''अरे सब हट तो गए, अब फेंक
ना।'' सुकना ने कहा।
रघु गुच्चक की ओर कन्चे लुढ़काने के लिए झुका। सब बच्चों की
साँसें रुक गईं। समय जैसे थम गया हो। पर एकबरागी कन्चे
फेंकता-फेंकता रघु रुक गया।
''अब क्या हुआ?'' सुकना ने बिगड़ कर पूछा।
''गुच्चक के आगे एक मिट्टी का ढेला पड़ा है, उसे हटा दे।''
एक उत्साही बच्चे ने लपक कर
गुच्चक साफ करनी चाही, पर सुकना ने उसकी कमीज का कालर पकड़ कर
वापस खींच लिया।
''अबे काहे को साफ कर दूँ। पहले न कह दिया था।''
''नहीं कहा था।''
''कह दिया था।''
''नहीं कहा।''
''कहा था।''
दोनों मरने-मारने पर उतारू थे। तभी एक बच्चा बोल उठा जो शायद
रघु का समर्थक था, ''अरे फेंक दे रघु, देखा जाएगा, बेमंटी का
फल सामने आएगा।''
''हाँ-हाँ आएगा,'' सुकना और उसके समर्थक भी चीखे।
अन्तत: रघु ने कन्चे
गुच्चक की ओर लुढ़का ही दिए।
दो कच्चे गुच्चक में आए। इस पर रघु के समर्थक खुशी से चीखे,
''ले देख लिया।''
''अरे अभी क्या हुआ है, दो ही तो आए हैं, पहले पीट तो सही। अभी
तो तू दंड भी देगा।'' सुकना बोला।
''कौन-सी पीटूँ?'' रघु ने अपनी पैनी निगाहें जमीन पर बिखरे
कन्चों पर जमाते हुए कहा।
''अबे जल्दी बोल, बता, बता ना'', रघु कहता जाता और दो कन्चों
को आपस में बजाता जाता।
सुकना ने पहले रघु को ताका। फिर कन्चे को देखा। फिर रघु की ओर
देखा, फिर कन्चों की ओर देखा।
''अच्छा वो पीट, हरा।''
''वो नीले के पास वाला?''
''हाँ वही। ताक मत, जल्दी पीट।''
और रघु ने अपने हाथ की गोली
निशाना ताक कर दे मारी। ''चट'' की आवाज हुई। सबने देखा गोली
ठीक निशाने पर लगी थी। अफरातफरी मच गई। सब बिखरी गोलियाँ
बटोरने लगे। ग्यारह गोलियाँ तो मिल गईं रघु को, पर एक नहीं
मिली। रघु का विश्वास था, सुकना ने चुरायी है। पहले तू-तू
मैं-मैं और फिर नौबत हाथापाई तक आ पहुँची।
''तू नहीं देगा, एक बार कह दे'', रघु ने कहा।
''मेरे पास हई नहीं,'' सुकना ने जवाब दिया।
''तू तो...'', बाकी शब्द रघु के गले में अटक कर रह गए। सुकना
भी कुछ कहना चाहता था। वह भी यकायक चुप हो गया। सारे बच्चों को
मानों साँप सूँघ गया था। एकदम सब सहम कर शान्त हो गए। सामने
मेम साहब खड़ी थीं।
कोठी वाले बड़े साहब की बेटी।
जिनके यहाँ, जितने बच्चे वहाँ खड़े थे, सबके माँ या बाप किसी न
किसी रूप में मुलाजिम थे। किसी की माँ बड़े साब का खाना बनाती
थी। किसी का बाप ड्राइवर था उनके यहाँ तो किसी का चपरासी। और
वो मकान जिनमें यह लोग रहा करते थे कोठी के पिछवाड़े बने
नौकरों के मकान थे, सरवेन्ट क्वाटर्स।
सब बच्चे डर रहे थे। अब मेम
साब बरसेंगी। सब बच्चों की माँओं ने समझा रखा था, शोर मत मचाया
करो। वरना साब निकाल बाहर करेंगे कोठी से। दर-दर भटकना पड़ेगा।
अब क्या करें? सब सोच रहे थे। अब आई शामत।
''ऐ लड़के, तुम'', आखिर मेम साब बोली। मेम साब का इशारा रघु की
ओर था। रघु सहम गया।
''हम भी खेलेंगे।''
''आप खेलेंगी,'' रघु सकुचाया।
''हाँ क्यों? क्या हुआ? हम भी खेलेंगे।'' फिर थोड़ा रुक कर
पूछने लगीं, ''क्या कहा जाता है इस खेल को?''
''जी, जी, कन्चे,'' रघु ने अटकते हुए जवाब दिया।
''नहीं गोलियाँ,'' किसी बच्चे ने पीछे से संशोधन किया।
''कौन खेलेगा हमारे साथ?'' मेम साहब ने पूछा।
लालायित सब हो उठे पर बोला
कोई नहीं।
''देखो ऐसा है'', मेमसा''ब ने सारे बच्चों पर नजर दौड़ाते हुये
कहा-''हमारे साथ बस कोई एक खेल सकता है।''
''ऐ लड़के तुम खेलो हमारे साथ,'' मेम सा'ब रघु की ओर मुखातिब
होकर बोली। रघु को विश्वास नहीं हुआ उसने अपने पीछे पलट कर
देखा कि कोई और तो नहीं खड़ा उसके पीछे।
''हाँ-हाँ, तुम ही, तुमसे ही कह रही हूँ। लड़के।''
''जी मैं।'' रघु अपने सीने पर हाथ रखकर सहमते हुए बोला, ''मेरा
नाम तो रघु है।''
''हाँ रघु, तुम खेलो हमारे साथ। पर हमारे पास एक भी नहीं
है...क्या कहते हैं उसे वो...''
''जी क... नहीं गोलियाँ।''
''हमें कुछ गोलियाँ दोंगे?''
''लीजिए...'' रघु ने अपने नेकर की जेब से छ: गोलियाँ निकालीं
और कमीज से पोंछकर चमकाई और मेम साब को दे दीं। तब उसके चेहरे
पर जाने कैसा भाव उतर आया कि सब बच्चों को ईर्ष्या हुई। |