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					 'पर 
					तुम्हें तो दहेज में तबला और तानपूरा मिला होगा।' मैंने पूछा। 
					मुझे उसी ने एक बार बताया था कि जिससे वह शादी कर रहा है, वह 
					म्यूजिक की कुछ डिग्री लिए है और इसलिए उसे भी शास्त्रीय 
					संगीत का शौक होता जा रहा है। 
 मेरी बात से लगता था, दोनों सकपका गए थे या शायद मेरी बात समझे 
					न हों, मेरा मतलब मन लगाने के लिए था, मच्छर भगाने के लिए 
					नहीं।'
 
 'हाँ, हाँ। ही, ही।' वह बोला लेकिन उसकी नवेली खिलखिला कर हँस 
					पड़ी। मैंने देखा, गहरी लाल लिपिस्टिक उसके मसूढ़ों में भी 
					फैली हुई है। मेरा मन हुआ, उससे पूछूँ कि लिपस्टिक का स्वाद 
					कैसा होता है लेकिन फिर सोचा, पहली-पहली बात के लिए यह विषय 
					अच्छा नहीं रहेगा। फिर यहाँ से विदा होने के बाद वह उससे 
					कहेगी, 'तुम्हारे ये दोस्त केसी बातें करते थे?'
 
 और वह उसकी गलती ठीक करते हुए कहेगा, 'दोस्त नहीं, मेरे टीचर 
					हैं ये।' मैं जानता हूँ कि इससे पहले भी वह यह बात एक हज़ार 
					बार बता चुका होगा। वैसे मैंने जिंदगी भर दूसरों की गलतियाँ ही 
					ठीक की हैं, सिवाए अपनी गलती सुधारने के जिसका तो उसे कभी मौका 
					ही नहीं मिला। एक माँ-बाप की इस गलती को ठिकाने लगाने के लिए 
					ही तो उसने यह शादी भी की है और इस शादी पर जो रुपया उसने खर्च 
					किया है वह भी उसे किसी की गलतियाँ सुधारने के लिए मिला था। 
					उसने बताया था कि जमैन कांसुलेट के एक व्यक्ति की हिंदी 
					पुस्तक की पांडुलिपि सुधारने के काम के उसे छह सौ रुपए मिलने 
					वाले हैं।
 
 यह उसी ने मुझे याद दिलाया था, बंबई जाने पर अपना परिचय देते 
					हुए कि मैं अध्यापन के दिनों में उसका टीचर रह चुका हूँ। और 
					तभी से मुझे उसके नाम के सिर्फ़ मायने याद रह गए थे - 
					स्टूडेंट। कई बार हमें व्यक्ति के नाम याद नहीं रहते, उनके 
					जुड़ी और कई बातें याद रह जाती हैं, जो नाम से ज़्यादा यादगार 
					बन जाती हैं। जैसे मेरे एक परिचित के नाम का मायना है - लाल 
					घोड़ा और अब यह मायना मुझे उस व्यक्ति से ज़्यादा याद रहता 
					है।
 
 'तो तुम्हारे ठहरने की समस्या ज्यों-की-त्यों है।' मैंने 
					कहा, 'मैंने तो समझा था कि बंदोबस्त हो चुका होगा। वैसे मैं 
					इसमें कुछ कर भी नहीं सकता था। मुझे तुम्हारी चिट्ठी मिली तो 
					थी लेकिन तब मैं अस्वस्थ था।'
 
 दोनों चाबी के खिलौने सोफ़े पर बैठकर मेरी बात सुन रहे थे और 
					दोनों की आँखों में एक-एक प्रश्नवाचक था। औरत की आँखों में 
					इसके अलावा थोड़ा काजल भी था। वह एक मामूली लड़की लगती थी और 
					लगता था, शादी की तरह उसने ये जेवर, लिपस्टिक, चमकदार 
					साड़ी-ब्लाउज, ऊँची ऐड़ी की सैंडिल - सब पहली बार पहने थे।
 
 'बंबई में यही तो सबसे बड़ी समस्या है।' मैंने उनके 
					प्रश्नवाचक को और अधिक एनलार्ज करने के लिए कहा, 'और यहाँ 
					लोगों के अपने फ्लैट तो इतने छो टे होते हैं कि उसके एक और 
					'कपल' को एडजस्ट करने की गुंजाइश नहीं होती। तुमने किसी दूसरे 
					होटल में ट्राई नहीं किया क्या?'
 
