या उम्र के ही निशान पड़ते हैं? हमारी अतृप्त इच्छाएँ, हमारे अभाव, अवसाद और गहरे दुखों की काली छायाओं के चिन्ह भी होते हैं जो चुपचाप हमारे चेहरे पर घर बनाकर बैठ जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता।

तकरीबन तीस साल हो गये जब मुझे ये शौक लगा। तब तेरह-चौदह की उम्र थी मेरी। मैं मण्डी हाउस की एक चाय की दुकान पर काम करता था। मण्डी हाउस का हर कलाकार उस चाय की दुकान पर चाय पीने आता था। वे कलाकार चाय पीते-पीते एक्टिंग करते, अपने संवाद बोलते, नाटकों की बात करते। हर किसी का यही सपना था कि उसे सबसे बेहतरीन रोल मिले, पहचान मिले, यश मिले। छोटे बड़े सभी थियटर ग्रुपों का यही हाल था, श्रीराम सेन्टर के कलाकारों का, रिपर्टरी कम्पनी के कलाकारों का, सभी एक ही उम्मीद पर जी रहे थे। अपनी दुकान पर, मण्डी हाउस के गोल चक्कर पर, श्रीराम सेन्टर के सामने फुटपाथ पर, जहाँ-जहाँ भी मैं चाय देने जाता था मैं बड़े ध्यान से उनकी बातें सुनता, उनके संवाद सुनता और चुपचाप उन्हें याद भी कर लेता। शायद ये ईश्वर की देन थी कि मेरी याददाश्त बहुत तेज थी। जो कुछ भी मैं सुनता वह मेरे मस्तिष्क के किसी कोने में कब्जा करके बैठ जाता। कितने तो नाटकों के नाम मुझे मालूम हुए थे और कितने ही नाटक ग्रुप। हर ग्रुप वाला दूसरे से बेहतर करने के लिए पागल रहता था। और ये नाट्य विद्यालय वाले तो किसी को कुछ समझते ही नहीं थे। क्या जमाना था वो भी। बहुत हिम्मत, बहुत समर्पण, बहुत जोश था कलाकारों में, हार ना मानने का जज्बा।

मुझे आज भी बहुत कुछ याद है, कितने ही संवाद, जिन्हें मैं आज भी अपने कमरे में दोहराता हूँ मानों रिहर्सल कर रहा हूँ। मेरा छोटा भाई, उसका परिवार, हमारी किरायेदार लड़की और पड़ोसी मुझे पागल समझते हैं। सच भी है, ये। मैं बरसों पहले ही पागल हो गया था। उसका नाम...। नाम नहीं लूंगा। नाम लूंगा तो वह आज भी बदनाम हो जायेगी। मुझे नहीं पता आज वह कहाँ है? मैंने तो उस दिन के बाद से उसकी सूरत ही नहीं देखी। और वैसे भी लड़कियों में नाटक के लिए जुनून विवाह होने तक ही होता है। उसके बाद तो वे आज्ञाकारी पत्नी और बहू के रोल में आ जाती हैं। ससुराल ही उनका रंगमंच होता है। वो भी ऐसे ही किसी रंगमंच पर होगी।

मेरा जो भी अनुभव है, ज्ञान है, नाटकों, उनके पात्रों और रंगमंचीय कल्पना का, वह मण्डी हाउस में
मेरे चाय की दुकान पर काम करने के समय का ही है और उसके बाद मैंने अपने जुनून से अर्जित किया है।

जब मैंने नाटकों के लिए काम छोड़ा तो मुझे इतना पैसा भी नहीं मिला जो मुझे चाय की दुकान पर काम करके मिल जाता था। बदले में काम मुझसे बहुत ले लिया जाता था, सामान उठाना, सबके कपड़े स्त्री करना, रंग सज्जा में मदद करना, पानी पिलाना और भी न जाने क्या क्या। इतना करने के बावजूद भी मेरे अतीत से जुड़ा हुआ 'चाय वाला छोटू` नहीं मिटा था। वहाँ भी बहुत बड़ा वर्ग संघर्ष था। फिर भी मैं सन्तुष्ट था कि मैं रंगमंच के लिए समर्पित हूँ, उसमें कुछ योगदान कर रहा हूँ। मुझे कुछ संक्षिप्त से रोल भी मिले मगर मेरी भूख तो बड़ी थी, गहरी थी।

मैं अन्धा युग का कृष्ण बनना चाहता था - 'अट्ठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में/कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूँ करोड़ों बार/जितनी बार जो भी सैनिक भूमिशायी हुआ/कोई नहीं था/मैं ही था/गिरता जो घायल होकर रणभूमि में।/अश्वथामा के अंगों से/रक्त पीप स्वेद बन कर बहूँगा/मैं ही युग युगांतर तक/जीवन हूँ मैं/तो मृत्यु भी मैं हूँ मां/शाप यह तुम्हारा स्वीकार है।`
कोर्ट मार्शल का बिकाश राय बनना चाहता था - 'सवाल ये नहीं कि रामचन्द्र को फाँसी होगी या नहीं, सवाल ये है कि पहले कौन मरेगा?`

