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					 “लड़की 
					का दिमाग फिर गया है,” माँ गुस्से में बुदबुदातीं। “बेकहल लड़की 
					! सब बाप का असर है। खुद तो ज़माने भर के नास्तिक हुये, अब बेटी 
					जी भी चल पड़ीं उसी राह पर। चलो बाप की तो चली सो चली, ठहरे 
					मरदजात, पर ये राजकुमारी जीं, इनका क्या होगा .. ससुराल पहुँच 
					नाक कटायेंगी खानदान का “ 
 नाक तो कटाया ही था। कोई रिवाज़ मालूम नहीं, कोई रस्म करना 
					चाहें नहीं। सब दकियानूसी है। मनोहर हर जायज़ नाजायज़ बात में 
					साथ दें, शह दें। थीं बचपन से विद्रोही। ये नहीं करूँगी वो 
					नहीं करूँगी। सब लड़कियाँ जो करेंगी वो तो बिलकुल नहीं करूँगी। 
					जब साथी संगिन चूड़ी कान बाली देख कर रीझें तब मुँह बिचका कर 
					अलग हो लें।
 
 फुआ चाची हँसतीं, माँ के भुनभुनाने पर समझातीं ..अरे सब ठीक 
					होगा। ब्याह की उमर आने दो, लड़की जात है, सब साज श्रिंगार 
					करेंगी, जायेंगी कहाँ ?
 
 
 ये पाँव पटकतीं ..
 - ना जी, हम तो ब्याह नहीं करेंगे कभी
 
 - तो फिर ? बाप माँ की छाती पर मूँग दलेंगी उमर भर ?
 
 - मूँग क्यों दलेंगे ? नौकरी करेंगे, कमायेंगे, मौज मस्ती से 
					रहेंगे
 
 - दिमाग फिर गया है, माँ हारी आवाज़ में बुदबुदातीं।
 
 फिर इतना हुआ कि धीरे धीरे सब पहचान गये। गज़ब जिद्दी छोकरी है, 
					सब जान गये। फिर टोकना छूटा तो नहीं पर कम हो गया।
 
 दिनरात पढ़ाई में जुटी रहतीं। दुबली पतली बाँस की डंडी। पर कैसा 
					धुन। स्कूल छूटा, कॉलेज छूटा। माँ कहतीं, अब कुछ घर गृहस्थी की 
					बातें भी सीख।
 
 ये कहीं और देखती आँखों से देखतीं और हैरान होतीं। पैदा करने 
					वाली माँ तक नहीं समझती मन का हाल। मैं इन चीज़ों के लिये नहीं 
					बनी। दिन रात किसी नशे पर सवार रहतीं। उलटे पुलटे नक्शे पर 
					आँखें फोड़तीं, किताबों में घुसी रहतीं, जाने कौन सी दुनिया 
					विचरतीं। आँख बन्द करते ही मन सिहर जाता, दूसरी दुनिया भक्क से 
					अपने होने का रौशन उजाला कर डालती। किसी नाव पर अकेले किसी 
					रहस्यमयी नदी में बहते कहाँ चली जातीं। कभी किसी सुदूर जंगल 
					में, किसी पुरातात्विक स्थल पर, कभी रेगिस्तान में ..सब अजानी 
					अजनबी दुनिया, फोटो में देखी हुई और किताबों के पन्नों से 
					जीवंत की हुई। और इन्हीं कल्पना की अनेक दुनियाओं को साकार 
					करने का पागलपन बेचैन कर देता। हम होंगे कामयाब एक दिन ...
 
 नौकरी लगी तो लगा कि सपने के पूरा होने का पहला चरण प्राप्त कर 
					लिया। माँ ने कहा, अब ब्याह !
 
 पैर पटकतीं निकल गई कमरे से बाहर ..
 
 - पहले ही कहा न, हमें नहीं करनी। हम इन चीज़ों के लिये नहीं 
					बने
 
 माँ चिड़चिड़ा जातीं। और लड़कियाँ भी तो नौकरी में आने लगीं। ऐसी 
					चाल तो और किसी की न देखी न सुनी। नौकरी करो लेकिन और भी तो 
					ज़रूरतें होती हैं।
 
 - और कौन सी ज़रूरत ? के सवाल पर माँ चुप जातीं ..
 
 - अब हर बात खोल कर कहें तुम्हें ?
 