 'लेकिन ...' वह रुका, शायद वह यहाँ 'सर' कहना चाह रहा था, फिर 
					कुछ सोच कर रुक गया। 'ये तो होटल के नाम से ही डरती है। 
					इन्होंने नॉवलों में बंबई के होटलों के बहुत किस्से पढ़े 
					हैं। किसी भी होटल में ये एक घंटा भी अकेली नहीं रह पाएँगी और 
					मुझे तो आज से ही ड्यूटी ज्वाइन करनी है।'
 
 तो इसे भी जेब में डालकर साथ ले जाओ न। मेज़ पर कलमदान की तरह 
					सजा देना - मैं कहना चाह रहा था, और यह भी, बंबई की ये सारी 
					समस्याएँ जानते हुए भी क्यों साथ-साथ बाँधे चले आए थे। लेकिन 
					सोचा कि उस पर ताज़ी शादी की चोट ही अभी काफ़ी है, एक और चोट 
					क्यों की जाए?
 
 मैं थोड़ी देर और चुप रहा और उनके प्रश्नवाचक का परिमाण बढ़ते 
					देखता रहा व जब वे इतने बड़े हो गए कि आँखों से बाहर निकल 
					पड़े, मैंने कहा, 'जब तक कुछ और प्रबंध न हो तुम दोनों मेरे 
					यहाँ आ सकते हो।'
 
 इस बात की प्रतिक्रिया या उत्तर जानने से पहले ही मुझे वहाँ 
					से जाना पड़ा। बॉस ने बुलाया था, सो उन्हें लगभग विदा करके 
					अंदर चला गया। लौट कर आने पर उन्हें वहाँ न पाया। शाम को घर 
					पर प्रतीक्षा रही कि शायद वे दोनों आते हों, लेकिन वे लोग नहीं 
					आए। इसके बाद का एक सप्ताह इतनी व्यस्तता में बीता कि उन 
					लोगों का मुझे ध्यान भन न आ पाया।
 
 लेकिन एक दिन फिर तीन बजे वह मेरी मेज़ के सामने खड़ा था। पर 
					आज फिर से पहले वक्तों की तरह उसके चेहरे पर बारह बज रहे थे। 
					मैंने अपनी घड़ी की ओर देखा फिर उसकी तरफ देखा। मेरा 
					प्रश्नवाचक उसकी आँखों में झाँकने लगा था।
 
 'जी वह बहुत दु:खी है। उसे बंबई कतई पसंद नहीं आ रही है।' वह 
					बोला।
 
 तो क्या डॉक्टर ने बताया था, बंबई आने को? बंबई कब चाहती है 
					कि उसे हर कोई पसंद करे? लोग पहले तो चले आते हैं मुह उठाए, 
					फिर बंबई को कोसते फिरते हैं। मैं उसकी बात से झुँझलाना चाहता 
					था पर उसके चेहरे पर एक पर एक जमी सूइयों को देखकर तरस खा गया।
 
 'वह पूरी की पूरी रात जागती है। दिन में अकेलेपन की दहशत उसे 
					डराती रहती है।'
 
 'हूँ', मैंने कहा - 'तुम लोग अब रह कहाँ रहे हो? जगह तो ठीक है 
					न?'
 
 'जी, वह तो है लेकिन उसे सब नया-नया लगता है। किसी को जानती 
					नहीं। जो दिखता है, उससे सिर्फ डर लगता है।'
 
 'तुझे भी तो सब नया ही लगता होगा रे अहमक। जब नई जगह आकर रहोगे 
					तो नया तो लगेगा ही।' मैंने उस पर तीखी नज़र डाली। वह इतनी 
					बेवकूफ़ी की बातें पहले तो नहीं किया करता था। शायद उसकी अक्ल 
					पर भी असर डाल रही होगी।
 