पंक्षी ऐसे आते हैं का अरुण बनना चाहता था - बगैर किसी लगाव के बस घूमते जाना। पीछे छूट गये पथ से अपने को तोड़ते जाना, आगे चलना और आगे देखना। जहाँ पहुँच गये वहाँ सब कुछ अपना। जहाँ से चल पड़े वहाँ का सब कुछ दूसरे ही क्षण में औरों का। जीने का आसान सा नियम। न कोई मोह न उससे महसूस होने वाली कोई तकलीफ।

मैकबेथ का मैकबेथ बनना चाहता था - 'ओह! अब क्या हूँ मैं? एक तंग रास्ते में भिंच जाने वाला
दयनीय प्राणी, जिसका हृदय भय और श्ंका से हर पल बेचैन है!!`

और कालिगुला का कालिगुला बनना चाहता था - 'तर्क कालिगुला। देखो तर्क कहाँ ले जाता है। शक्ति अपनी सर्वोच्च सीमा तक, इच्छाशक्ति अपने अनन्त छोर तक। शक्ति तब तक सम्पूर्ण नहीं होती जब तक अपनी काली नियति के सामने आत्मसमर्पण न किया जाये। नहीं अब वापसी नहीं हो सकती मुझे आगे बढ़ते ही जाना है।`

...लेकिन मैं कुछ भी न बन सका। मगर हाँ, मैं पढ़ने बहुत लग गया था। वैसे मैं अधिक पढ़ा लिखा नहीं हूँ। चौथी कक्षा तक ही मैंने पढ़ाई की थी मगर हिन्दी नाटकों और कहानियों की पुस्तकें पढ़-पढ़कर मैंने बहुत कुछ सीखा। मेरे आचरण में बहुत बदलाव आया। मैं इंसान बन गया।

मेरा आखिरी नाटक 'आषाढ़ का एक दिन` था और ग्रुप भी। उसके बाद सब छूट गया। ग्रुप में जो
हो रहा था वह तो था ही, साथ ही घर का भी बहुत दबाव पड़ रहा था कि मैं किसी काम धन्धे से लगूं ताकि घर में सहारा लग सके। उनकी नजर में नाटक नौटंकी कोई काम थोड़े ही था। नहीं, मैंने खुद नहीं छोड़ा था। मुझे निकाला गया था। मैंने उसके साथ अशिष्टता जो की थी।

वह ग्रुप में दूसरे नम्बर पर थी और इस नाटक में वह नायिका का रोल कर रही थी, मल्लिका का। जब उसने कह दिया था कि इस ग्रुप में या तो मैं रहूँगा या वो तो सभी एक मत से मुझे निकालने में सहमत थे क्योंकि मेरे रहने न रहने से उनका कोई नफा नुकसान नहीं था। वह मंचन से दो रात पहले की बात थी। मुझे आज भी वो रात याद है, बारह मई उन्नीस सौ अट्ठासी।

नाटक का पात्र विलोम कह रहा था, 'विलोम क्या है? एक असफल कालिदास। और कालिदास? एक
सफल विलोम। हम कहीं एक दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं।`
कालिदास कह रहा था, 'जानती हो, इस तरह भीगना भी जीवन की एक मह ्रवकांक्षा हो सकती है? वर्षों के बाद भीगा हूँ। अभी सूखना नहीं चाहता।`
मल्लिका कह रही थी, 'मैंने भावना में एक भावना का वरण किया है। मेरे लिए वह सम्बन्ध और सब सम्बन्धों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है।`

अम्बिका कह रही थी, 'किसी सम्बन्ध से बचने के लिए अभाव जितना बड़ा कारण होता है, अभाव की पूर्ति उससे बड़ा कारण बन जाती है।`
प्रियंगुमंजरी कह रही थी, 'इस सौन्दर्य के सामने जीवन की सब सुविधाएँ हेय हैं। इसे आँखों में
व्याप्त करने के लिए जीवन भर का समय भी पर्याप्त नहीं।`
मैं निक्षेप का रोल कर रहा था, 'योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। श्ो पूर्ति
प्रतिष्ठा द्वारा होती है।`

फिर बाद में अनुस्वार का रोल दिया गया और अन्तिम दिन नाटक से ही निकाल दिया गया।

मैं नाटक से निकल तो गया मगर ये नाटक मुझमें से नहीं निकला। मैंने आषाढ़ का एक दिन पूरा याद किया और हर पात्र का रोल मैंने ही अदा किया। आज भी यह नाटक मुझे याद है, एक-एक वाक्य, एक-एक संवाद, सब कुछ। विलोम का व्यंग्य, मलिल्का का प्रेम, अम्बिका की असमर्थता भरी पीड़ा, प्रियंगुमंजरी का अहंकार और कालिदास की विवशता। सब कुछ मेरी नसों में दौड़ रहा है। आज भी इस नाटक को मुझे मंचित करने का अवसर दिया जाये तो मैं अकेला ही पूरा नाटक खेल सकता हूँ।

