'अब
भी कुछ नहीं बिगड़ा है भागी!' चंदर ने कहा।
'अब सही भी क्या रहा!' साँस छोड़ते हुए भागी ने कहा।
'ऐसा क्यों कहती हो? हम बिखरा हुआ फिर समेट सकते हैं।'
'क्या क्या समेटोगे? कहाँ से समेटोगे? जो बिखरा है वह कभी का
गुम हो चुका है।'
क्या सचमुच? चंदर सोचने लगा। क्या भागी ठीक बोल रही है? कठिनाई
से अपने को संयत कर उसने कहा, 'तुम बदल गई हो भागी।'
'हाँ चंदर, मैं बदल गई हूँ। तुमने मुझे बदलने पर मजबूर किया
है। कम से कम तुम्हें यह शिकायत नहीं होनी चाहिए कि मैं बदल
चुकी हूँ' भागी ने थोड़े आवेश में कहा।
चंदर को करारी चोट पड़ी। जावेद और नीलोफर से बात करके उसे
अहसास हो गया था कि वह गलत है। पर कहीं एक आशा की किरण थी कि
अंत में सब ठीक हो जाएगा। अब वह किरण बुझती नजर आ रही थी। पता
नहीं क्यों उसे दादी की कहानी याद हो आई जो उसे बचपन में
सुनाया करती थी। राजकुमार रूठी राजकुमारी को मनाने जाता है और
राजकुमारी मान जाती है और उसके बाद वे दोनों हँसी-खुशी भरा
सुखी जीवन बिताते हैं।
गाय दूर निकल गई थी उसको बुलाने के लिए भागी ने आवाज लगाई
'सरु! सरु! रुक जा। इधर आ।' गाय वापस चली आई।
वह परीलोक की कहानी थी और यह ठोस, कठोर यथार्थ है।
'गाय अभी नई है। इसको अभी देखभाल की जरूरत है। एकबार आदत पड़
जाएगी तो फिर अपने आप चरने आया करेगी।' भागी ने कहा।
इसका वह क्या मतलब निकाले? वह दिलोजान से कोशिश में था कि भागी
उसको माफ कर दे और उसके साथ वापस चली चले, फिर से जीवन की
शुरुआत करने। इधर भागी गाय को हाँक रही है और गाय की ही हाँके
जा रही है जैसे कह रही हो अब बहुत हो चुका, जिस राह आए थे उसी
राह वापस चले जाओ।
'बहुत आत्मनिर्भर लग रही हो।' चंदर ने कहा।
'मैं आत्मनिर्भर पहले भी थी, चंदर। पर अपने जीवन साथी को अपने
जीवन की बागडोर सौंपने में भी एक सुख होता है। तुमने वह सुख
मुझसे छीना है चंदर।' भागी ने कहा।
क्या यह भागी का उपालम्भ था। आवाज में तोड़ने वाली नहीं जोड़ने
वाली भावना की झलक थी।
'वापस चलो भागी।' अचानक चंदर ने कहा।
'नही चंदर, अब यह संभव नहीं है।' भागी ने चेहरा नीचे करते हुए
कहा।
'संभव है भागी। मैं वादा करता हूँ कि मैं तुम्हें अब और दुख
नहीं दूँगा।' चंदर ने याचना भरे स्वर में कहा।
'नहीं।' आवाज में दृढता थी, पर गालों पर आँसू लुढ़क आए।
'मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ, भागी।'
'मुझे मालूम है चंदर। हम दोनों एक साथ नहीं रह पाए। पता नहीं
क्यों। कभी इसका जवाब मिले तो मुझे बताना। चलती हूँ।' कह कर
भागी ने गाँव की और दौड़ लगा दी। और उसके पीछे गाय ने। भागी
नहीं चाहती कि चंदर उसको रोते हुए देखे।
'रुक जाओ भागी।' चंदर ने आवाज दी।
भागी दूर जा कर रुकी। तब तक उसने अपने को संयत कर लिया था।
'कल आओगी मिलने?' चंदर ने पूछा।
भागी बिफर गई। उसने चंदर की ओर देखा और जोर से कहा, 'नहीं। कभी
नहीं। कदापि नहीं।' और फिर गाँव की ओर दौड़ लगा दी।