 मुझे चुप देखकर भी वह चुप नहीं रहा। लगता था, उसे बहुत कुछ 
					कहना था। 'फिर हम लोग अभी तक दूध पीते रहे हैं। यहाँ तो हर जगह 
					चाय मिलती है, और दाल-भाजी में चीनी पड़ी होती है।'
 
 तो मैं क्या करूँ? होटलवालों से क्या इसके लिए झगड़ा करूँ? 
					चीनी-गुड़ तो वैसे ही या शायद इन्हीं के कोसने से महँगे होते 
					जा रहे हैं।
 
 'क्या वहाँ इतनी जगह नहीं है कि वह खाना खुद बना सके?' मैंने 
					प्रकट में कहा।
 
 'वह तो हो सकता है, लेकिन खाना बनाना मुझे तो आता नहीं, और 
					....'
 
 झुंझलाहट मेरे सिर पर सवार होती जा रही थी। कुछ देर वह अगर इसी 
					तरह अहमकपना दिखाता रहा तो यदि वह उस पर धम्म से कूद पड़ती तो 
					अचरज न होता, लेकिन मैंने उसका हाथ पकड़ कर रोक लिया और फिर 
					उसकी तरफ़ घूर कर देखा।
 
 शायद वह मेरी नज़र से सकपका गया। कुछ अटक-अटक कर बोला, 'उसकी 
					तो अभी मेंहदी भी नहीं छूटी है, वह खाना कैसे बनाएगी?'
 
 तो मेंहदी को देख-देखकर ही पेट भर लिया करो दोनों। मैं 
					भीतर-ही-भीतर उबलता जा रहा था। उसके चेहरे पर सुइयाँ 
					ज्यों-ही-त्यों लटकी हुई थीं। अब उनसे कुछ टपकने भी लगा था। 
					मैंने अँगुली से छूकर देखा ... वह निरीहता थी, बिल्कुल ताज़ी 
					और गरम। मुझे उस पर गुस्से के बजाए तरस आने लगा।
 
 'सुनो, तुम आज शाम मेरे यहाँ खाना खाने आ जाओ और जब भी 
					तुम्हें सुभीता हो, शाम का खाना तुम दोनों वहाँ खा सकते हो।' 
					और मैंने नज़र अपनी मेज़ पर फैले काम पर गड़ा ली।
 
 उसे अब चले जाना चाहिए था लेकिन वह गया नहीं क्योंकि चंद मिनट 
					बाद मुझे फिर उसकी आवाज़ सुनाई दी, 'मैं सोचता हूँ कि अगर मैं 
					हर सुबह उसे आपके घर छोड़ता हुआ दफ्तर आऊँ ..'
 
 मैंने सिर उठाए बिना ही कह दिया, 'ठीक है।'
 
 वह शायद तुरंत चला गया क्योंकि मुझे देर तक उसका घिघियाता हुआ 
					स्वर सुनाई नहीं दिया। जब मैंने सिर पर झुँझलाहट को फाड़ने के 
					लिए उसे ऊपर उठाया तो देखा कि वह वहाँ न था। मैंने मुस्कुरा 
					कर राहत को सिगरेट की तरह सुलगा लिया।
 
 लेकिन वे दोनों नहीं आए-न तो शाम के समय खाने पर और न अगले दिन 
					सुबह। मैंने सोचा कहीं अटक गए होंगे या इस बीच कोई ठीक-सा 
					इंतजाम हो गया होगा।
 
 शायद वक्त महीनों की मिकदार में बीत चुका होगा कि एक दिन 
					चपरासी ने खबर दी कि मुझसे मिलने कोई महिला आई है। यहाँ तक 
					अचरज से चौंक उठने की कोई बात नहीं थी। वह तो तब पैदा हुई जब 
					मैंने लॉबी में आकर देखा।
 
 ख़ासी आधुनिक बनी एक महिला इंतज़ार में थी। मैंने गौर से दखा 
					और अपनी याददाश्त को कुरेदने लगा। तो वह वही थी जिसका कोई 
					मर्दाना-सा नाम था, तब जब कि वह चमकदार कपड़ों में थी और सहमी 
					हुई बैठी रही थी।
 
 उसने हाथ जोड़कर नमस्ते की और खासी शालीनता से बोली, 'मैं 
					मिसेज ...'
 
