|  गफ़ूर चचा ने छंगी ऊँगली से जो 
                    अल्ला दी का कान एँठा, उसके कान की नसें तड़-तड़ा गईं। गफ़ूर 
                    बौखलाते गए, ''लौंडिया! मामाई के थान पे जोत ही जलानी थी तो कमबख़्त किसी 
                    पांडे-सुकला के पैदा हो जाती। गफूर की चौखट पे हल कायकू चला 
                    रही है?''
 ''अरे! पर अब्बू मैंने किया क्या?''
 ''मामाई के थान पे जोत क्यों जलाई बेकूफ़?''
 ''जोत काय की अब्बा, मैंने तो बस रोसनी करी, जैसे गजरदम बाबा 
                    की मज़ार पे करती हूँ।''
 ''अरी लौंडिया! वो औलिया का मज़ार है और तू मुसलमान है। पर 
                    तेरा मामाई के थान से क्या वास्ता?''
 अल्लादी है जिरह बाज़-फट गई-
 ''अये अब्बू मुसलमान तो ठीक-'' फटे छौंक में समझाने का घी 
                    मिलाया- ''पर आला तो जैसा थान का, वैसा मज़ार का। गरज तो रोसनी 
                    से है ना?''
 गफ़ूर ने करम ठोंक लिए, ''या अल्ला माफ़ कर ख़ता...''
 
                    और अल्ला वालों से ख़ता मुआफ़ 
                    कराने के लिए गफ़ूर चचा ने पारंपारिक तरीका तलाश लिया। साठ ऊपर 
                    आठ के नियाज़ अहमद से दो ऊपर सत्तरह की अल्लादी का निकाह पढ़ा 
                    कर गफ़ूर तो निजात पा गए, पर बुढऊ दूल्हा नियाज़ अहमद निकाह के 
                    चौथे रोज़ ही गफ़लत में फँस गए।हुआ यों, कि घर-आँगन लीपने को गोबर लाने के लिए टोकरी सर पे रख 
                    कर अल्लादी जैसे ही बख्खल वाले मंदिर के पिछवाड़े से होकर 
                    निकली, देखती क्या है कि मंदिर के पुजारी राम आसरे धोती में 
                    बोतल छुपाए, रह-रह कर कुछ घूँट रहे हैं। अल्लादी ने टोकरी सर 
                    से उतार कर नीचे टिकाई, और धीमे से बोली,
 ''पंडत जी! हए, ये क्या कर रहे हो?''
 राम आसरे को काटो तो खून नहीं। गिड़गिड़ा कर बोले, ''अये 
                    लल्ली, तुझे ईमान की कसम, अल्लादी! किसी से कहियो मत।''
 क्या मत कहियो-- अल्लादी कुछ 
                    समझी, कुछ न समझी। पर हड़बडाहट में राम आसरे भागे, दिया-बत्ती 
                    का टाइम जो हो गया था, तो चोर की ख़िलाफ़ अजानी गवाही-सी। कच्ची की बोतल धोती की ढीली गाँठ से खिसक कर ज़मीन पर जा गिरी।
 ''हाय अल्ला!'' अल्लादी सन्न।
 ''राम जी का पुजारी और...?''
 अल्लादी सिर्फ़ अल्लादी होती 
                    तो शायद चुप भी लगा जाती। वहाँ तो बोली नहीं, ओसारे में जाकर 
                    राम रती यानि पंडत जी की घरैतन को सब दिखाया भी और समझाया भी। 
                    पुजारन ने माथा कूट लिया, पर अल्लादी माथा कूटने वालों में से 
                    थोड़े ही है? तिदरी में आरती की तैयारी करते राम आसरे पुजारी 
                    पर फट कर बरस पड़ी,''पंडत जी! घंटी बजाने तक तो ठीक है, पर कच्ची लगाकर 'गरभ गिर' 
                    में घुसे तो, अल्ला कसम, चौखट सर पे आन पड़ेगी। हटो वहाँ से, 
                    जोत-बत्ती तो मैं कर दूँगी।''
 नियाज़ अहमद ने भी सुना। 
                    अड़सठ की उम्र, अल्लादी के सीधे सच में उन्हें जाने क्या टेढ़ 
                    नज़र आई कि पोपले मुँह से अल्लादी पर बरस पड़े-''अमा! आप को क्या? आप दूसरों के मज़हब में दखल क्यों देती 
                    हैं?''
 दूसरों का मज़हब? शराब पीना और पीकर इबादत करना तो किसी का भी 
                    मज़हब नहीं हो सकता? गुमा-गुमा करती सी बोली,
 ''खाँ साब! ये मसला मज़हब का नहीं, आदमीयत का है। आज तो छोड़ 
                    आई हूँ, फिर कभी ऐसा हुआ, तो अल्ला कसम, इस नसेड़ी पुजारी को 
                    रामदरबार में घुसने नहीं दूँगी।''
 एक बात हो तो ठीक. जुए-गाँजे 
                    के कितनी ही शौकिन खानों-अलियों को अल्लादी गाँव के मुहाने से 
                    बाहर खदेड़ने में गुरेज नहीं करती थी।''हरामड़! बीवी-बच्चे दाने-दाने को मोहताज फिरें हैं। खुद 
                    सुलफ़ा लगा के चिड़ी की बेगम से उलझ रहा है। बरतन-भाडे तो बेच 
                    दिए, कुनबा रह गया है बिकने को, बस्स।''
 नियाज़ अहमद-अल्लाजाने, 
                    अल्लादी की बेबाक़ जुबान से घबरा गए या गाँव वालों की चुपचाप 
                    अल्लादी के सच की ख़िलाफ़त से। उनहत्तरवाँ पूरा नहीं कर पाए। 
                    अल्लादी बेवा हो कर कमसिनी से सीधे बुढ़ापे में दाखिल हो गईं।अब तो वैसे भी पैंतालिस की हो चलीं।
 अल्लादी के सच की कमची से बामन-बख्खल भी उतनी ही घबराती जितना 
                    मौलवी बाड़ा। सामने तो किसी का हिया नहीं पड़ता, पर भीतर ही 
                    भीतर दोनों कौमों के कट्टरपंथी गीली लकड़ी से सुलगने लगे थे।
 किसी भी किस्म का ढोंग, दुराव-छुपाव, दिखावा अल्लादी की ज़ुबान 
                    की मार से बच नहीं सकता था। ऐसे ही माहौल में किसी गनी के 
                    ग्यान के पर्दे खुल गए।
 ''अल्लादी कौन कहे? वो तो कबीरन है भैय्या- कबीरन बी, राम 
                    कसम।''
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