चंदर ठगा-सा खड़ा रह गया। ऐसा क्या कह दिया उसने कि भागी इस
तरह बिफर गई।
'भागी! भागी! उसने आवाज दी पर भागी रुकी नहीं। फिर उसने गाय को
आवाज दी, सरू! सरु! रुक जा। इधर आ।' गाय रुक कर उसकी और देखने
लगी। भागी भी ठिठक गई।
'फिर कब मिलोगी?' उसने डूबते दिल से आवाज दी।
'कभी नहीं' उसने कहा और चल दी।
चंदर वही खड़ा-खड़ा बहुत देर तक सेाचता रहा कि यह क्या हो गया।
फिर वहीं घास में लेट गया। एक एक बात जो उसके और भागी के बीच
हुई थी उसी को दोहराता रहा। आशा-निराशा के बीच उतरते-डूबते
दिन। अब क्या रह गया था उसकी जिन्दगी में। भागी के बिना एक तो
उसका जीवन ऐसे ही सूना हो चला था। फिर शायद नीलोफर से कभी
नजरें न मिला पाएगा। रात को उसने चाची को बताया कि कैसे भागी
रूठ कर उसे सदा के लिए छोड़ कर आई हुई है। उसने आज की मुलाकात
के बारे में भी बता दिया।
'चंदर तू पहाड़ का हो कर भी पहाड़ का न हुआ। तुम लोग बाहर जा
कर अपनी सभ्यता क्यों भूल जाते हो!' चाची ने गंभीर स्वर में
कहा।
'क्या चाची मेरी जान पर आ बनी है और तुम पहाड़ी और देशी का
पचड़ा लेकर बैठ गई।'
'यह पचड़ा नहीं है। सभ्यता की बात है। बड़ों को इज्जत देने की
बात है। यह तो भागी थी जो तुझसे मिलने जंगल चली आई।' चाची ने
कहा।
'वह मुझसे मिलने नहीं आई चाची। गाय चराने आई थी।' चंदर ने कहा।
'और तू इस पर विश्वास करता है? इतने भोले मत बनो चंदर। पूरे
गाँव को मालूम है कि वह तुझसे मिलने जंगल गई है। और तू! इतना न
हुआ कि एक बार मौनी जा कर भागी के माँ-बाप से मिल आता। प्रणाम
कर आता। अनबन तो तेरी भागी से हुई है न! यहाँ तक आया है तो
उनसे मिलने क्यों नहीं गया?'
अब चंदर की समझ में कुछ आया। भागी का बिफरना भी उसकी समझ में
आया।
'गलती हो गई चाची। कल जाऊँगा।'
'खाली हाथ मत जाना।'
'अब चाची इतना तो मुझे भी मालूम है।'
अगले दिन जब वह मौनी भागी के घर गया। घरवालों ने उसकी आवभगत
की, जैसे कुछ हुआ ही न हो। दिन भर वह गाँव के बच्चों के साथ
खेलता रहा। भागी एक दो बार नजर आई, पर कोई बात न हो पाई। रात
उसके सोने का इंतजाम भी वहीं एक कमरे में हुआ। उसे आशा हुई कि
शायद पहले की तरह भागी उससे मिलने आए। फिर अपनी आशा पर उसे
खिसियानी हँसी आई।
अगले दिन नाश्ते के बाद उसने वापस जाने की इच्छा जाहिर की। और
हिम्मत करके कह ही दिया कि वह भागी को भी ले जाएगा साथ में।
'मुझसे क्या पूछते हो चंदर। भागी से पूछ लो। वह जाना चाहती है
तो हमें क्या एतराज हो सकता है?' भागी की माँ ने कहा।
चंदर ने वही से भागी को आवाज दी। भागी आई।
'मैं तुम्हें लेने आया हूँ भागी।'
भागी उसके चेहरे की और देखने लगी। बहुत देर तक देखती रही। पता
नहीं क्या खोजने लगी उसके चेहरे में। और पता नहीं जो कुछ भी
उसने खोजा उसे मिला या नहीं। उसने अपना सिर झुका लिया।
'साथ चलोगी न?'
भागी ने स्वीकृति में सिर हिला दिया। और पूरे गाँव में खुशी की
लहर दौड़ गई। |