 मैं इससे पहले उसकी आवाज़ नहीं सुनी थी। उस बार वह बस, एक बार 
					फूहड़पने से खिलखिला कर हँसी भर थी, बोली नहीं थी। और मुझे याद 
					है, तब लिपस्टिक उसके दाँतों में फैली हुई थी। आज वह वहाँ से 
					गायब थी और सिर्फ होठों पर थी। बोली में तो नफ़ासत घोलने की 
					कोशिश की थी लेकिन लहज़े में फूहड़पन अभी भी बाकी था।
 
 उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही मैंने कहा, 'जी, मैंने पहचान 
					लिया। कहिए, कैसीं हैं?'
 
 'जी, ठीक हूँ .. वे ..'
 
 उसने हाथ इस तरह घुमाया जैसे कहीं दूर वह खड़ा हो और वह उसकी 
					तरफ़ इशारा कर रही हो।
 
 मैंने देखा हथेली पर मेंहदी नहीं थी, शायद अब वह उतर चुकी 
					होगी। मन हुआ कि पूछूँ - अब तो आप खाना बनाने लगी होंगी? लेकिन 
					मैंने पूछा, 'क्या हुआ उसे? कहीं क्या बीमार है?'
 
 'जी नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। दरअसल हम लोग फॉरेन जा रहे हैं।'
 
 मैंने चौंक कर ऊपर देखा। छत थी और ठीकठाक थी, आसमान रहा होता 
					तो ज़रूर गिर पड़ता। फिर अपने कदमों की तरफ देखा, ज़मीन खिसक 
					चुकी थी और अगर मैं आदतन दीवार का सहारा लेकर खड़ा न होता तो 
					मैं गिर भी चुका होता।
 
 थोड़ा प्रकृतिस्थ होने पर मैंने महसूस किया कि उसके 'फॉरेन' 
					शब्द के उच्चारण में हरियाणवी फूहड़पन ज़रूरत से ज्यादा 
					बाकी रह गया है। मैं बोला कुछ नहीं सिर्फ़ उसके चेहरे पर 
					नज़रें गड़ा लीं। वह जैसे उनकी चुभन से तिलमिलाकर बोली, 
					'इन्हें लंदन में एक स्कॉलरशीप मिल गया है ..'
 
 तो यह बताने के लिए तुम्हें क्यों भेजा है, उसके पाँवों में 
					क्या मेंहदी लगी है? कहना तो यह चाहिए था लेकिन शिष्टाचार ने 
					आगे बढ़कर पहले ही बोल दिया, 'वह कहाँ है?'
 
 'जी', उसके होठों ने लिपस्टिक की लकीर से गोल-गोल 'ओ' बनाया और 
					कहा, 'वह बात यह है कि हम लोग परसों ही जा रहे हैं। वे वीज़ा 
					वगैरह की दौड़धूप में लगे हैं। आज शाम को आप हमारे साथ चाय 
					लें, यह वे चाहते हैं। मैं इसलिए ..'
 
 वह इतनी देर तक धाराप्रवाह बोल सकती होगी, मेरी कल्पना से परे 
					था। मैंने लक्ष्य किया कि उसके उच्चारण में धीरे-धीरे 
					कृत्रिमता की ताजी-ताजी परत चढ़ती जा रही है। वह जो पहले-पहले 
					दिन एक मामूली औरत लगी थी, अब काफ़ी बदली जान पड़ती थी। उसकी 
					इस तब्दीली की वजह वह तो कतई नहीं हो सकता इसका मुझे सौ फीसदी 
					यकीन था। बल्कि मुझे तो इसमें भी संदेह था कि वह खुद कुछ बदला 
					होगा। मुझे यह जाँचने का कौतूहल हो रहा था कि चाबी के खिलौनों 
					की चाबी कहाँ है। शायद यह भी वजह रही होगी कि मैंने उससे कह 
					दिया कि मैं ज़रूर आऊँगा और वह अपनी जगह का पता मुझे लिखा और 
					समझा कर चली गई।
 
