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असगर का व्यवहार कभी-कभी मुझे सोचने के लिए मजबूर करता, आखिर हमारे साथ उसके लगाव का कारण क्या है? आजकल जाति, पंथ, गाँव-गवांड, क्षेत्र, आर्थिक, सामाजिक समानता के जिन पैमानों से संबंधों की पैमाइश की जाती है, उनमें से कोई भी कारण हमारे और उसके मध्य नहीं था।

कोई स्वार्थ का कारण हो सकता है, मगर उसने तो दिहाड़ी से अतिरिक्त काम करने के लिए कभी मजदूरी नहीं माँगी। हाँ, हाड़ ठिठुराती ठंड में अन्य राज-मिस्त्रियों के साथ दिन में एक दो बार उसे भी एक गिलास चाय का पानी जरूर मिल जाता था। हाँ, वह चाय नहीं, चाय का पानी ही होता था, क्योंकि चाय नाम के उस पनीले-पनीले द्रव्य का एक घूँट भी लेना मुझे गवारा न था।

चाय का पानी पिलाने में भी परिवार के अन्य सदस्य मुँह बनाते। मैं उन्हें समझाता, ''क्या हुआ, बहुत ठंड है। पुण्य मिलेगा।''
चाय का वह पानी भी नि:स्वार्थ नहीं था। उसमें भी पुण्य कमाने के स्वार्थ की मिलावट रहती।

नाश्ते में एक दिन परांठे बने थे। चिकित्सीय प्रतिबंध के बावजूद मेरा मन पराठे उड़ाने के लिए कर रहा था। इसके साथ ही एक और पुण्य कमाने का ख्याल मन में आया। क्यों न काम पर लगे सभी लोगों को मूली का भरवा एक-एक पराठा खिलाया जाए! पत्नी के सामने इच्छा जाहिर की। पत्नी ने जवाब में अनिच्छा जाहिर की, ''क्यों आदत खराब करते हो?''
ठिठुरती आवाज में मैं ने कहा था, ''रोज-रोज थोड़े ही खिला रहे हैं, एक दिन में कहीं आदत खराब नहीं होती!'' मेरा इतना कहना था कि पुत्रवधू सुमन ने व्यंग्य बाण चलाया, ''मम्मी! खिला भी दो, नहीं तो पापा का दिल टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा!''

मैं उसी ठिठुराते अंदाज में फिर बोला, ''दिल टूटने का सवाल नहीं है, बेटे! कोई ज्यादा खर्च थोड़े ही हो जाएगा! जानवरों को भी तो खिला देते हैं। वे तो फिर भी इनसान हैं!'' उस दिन असगर सहित उन सभी को पराठे खिला तो दिए थे। मगर 'जानवार और इनसान' के अपने तर्क पर मैं खुद ही शर्मिदा था, लेकिन तर्क मेरी मजबूरी थी। और, इसके साथ ही मेरे सामने एक प्रश्न खड़ा था- स्वार्थी कौन! हम या असगर!

शुक्रवार दो जनवरी की सुबह थी। हाड़काँप ठंड, इंसानियत की तरह गिरता तापमान चार डिग्री के आसपास पहुँच गया था। घमंड की तरह घने कोहरे की चादर चारों तरफ तनी थी। हाथ को हाथ नहीं दिखाई पड़ रहा था। किसी ने दरवाजा खटखटाया। मुँह से निकला, ''इतनी ठंड में कौन आ गया, कमबख्त।''
ठंड के मारे कोई भी दरवाजा खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।लिहाजा सभी एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। प्रेमलता ने दरवाजा खोला। मैंने भी रजाई से मुँह बाहर निकाला। फटी सी चादर और एक कमीज पहने दरवाजे पर असगर खड़ा था। काम पर उस दिन केवल वही आया था, बाकी सभी छुट्टी मार गए थे। ठिठुराती ठंड में हमें उसके आने की भी उम्मीद नहीं थी।

बिना सहारे की लता की तरह काँपते असगर को देखा और निवेदन के लहजे में प्रेमलता से कहा, ''ठंड बहुत है, बेचारा बीमार पड़ गया तो काम रुक जाएगा। उसे पुराना कोई स्वेटर, लोई दे दो ओढ़ लेगा!''

मुझे मालूम था, जवाब क्या आना है! प्रेमलता की तरफ से न सही, परिवार के किसी अन्य सदस्य की तरफ से तो अवश्य ही तेज आँच में जली रोटी सा जवाब आएगा।

प्रेमलता मेरा मुँह ताक रही थी, तभी छोटी पुत्रवधू प्रीति की आवाज आई, ''मम्मी! पापा की रजाई भी दे दो, असगर को।''
प्रीति के उलाहना भरे जवाब से मैं शर्मसार था। झेंप मिटाने के लिए मैं बोला, ''कौन पहनता है, उस स्वेटर को, घर में कौन ओढ़ता है, लोई? बेकार ही तो रखे हैं। किसी के काम आ जाएँगे तो इसमें हर्ज क्या है!''

असगर के आँसू देख मैं शर्मिदा था। मेरे मन में ग्लानि भाव उत्पन्न हो गया था। हमने उसे कुछ दिया भी, मगर अपना हित देख कर अथवा अनुपयोगी वस्तु होने के कारण! उस सौगात को उसके निश्छल स्वभाव व नि:स्वार्थ आँसुओं के साथ नहीं तौला जा सकता। ऐसा किया गया तो कबाड़ के साथ किसी की कोमल भावना तौलने के समान ही होगा!

