घर पहुँचा तो
बाबू झाड़ू से पशुओं का गोबर साफ करे थे। गोपाल को देखते ही
उसकी तरफ लपके और उसी झाड़ू से दस झाड़ू मारे होंगे कि दलान से
दौड़कर आई माई ने बीच बचाव किया,
"का अब जान से ही मार डालेंगे?"
"इसका खाना-पीना सब बन्द करो...दुसाध कहीं का..." बाबू ने एक
झाड़ू और लगाया।
माई गोपाल को खींचकर आँगन में ले गईं।
मार खाना गोपाल के लिए नित्य की क्रिया थी। इसलिए असर तभी तक
रहता था जब तक पिटाई होती थी। पिटाई का असर कभी भी उसके
दिलो-दिमाग तक नहीं पहुँचता था। दिन भर में मार खाने के दो चार
कारण तो पैदा कर ही लेता था। कभी किसी की हरी भरी बिरवाई को जड़
से उखाड़ देता, कभी किसी के मुर्गे को उसके ही चारा मशीन में
काटकर छोड़ देता, कभी किसी का बाहर सूख रहा कपड़ा फाड़कर दो टुकड़े
कर देता। लोग कहते थे कि उसे जो कुत्ते के काटने पर चौदह
सुइयाँ लगी थीं उसकी गर्मी दिमाग में चढ़ गई थी। आस-पड़ोस में
अगर किसी का कुछ भी नुकसान होता तो सबसे पहला शक गोपाल पर
जाता।
बाबू ने कहाँ तक पढ़ाई की थी यह तो वही जानते होंगे। हाँ, चन्दू
नवीं कक्षा के आगे नहीं बढ़ पाए थे और दो प्रयासों के विफल होने
के बाद बाबू के साथ खेती बाडी में लग गए थे। पूरे परिवार में
एक ही पढे़ लिखे व्यक्ति थे-चाचा। चाचा ने स्नातक की परीक्षा
उत्तीर्ण की थी और गाँव से लगभग पचास किलोमीटर दूर एक कस्बे के
हाई स्कूल में अध्यापक की नौकरी कर रहे थे। हर सोमवार को जाते
थे और शनिवार को वापस गाँव आ जाते थे। बाकी के दिन वहीं रहते
थे।
आठ-नौ साल का होने पर गोपाल को गाँव के स्कूल मे भेजा गया।
लेकिन वह दो साल में अक्षर भी ठीक से नहीं पहचान सका। चन्दू ने
एक दिन बाबूजी के सामने ही चाचा से कहा,
"चच्चा, गोपाल को वहीं अपने साथ ले जाते तो कुछ पढ़ना लिखना सीख
जाता।"
बाबू ने भी चन्दू की बात का समर्थन किया। हालाँकि चाचा जानते
थे कि पढ़ना-लिखना गोपाल के वश की बात नहीं है। फिर भी भाई की
बात की खातिर ले जाने को तैयार हो गए। तय हुआ कि अगले सोमवार
को गोपाल उनके साथ जाएगा। लेकिन सोमवार की सुबह गोपाल घर से
गायब हो गया। चाचा अकेले ही चले गए। बाद में ढ़ूँढ़ने पर गोपाल
भुट्टे के खेत में मचान पर सोता हुआ मिला था।
आज दूसरा सोमवार था।
गोपाल को चाचा के साथ कस्बे में भेजने का पहला प्रयास विफल हो
चुका था इसलिए इस बार रविवार की शाम से ही गोपाल की चौकसी की
जा रही थी कि वह कहीं भाग न जाए। रात में चन्दू ने उसे अपनी
चारपाई पर सुलाया। सुबह तक भागने का कोई भी मौका हाथ नहीं लग
पाया था। माई ने सुबह के नाश्ते और दोपहर के खाने के लिए
पूरियाँ बना दी थीं। गोपाल को बढ़िया कपड़े पहनाकर तैयार कर
दिया गया। सब लोग निश्चिंत हो गए कि अब तो चला ही आएगा। चाचा
और गोपाल तैयार होकर दरवाजे पर आ गए। बाकी सब लोग भी विदा करने
के लिए बाहर आ गए।
दोनो लोग जब चलने को हुए तो गोपाल ने कहा,
"प्यास लगी है। मैं पानी पीकर आता हूँ।" वह घर के अन्दर चला
गया। किसी को जरा सा भी सन्देह नहीं हुआ कि वह भाग जाएगा। जब
काफी देर बाद नहीं लौटा तो घर के अन्दर देखा गया। आँगन के पीछे
का दरवाजा खुला था। गोपाल फिर गायब। चन्दू सारा गाँव ढूँढ कर
जब कछार पहुँचे तो वहाँ चर्मकर्मियों के साथ गोपाल मिला था।
धुनाई तो पहली बार भी हुई थी जब वह खेत में मचान पर मिला था
लेकिन आज कुछ ज्यादा ही मरम्मत हो गई थी। माई उसे खाना खिलाते
हुए समझा रही थीं,
"काहे ऐसा करते हो...तुम्हारी भलाई के लिए ही तो किया जा रहा
है...इतना मार खाते हो फिर भी बाज नहीं आते...कायदे से चले
क्यों नहीं जाते।"
गोपाल चुपचाप सुनता रहा फिर खाना खाकर उठते हुए बोला,
"मुझे कहीं नहीं जाना है। मैं यहीं रहूँगा।" कहते हुए घर से
बाहर चला गया।
माई ने अपना सिर पकड़ लिया,"हे भगवान क्या होगा इस लड़के का!"