 लेकिन यह सब जाँचने-देखने का सुयोग मेरे भाग्य में नहीं था। 
					हम कितनी ही बार जो करना चाहते हैं, नहीं कर पाते, ठीक वैसे ही 
					जैसे कि हम जो नहीं करना चाहते वह कई बार हो जाता है। मैंने कब 
					चाहा था कि वह छात्र जिसे मैं अपने सैकड़ों छात्रों के साथ 
					भूल चुका था, बल्कि मैं खुद अपने लेक्चरर होने के समय को भी 
					भूल चुका था, दोबारा मिले और इस तरह मिले। फिर भी वह मिला और न 
					सिर्फ मिला बल्कि उन दिनों की कितनी ही भूली-अधभूली यादों को 
					ताजा कराने का बायस होकर मिला। मुझे नहीं याद आता कि कॉलेज के 
					दूसरे विद्यार्थियों में उसकी कोई अलग पहचान थी, सिवाए इसके कि 
					इसमें कोई ख़ासियत न थी और शायद यही बात उसे सबसे अलग करती थी।
 
 उस रोज़ मेरे न पहुँच पाने से वे दोनों ही दु:खी तो बहुत हुए 
					होंगे, लेकिन मैं मजबूर था। वह जाने से पहले बेहद हड़बड़ाहट 
					में मेरे पास जब आया तो उसके चेहरे से वह अफ़सोस बरस रहा था 
					लेकिन मैंने अपनी विवशता का छाता खोलकर उसे ओट लिया तो वह बहकर 
					थम गया। उसने जल्दी-जल्दी बताया कि उसी के बैच के मेरे कुछ 
					स्टूडेंट लंदन में हैं जो उसे बुलवा रहे हैं। उन्होंने ही 
					उसके लिए किसी स्कॉलरशिप का इंतजाम किया है जो अभी मिला नहीं 
					है पर मिल जाएगा। उन सहपाठियों में से एक उसकी बीवी का कोई 
					बहुत दूर का रिश्तेदार भी है। उन दोनों ने बचपन को साथ-साथ 
					जवान किया है। इस तरह की आशाओं-आश्वासनों की डोर से खिंचे हुए 
					वे जा रहे हैं। उसने यहाँ की नौकरी छोड़ दी है। दहेज का सामान 
					बेच कर और बाकी उधार लेकर टिकट का इंतजाम किया है। उसमें मेरा 
					हिस्सा यही है कि उसने अब तक जो उधार लिया है मैं फिलहाल भूल 
					जाऊँ और वह उसे जब हालात सुधरेंगे, लंदन से भेज देगा। मैंने 
					उसके आश्वासन पर ग़ौर करना ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि मैं तो 
					उसे उधार देने के बाद से ही उस राशि को अपने खाते में हमेशा के 
					लिए काट चुका था।
 
 लंदन से शुरू में उसके काफ़ी उत्साह भरे पत्र मिले। लगता था 
					कि वहाँ के बदले हुए वातावरण की चमकती हुई चकाचौंध से वह काफी 
					प्रभावित हुआ था। उसके मित्रों ने भी उसका खासा स्वागत किया 
					था। फिर पत्रों में अंतराल बढ़ने लगा और एकाएक उनका आना कतई 
					बंद हो गया। आखिरी पत्र में उसने किसी अंग्रेज से हुई अपनी 
					मुकदमेबाजी का लंबा जिक्र किया था। उसने लिखा था कि उसके 
					स्कॉलरशीप वाला मामला अभी तक तय नहीं हुआ है, इसी महीने हो 
					जाएगा। इसलिए वह यूनीवर्सिटी नहीं जा रहा है और दिन भर घर पर 
					बैठा टी.वी. देखता रहता है। लगता था, वहाँ के माहौल के खिलाफ 
					वह कुछ तलख होने लगा है लेकिन मुझे अचरज हो रहा था कि उसने 
					अपने किसी ख़त में अपनी बीवी के वहाँ एडजस्ट होने की किसी 
					दिक्कत का कहीं इशारा भी नहीं किया था।
 