 देखने दिखाने की बात पर खूब हँगामा मचता। बड़े शहर में अकेले 
					रहती किसी आत्मविश्वास से दिप दिप करतीं खुद पर हैरत करतीं 
					..आह यहाँ तक तो आ पहुँचे अब बाकी भी सफर होगा नई दुनिया की 
					खोज का।
 
 तभी किसी दिन मनोहर मिल गये। पापा के दोस्त के बेटाजी। मिल 
					लिये फिर कभी कभार मिलते रहे। उसी शहर में उसकी भी नौकरी। फिर 
					लगने लगा कि अपनी दुनिया के खोज में एक मनमाफिक साथी हो तो खोज 
					की यात्रा रोचक रहेगी। घर पर दोनों ने खबर की, ब्याह करेंगे।
 
 माँ ने कहा चलो यही तो हम भी चाहते थे। हमें तो लड़का पहले से 
					ही पसंद। तो ये दोनों तरफ के माँ बाप का रचाया खेल था जिसमें 
					फँसे दोनों। विद्रोह करके ब्याह किया का जोखिम भरा आनंद इस 
					जानकारी से बहुत कुछ फीका हुआ लेकिन मन को मनाया कि अभी भी 
					अपनी मर्जी का ब्याह तो है ही।
 
 सब चीज़ें अलग हट कर करेंगे के सीक्वेंस में ब्याह के बाद बहुत 
					साल बच्चे नहीं हुये, उस दौर में जब लोग अमूमन ब्याह की पहली 
					सालगिरह गोद में दो माह के शिशु को चुसनी चुसवाते मनाते थे। 
					इतना देर किया कि घर की बड़ी बूढ़ी शुभचिंतक औरतों की नज़र और 
					बोली चुभने लगी। पीर मजार और बाबा पंडित की मनौतियों मन्नत की 
					बात खुली आवाज़ में होने लगी। चिढ़ कर प्रतिवाद किया, बच्चे 
					इसलिये नहीं कि अभी हम चाहते नहीं। जब चाहे तो हुए, तुरत फुरत 
					दो। फिर इस बार छट्ठी, मुँहजुट्ठी तजे। किसी छुट्टी के दिन 
					आराम से बच्चे को अन्न खिला देंगे। अब तक लोगबाग घटा गये थे। 
					अजीब अलहेली बहू है और मनोहर भी उसी की बात में है, पूरा।
 
 ऐसे ही अलग अलग राह पर चलते दिन निकल गये। बेटी बड़ी हुई तो सब 
					पूछते, का बाबू कोर्ट में ब्याह होगा ? कि आर्यसमाजी विधि से ?
 
 ऐसे ब्याह अब आमसूरत वाकया थीं। हर दूसरे तीसरे घरों में ऐसे 
					ब्याह हो रहे थे। दूसरी जात में, दूसरे देश की बहुयें, दामाद 
					दिखते। लोग ज़रा गर्व से मिलवाते, ये बहू केरल की और बड़ी वाली 
					कश्मीरी है, दामाद तो फिलीपींस का है, अब बेटी को वही पसंद आया 
					.. बच्चे खुश रहें, हमें और क्या चाहिये ..वाला ज़माना आ चुका 
					था। पोते पोतियों के बरमिंघम और सैन फ्रिस्को से ईमेल के ज़रिये 
					फोटो का आदान प्रदान होता। बड़ा पोता तो एकदम अमरीकी लगता है, 
					बोलता भी अंग्रेज़ी वैसे ही है, कह दादी नानी का सीना चौड़ा 
					होता।
 
 बन्नो तेरा मुखड़ा चाँद जैसा ...
 
 तो ऐसे समय में क्या सनक उठी कि ना जी हम तो बेटी का ब्याह 
					एकदम पारंपरिक तरीके से करेंगे। सब रस्म होंगे। सब पुरखों का 
					आशीर्वाद मिले, सारे धार्मिक अनुष्ठानों का शुचिता भरा साया 
					इनके ऊपर छतरी सा तना रहे। क्या हुआ कि एकबारगी तीन सौ साठ का 
					कोण बना कर घूम गईं।
 
 कैसी दुश्चिंताओ की चादर अचानक फैल गई थी। जो जोखिम खुद पर 
					उठाया उसके साये की कल्पना तक बेटी पर आने की आशंका सिहरा गई ? 
					यही था या कुछ और था। या फिर लौट कर वापस आना था अपनी जड़ों तक, 
					अपनी परंपराओं तक ? यही लौटना नियति था या फिर अपने संस्कारों 
					की पकड़ इतनी गहरे पैठी थी कि उम्र होते, जैसे इम्यून सिस्टम 
					कमज़ोर हुआ, बाहर आ निकले ? अ ब्रीच इन द वॉल ? या फिर संतान की 
					शुभकामना का अदम्य नैसर्गिक भावबोध, कि कोई कसर न छूट जाये 
					उसके सुखकामना की ?
 