अगले सोमवार को गोपाल के जाने की फिर सारी तैयारियाँ हुईं। इस
बार कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा गया। गाँव नदी के किनारे था। नदी
पार करके तीन किलोमीटर पैदल चलने के बाद सड़क आती थी जहाँ से
जाने के लिए बस मिलती थी। जब दोनो लोगों ने नदी पार कर ली तब
चाचा ने राहत की साँस ली कि अब कोई खतरा नहीं है। दो किलोमीटर
के बाद रास्ते में बुढ़वा बाबा का मन्दिर आता था। मन्दिर से सटा
हुआ एक बहुत पुराना बरगद का पेड़ था। पास में एक कुँआ भी था जिस
पर बाल्टी और डोर पड़ी रहती थी। आने जाने वाले लोग बरगद के
चबूतरे पर सुस्ताते थे। कुँए से पानी निकालकर पीते थे। एक तरह
से वह जगह पैदल यात्रियों के लिए बीच का एक पड़ाव बन गया था।
पानी पीकर चाचा और गोपाल बरगद के चबूतरे पर बैठकर सुस्ता रहे
थे। तभी गोपाल ने कहा,
"मुझे निबटान लगी है"।
"सामने अरहर के खेत में चले जाओ"। चाचा ने कहा।
गोपाल जाने लगा तो उन्होने शंका जाहिर की, "भाग तो नहीं जाएगा
?"
हालाँकि इसकी सम्भावना कम थी। अकेले इतनी दूर कैसे भाग कर जा
सकेगा। इतनी हिम्मत तो नहीं कर पाएगा। फिर भी किसी भी सम्भावना
से बचने के लिए वे उसके खेत में घुसते ही बोले,
"बस वहीं बैठ जा। ज्यादा अन्दर मत जा। मैं तुम्हें यहाँ से देख
रहा हूँ। गोपाल वहीं बैठ गया। अरहर के तीन चार पौधों के पीछे
चाचा को उसकी शर्ट दिखाई दे रही थी। तभी गाँव के कुछ परिचित
व्यक्ति आ गए।
चाचा का ध्यान थोड़ी देर के लिए गोपाल से हटा और गोपाल गायब।
पहले तो चाचा ने आवाज लगाई लेकिन जब उसने कोई उत्तर नहीं दिया
तो उन्हें चिन्ता होने लगी। अनजान जगह थी। गाँव मे तो सब कुछ
उसका देखा हुआ था और फिर वहाँ हर आदमी एक दूसरे को जानता था।
यहाँ तो वह कहीं भटक सकता है। चाचा खेत के अन्दर थोड़ी दूर तक
गए। लेकिन वह कहीं नहीं दिखा। आवाज लगाते रहे। कहते रहे,
"तुम बाहर आ जाओ, मैं कुछ नहीं कहूँगा। तुम्हें मारूँगा नहीं"।
अरहर के खेतों के पीछे ईंख के खेत लगे थे। पूरा सिवान भरा पड़ा
था। उसे अकेले ढ़ूँढ़ पाना बहुत मुश्किल था।
खेत के अन्दर से गोपाल की निगाह बराबर चाचा के ऊपर थी। वह सोच
रहा था कि थोड़ी देर तक इंतजार करके हर बार की तरह वे चले
जाएँगे और वह वापस घर चला जाएगा। लेकिन इस स्थिति में चाचा शहर
जा भी कैसे सकते थे। वे गाँव की ओर चल दिए। गोपाल ने जब उन्हें
गाँव की ओर जाते देखा तो वह खेतों के अन्दर अन्दर ही उल्टी
दिशा में चल दिया। चाचा गाँव आ गए। चन्दू और उसके कुछ दोस्त
साइकिल लेकर गोपाल को ढूँढ़ने निकल पड़े। तीन-चार बजे तक चन्दू
गोपाल को लेकर घर पहुँचे। चन्दू ने बताया कि जब वह बस स्टैंड
पर पहुँचे तो वहाँ गोपाल बैठा हुआ था।
अब उस दिन चाचा का जाना भी सम्भव न हो सका। अगले दिन चन्दू ने
गोपाल को साइकिल से बस स्टैंड तक छोड़ा। चौथे प्रयास में गोपाल
कस्बे पहुँच गया।
गोपाल को मात्र ककहरा पता था। मात्रा और मिलावट भी पढ पाना
उसके लिए मुश्किल था। चूँकि उम्र काफी हो चुकी थी इसलिए चाचा
ने उसका नाम दूसरी कक्षा में लिखा दिया। किताब कापी सब खरीद
दी। |