 उस दिन सुबह जैसे बिना सोचे-समझे ही हो गई थी। सब कुछ अचानक 
					अनायास घटता जा रहा था। नहीं तो उस सुबह मैं बाथरूम में फिसलता 
					क्यों जबकि उसका फर्श उतना ही चिकना था, जितना कि वह हर रोज 
					हुआ करता था। नहीं तो उस दिन के पहले से तयशुदा इतने 
					महत्वपूर्ण एप्वाइंटमेंट्स रद्द करके मोच आ जाने की वजह से 
					बिस्तर पर क्यों लेट जाना पड़ता। और अकेले लेटे-लेटे ढेर 
					सारे परिचितों-प्रियजनों के होते-सवाते उस दिन बिना सोचे-समझे 
					मैं उसी की बाबत क्यों सोचने लगता। शायद यही वजह रही होगी कि 
					कॉलबेल बजने पर जब नौकर ने दरवाजा खोला तो वह सामने खड़ा था - 
					समूचा, मुजस्सिम वह, ठीक उसी तरह जैसे कि पहले-पहल वह मेरे 
					सामने आ खड़ा हुआ था। इस एक साल के वक्त और लंदन के माहौल ने 
					उस पर बस, इतना ही प्रभाव डाला था कि वह मोटा ओवरकोट अभी तक 
					पहने था जबकि बंबई में कभी ऐसी सर्दी पड़ती ही नहीं, और उसके 
					चेहरे पर जो बारह बज रहे थे, वह क्वार्ट्स की डिजिटल घड़ी के 
					थे, नहीं तो उसकी दयनीय, निरीहता में ज्यादा अंतर नहीं था।
 
 आपको मैं सच बता दूं, जिस दिन से इंग्लैंड गया था, मुझे उसी 
					दिन से पक्का यकीन था कि, एक दिन वह ठीक ऐसी ही एकबारगी आकर 
					मरे सामने खड़ा होगा। और उसके चेहरे पर फिर से वही बारह बज रहे 
					होंगे।
 
 और वही हुआ। मेरे पास तक आते-आते वह लगभग गिरने को हो गया और 
					चूँकि मैं बिस्तर से उठ नहीं सकता था, उसे गिरना ही पड़ता, 
					कारण मैं उठकर उसे संभाल नहीं सकता था।
 
 मेरे इशारा करने से पहले ही वह कुर्सी पर बैठ गया, जैसे देर से 
					खड़े-खड़े थक गया हो, और उसके बैठने के साथ ही नौकर ने दो अदद 
					सामान उसके पास लाकर रख दिया। स्पष्ट हो गया कि वह एयरपोर्ट 
					से सीधा ही आ रहा है।
 
 मैंने निगाहों से कई प्रश्नवाचक उसकी तरफ उछाले और मुझे पूरा 
					यकीन है उनमें से कुछ उसे ज़रूर चुभे भी होंगे, लेकिन वह 
					चुपचाप बैठा रहा। ज़रूर उसे बात शुरू करने के लिए शब्द नहीं 
					मिल रहे थे। मुझे उस पर एक बार फिर तरस आया और सोचा कि चलो, 
					मैं ही उसकी मदद किए देता हूँ, इसलिए बोला, 'लंदन से ही आ रहे 
					हो न?'
 
 'जी हाँ, कल चला था।'
 
 'अकेले ही आए?'
 
 'लगता है, आपको मेरे पत्र और केबल नहीं मिले। मैंने उनमें सब 
					विस्तार से लिखा था, मतलब पत्रों में। और अपने आने के बारे 
					में आपसे सलाह भी माँगी थी। जब आपका उत्तर नहीं मिला तो मैं 
					चल पड़ा, यों भी मुझे लंदन तो छोड़ना ही था।'
 
 'क्यों? क्या वे लोग तुम्हें रहने की इजाजत नहीं दे रहे 
					थे?'
 
 'नहीं, यह बात नहीं। मैं आपको सब बता नहीं सकता था। मेरे पास 
					उतने शब्द बचे ही नहीं हैं। इसलिए मैंने पत्रों में सब लिख 
					दिया था। मेरा दुर्भाग्य, वे आपको मिले ही नहीं। अब मुझे 
					बोलकर ही सब कुछ बताना पड़ेगा।' वह इतना टूटा, हताश और हारा 
					हुआ शायद पहले कभी दिखाई नहीं दिया था।
 
 'किंतु क्या तुम्हारी पत्नी को कुछ हो गया?' मैं उसके बयान 
					से इस नतीजे पर ही पहुँच सका था।
 
 'जी नहीं, उसे क्या होता? हो जाता तो शायद मैं बच जाता ...'
 