ठंड में सिकुड़ते असगर को प्रेमलता ने सौ रुपए के जूते पहनाए थे। वह भी इसलिए कि केवल सौ रुपए के थे। उसके पीछे भी वही भाव प्रमुख था, ''क्या हुआ सौ रुपए के ही तो हैं। सौ रुपए में हजार रुपए का पुण्य प्राप्त होगा! ..सौ रुपए तो अंकित ही खेल-खेल में खर्च कर डालता है।''

गाँव जाते वक्त प्रेमलता ने उसे कुछ और भी सौगात दी थी। वहाँ भी हम पर हमारा अहम भाव हावी था। सभी सामान जो हमारे लिए बेकार था, सौगात के रंग-बिरंगे पैकिंग में लपेट कर हम उसे सौंप रहे थे। मानो घर में मौजूद कबाड़ रंगीन कागज में लपेट कर किसी को ठगने का प्रयास कर रहे हों। हमारी नीयत कहीं भी तो उसके आँसुओं की तरह नि:स्वार्थ और निश्छल न थी।

सौगात के रंगीन कागज में लिपटा कबाड़ सौंपते हुए पत्नी ने उससे कहा, ''असगर! जब गाँव से लौट कर आए तो हमसे मिलने जरूर आना।''
पत्‍‌नी के स्वार्थ पूर्ण दया-भाव के बदले कमबख्त जाते-जाते फिर एक निश्चल स्नेहिल सौगात दे गया। जाने से पहले उसने कहा था- हाँ, अम्मी जी! जब हम लौट कर आएँगे, तो हमारी 'वो' आपके घर काम करेगी। अम्मी जी उसे पैसे मत देना। अब हम आप से पैसे नहीं लिया करेंगे!

मैं यहाँ 'बदला' शब्द का गलत इस्तेमाल कर रहा हूँ। बेकार की वस्तु और स्वार्थ से पगे स्नेह के बदले में कोई भी इनसान ताउम्र मुफ्त में काम करने का इरादा क्यों जाहिर करेगा? वह भी तब, सभी प्रकार के दबाव से भी मुक्त, वह हमसे विदा होकर जा रहा हो।

वह जाते-जाते हमें हमारी औकात बता गया। वह खुलासा कर गया, तुम्हारा स्वार्थी स्नेह, तुम्हारी सौगात भी मेरे निश्चल स्नेह, मेरे नि:स्वार्थ आँसू का कारण नहीं है।
मैं महसूस कर रहा हूँ, जिसे हम संबंधों का कारण मान रहे थे, वह भी हमारा मात्र अहम ही है।

वह हमारे यहाँ बेलदारी करता था, मगर उसका बेलदार होना भी उसके साथ हमारा सीधा संबंध नहीं जोड़ता था। वह हमारा नहीं ठेकेदार का बेलदार था, दिहाड़ी उसे ठेकेदार ही देता था। न जाने कितने घरों की नींव रखी होगी उसने? क्या काम पर से विदा होते समय वह सभी के यहाँ इसी तरह आँसू बहाता होगा?
शायद नहीं!
फिर हमारे यहाँ क्यों?

अनसुलझे से इस सवाल का जवाब प्रेमलता ने दार्शनिक लहजे में देने का प्रयास किया था, ''जरूर पिछले किसी जन्म में हमारा सगा-संबंधी रहा होगा!''
प्रेमलता का अपना दर्शन है, अपनी सोच है। परिचित-अपरिचित जब भी कोई हमारे परिवार के साथ आत्मीय-भाव प्रदर्शित करता है, वह उसके साथ ही पूर्वजन्म के काल्पनिक संबंध जोड़ने लगती है। यहाँ तक कि पालतू कुत्ता भी उसे पूर्वजन्म का ही कोई सगा-संबंधी लगता है।
उसके इस दार्शनिक सिद्धांत का खंडन करते हुए मैंने कहा, ''क्या बात करती हो, इस जन्म के सगे-संबंधी तो मरने पर भी इस तरह आँसू नहीं बहाते। पूर्वजन्म के सगे-संबंधी भला क्यों आँसू बहाने लगे।''
''फिर, असगर?'' प्रेमलता ने मेरे तर्क के संबंध में प्रश्न जड़ते हुए आगे कहा, ''चलो, एक बात तो माननी पड़ेगी, चाहे जो भी हो असगर है, भला इनसान।''
''क्या बात करती हो इंसान और भला!'' व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में बेवजह दखल देने वाले नाते-रिस्तेदारों की एक लंबी फेहरिस्त पत्‍‌नी के समक्ष खोल कर रख दी और पूछा, '' क्या वे सभी इनसान नहीं हैं?''
''नहीं, जानवर!'' प्रेमलता के मुँह से निकला।
'' उन्हें जानवर मत कहो। ऐसा कहना तो बेचारे जानवरों का अपमान होगा।''
''फिर?''
'' इनसान के मायने बदल गए हैं। इन्सानियत की परिभाषा बदल गई है। अब निष्ठा-स्नेह, मेहनत-ईमानदारी जैसे इनसानी गुणों का स्थान प्रोफेशनल व प्रैक्टिकल जैसे व्यावसायिक सदगुणों ने ले लिया है। वे इनसानी गुण अब इनसान में नहीं जानवरों में पाए जाते हैं।''
'' इसका मतलब! असगर इनसान नहीं, जानवर है?''
''हाँ! वह इनसान के रूप में जानवर ही है, सच्चा जानवर।''
''यह तो एक भले आदमी का अपमान हुआ!''
''नहीं, यह अपमान नहीं उसका सम्मान है, हकीकत है! असगर यदि निपट इनसान होता तो प्रोफेशनल होता, प्रैक्टीकल अप्रोच वाला होता। वह फिर खुद न रोता, उसके प्रोफेशनल और प्रैक्टिकल कारनामे याद कर-कर हम आँसू बहाते। तब वह हमारे साथ अनजान रिश्ते न कायम करता!''

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१८ जनवरी २०१०

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