 पता नहीं क्या था। लोग हँसेंगे, कहेंगे, देखो अब कैसी पुरखिन 
					बनी घूमती है ? भई इन्हें तो ऐसा देखा न था कभी। मनोहर हँसे 
					थे, जिसमें तुम्हारी खुशी, जिससे तुम्हें भरोसा मिले, सुकून 
					मिले .. बेटी से मैं बात करूँगा, तुम अपना मन स्थिर करो।
 
 
 मिनी को जब पूछा था तब कैसी किलक गई थी। हाँ मॉम, मुझे अच्छा 
					लगेगा। हमेशा की टॉमब्याय लड़की कैसे मज़े से लहँगे, चुनरी में 
					रम रही थी। हमेशा शॉर्ट्स और जींस में रूखे बाल लहराते अब साड़ी 
					लहऎगे, मेंहदी में कैसी नाज़ुक लचीली लग रही थी। उसके मन में 
					क्या था ? कुछ ईस्टर्न ईरोटिका, कोई फैशनपरेड, किसी पुरानी 
					फिल्म का स्टेज मैनेज्ड रोल, एक फैंसी ड्रेस ? या एक लड़की के 
					नैसर्गिक सजने सँवरने की उत्कंठा ? पर बिना चूँ चपड़ के किस 
					उत्साह से सब रस्म निभा रही थी, ये देख उन्हें उसपर दुलार भी 
					उमड़ता और हैरानी भी होती, ये मन से मेरी बेटी है ? फिर खुद पर 
					हँसी आती।
 
 
 बेनी फुआ कह रही थीं, चलो तुमलोग सब रस्म करवा रहे हो, अच्छा 
					किया। अपने रिवाज़ अपने ही होते हैं।
 
 बड़ी ईया अपने पोती का किसी अमरीकन गोरे से ब्याह का किस्सा 
					सुना रही हैं।
 
 दो बार ब्याह हुआ। एक बार अपने तरीके से फिर उनके तरीके से। 
					अपना तरीका भी क्या ? बस घँटे भर में जितनी रस्में याद रहीं कर 
					दी गईं पर दामाद कैसा गोरा खूबसूरत है।
 
 बाकी गाँव से आई औरतें किसी लम्बे थकाने वाले रस्म को निपटा 
					कर, चाय सुड़कते ईया का किस्सा सुन रही हैं।
 
 - अच्छा ! फिर ?
 
 -ईया हँसती हैं, लेकिन मनोहर और उसकी बहू ..हर समय अलग ही 
					करेंगे, जब सब घंटे भर का कोर्ट मैरेज कर रहे हैं तब देखो, 
					कैसा सांगो पांग ब्याह यहाँ हो रहा है। दुलार से मिनी को गले 
					से सटा लेती हैं।
 
 - खूब खुश रहो बाबू
 
 बीच के आँगन नुमा स्पेस में मड़वा फूलों से सज रहा है। सीधे 
					पल्ले की साड़ी पर ब्याह का लाल चादर ओढ़े और नाक तक सिंदूर 
					लगाये घुसती हैं कमरे में। सामने शीशे पर खुद का चेहरा देख 
					अचकचा जाती हैं। उँगलियों से छूती हैं, आँख, बाल, नाक। जैसे 
					खुद को पहचानना मुश्किल हो। दुबली पतली बाँस सी लड़की, जो किस 
					विद्रोह के पिनक पर सवार ऐंठी रहती थी ? ये वही है ? यहाँ तक आ 
					गई अब यहाँ से कहाँ जायेगी ? हतप्रभ थमती हैं पल भर को ..
 
 बाहर शहनाई, नगाड़े और ताशा की आवाज़ उठती है तान में, एक मधुर 
					संयोजन में। आदमी और औरत का मन भी ऐसा ही होता है क्या ? कब 
					किधर घूम जाये, किस सुर को पकड़ कर ऊपर आसमान तक उठ जाये, कब 
					किसी तान का हाथ पकड़े नीचे उतर आये, कौन पगडंडी पकड़ किन बीहड़ 
					वनों में उतर जाये, फिर किस खुली मैदान में लमलेट हो जाये, कौन 
					जानता है। सचमुच कौन जानता है।
 
 बाहर औरतें लहक लहक कर गा रही हैं ..बन्नो तेरा मुखड़ा चाँद 
					जैसा ..
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