 मैंने सोचा, इस समय विषय बदलना ज्यादा ठीक होगा, इसलिए बोला, 
					'तुम काफ़ी थके हो और शायद काफ़ी देर से सोये भी नहीं हो। जाओ 
					नहा-धाकर फ्रेश हो लो, थोड़ा आराम भी कर लो, तब बात करेंगे। और 
					मैंने नौकर को आवाज़ देकर उसे उसके हवाले कर दिया। जाते-जाते 
					उसने मुझसे मेरे घर पर होने और बिस्तर पर लेटे रहने की बाबत 
					पूछा और शायद कारण जान जाने की वजह रही होगी कि वह काफ़ी 
					डरते-डरते बाथरूम में घुसा।
 
 नहाने के बाद वह फिर मेरे पास आकर बैठ गया। उसके लिए मैंने 
					चाय-नाश्ता वहीं मँगवा लिया। लगता था कि उसने मन में भी बस 
					बताने की उथल-पुथल मची हुई थी। जानना तो मैं भी चाहता था और 
					मेरे पाठकों, आप भी उसका हश्र जानने की उतावली में जान पड़ते 
					हैं। इसलिए हम चाय-नाश्ता खत्म करने का इंतजार भी नहीं कर 
					सकते हैं, बताने के दौरान वह कितनी बार रुका, कितनी बार उसने 
					विषयांतर करके लंदन, अपनी पत्नी, अपने दोस्तों, उनके साथ उन 
					दोनों के रिश्तों, अपने स्कॉलरशिप की बात को मात्र प्रलोभन 
					और झूठ मानने के तर्क देने आदि के ब्यौरे देने शुरू किए - 
					इसके विस्तार में भी नहीं जाते हैं और हम उसकी यात्रा के 
					क्लाइमैक्स पर आ जाते हैं।
 
 वह वहाँ तमाम वक्त स्कॉलरशिप का इंतजार करता रहा, जो न मिलना 
					था और न कभी मिला।
 
 वह वहाँ नौकरी भी नहीं ढूँढ सका क्योंकि वह स्टूडेंट परमिट 
					पर गया था और उसे वर्किंग परमिट भी नहीं मिल सकता था। उसने चंद 
					दिनों हिंदी के ट्यूशन जरूर किए या एक-आध बी.बी.सी. प्रोग्राम 
					किए। बाकी वक्त वह घर पर बैठा टी.वी. देख-देख अपने निकम्मेपन 
					से बोर होता रहा और अपनी हीनभावना को द्विगुणित करता रहा।
 
 नतीजतन उसमें इंग्लैंड और अंग्रेजों के प्रति, फिर अपने 
					दोस्तों-परिचितों और अंतत: अपनी पत्नी के प्रति तलखी बढ़ती 
					गई।
 
 वे दोनों अरसे तक दोस्तों पर आश्रित रहे जो वहाँ की 
					व्यवस्था में खासी अच्छी तरह सैटल थे। फिर पत्नी ने किसी 
					स्टोर में नौकरी कर ली जो उसके दोस्त और बीवी के दूर के 
					रिश्तेदार ने दिलाई थी और इस तरह वह अपनी बीवी से भी दूर होता 
					गया, जो उसी के उन्हीं दोस्तों के अधिक निकट होती गई और एक 
					दिन उसे एक अपार्टमेंट में टी.वी. देखता छोड़कर जो गई तो आज तक 
					नहीं लौटी। बाद में वह उसके उसी दोस्त के घर में रंगीन टी.वी. 
					देखती हुई पाई गई जो खुद उसका दूर का रिश्तेदार भी था और 
					जिसके साथ उसने अपना बचपन जवान किया था।
 
 मेरी तरह, मेरे पाठकों, आप भी अब तक जान गए होंगे कि खिलौने की 
					चाबी कहाँ हैं।
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