मैंने ऐसा क्या कह दिया था? मैंने तो उसके प्रेमी अक्षत के शब्दों को दोहराया भर था जो उसे पसन्द नहीं आये थे। शब्द वही थे, सही थे पर मु ँह दूसरा था। वह मल्लिका का रोल कर रही थी, हेमन्त कालिदास का और अक्षत विलोम का। ग्रुप में सभी को मालूम था वह और अक्षत एक दूसरे को चाहते है और जल्द ही विवाह के बन्धन में भी बँधने वाले थे। दोनों चाहते थे कि कालिदास का रोल अक्षत को मिलता मगर हमारे निर्देशक शर्मा ने उसे कालिदास का रोल नहीं दिया था क्योंकि उनके अनुसार अक्षत कालिदास के साथ न्याय नहीं कर पायेगा। मैंने रिहर्सल में ही देखा था। हेमन्त ने कालिदास की व्यथा को जीवन्त कर दिया था, 'जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही संचय था। 'कुमारसम्भव` की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। 'मेघदूत` के यक्ष की पीड़ा मेरी ही पीड़ा है और विरह-विमर्दिता यक्षिणी तुम हो यद्यपि मैंने स्वयं यहाँ होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की। 'अभिज्ञान शाकुन्तल` में शकुन्तला के रूप मे तुम्हीं मेरे सामने थीं। मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया।`

उस दोपहर आखिरी रिहर्सल थी, पूरी होते-होते शाम हो गयी थी। धीरे-धीरे सभी लोग चले गये थे। मैं और किशोर सामान समेटने के लिए रह गये थे। किशोर थोड़ी देर के लिए बाहर गया था। मैं वहाँ अकेला था लेकिन मुझे नहीं पता था कि वह और अक्षत अभी वहीं है। गलियारे के अन्तिम सिरे के छोटे कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दे रही थीं। मैं दबे पाँव वहाँ पहुँचा और आवाजें स्पष्ट हुईं तो मालूम हुआ।

मेरे कानों में अक्षत की आवाज सुनाई दी, 'देवी मल्लिका, यह अकिंचन विलोम अपनी जिह्वा से आपकी देहयात्रा करना चाहता है, कृपया अनुमति दें।`

मल्लिका का खिलखिलाता और शरारती स्वर, 'आर्य विलोम, आपकी भाषा अशिष्ट हो रही है। आप शिष्टाचार की सीमा लाँघ रहे है। अनुचित इच्छाओं का मोह त्याग दें आर्य।`

'इस इच्छापूर्ति के पश्चात् विलोम सारे मोह त्याग देगा।`, विलोम का स्वर भी शरारती हो गया।
'आपकी इच्छापूर्ति के लिए मुझे अनावृत्त होना पड़ेगा।`
'संकोच न करें देवी। प्रत्येक देह का अपना आकर्षण होता है।`

अभी तक जो सुना उससे मैं घबरा गया। मेरा गला सूख गया और दिल जोर-जोर से सीने पर हथौड़े मार रहा था। कमरे का दरवाजा बन्द था। उस स्थिति के हिसाब से मैं जो कर सकता था मैंने किया।

'किशोर? किशोर? अरे, कहाँ मर गया?`, मैं दरवाजे के सामने पहुँचकर चिल्लाया।

उस समय के उनके चेहरे तो मैं नहीं देख पाया था क्योंकि बाहर आने पर उनके चेहरे सामान्य थे। आखिर स्टेज आर्टिस्ट थे, फौरन भाव पलट गये। दोनों सहज भाव से निकलकर चले गये।

और अगले दिन मैंने उसे अकेले में अक्षत का संवाद नाटकीय ढंग से सुना दिया, 'देवी मल्लिका, इस इच्छापूर्ति के पश्चात् विलोम सारे मोह त्याग देगा।`

इस छोटी सी गलती का बहुत बड़ा दुष्परिणाम हुआ। कई मिथ्या आरोपों के साथ मुझे निकाल दिया गया।

मुझे 'अन्तिम अरण्य` में निर्मल वर्मा की लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी- 'क्या आदमी खुद अपने बीते के बारे में तय कर सकता है, वह क्या था? अब क्या है? जैसे हम बचपन में किवाड़ पर पेंसिल का निशान लगाकर अपनी लम्बाई नापते थे...एक दिन जब हम सचमुच बड़े हो जाते हैं तो सूखे काठ पर छुटपन के वे निशान कितने बेमानी जान पड़ते हैं।`

पुरानी बातें याद करना सचमुच बेमानी है.............।
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प्रस्तुत दोनों रचनाएँ काल्पनिक है। इनका तस्वीरों से या किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है।

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९ मई २०११

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