अप्पू नल में पाइप लगाना और पानी
देना सीखने लगा। सब कुछ नया था उसके लिए। मैं घर देखने भीतर
आई। नरेन ने ज़रूरत का कुछ सामान जमाने की कोशिश तो की थी
लेकिन अभी भी ज़्यादातर सामान पैक ही पड़ा था।
भीतर के बरामदे में पड़ा बेंत
का झूला पहले यहाँ रहने वाले लोग वैसा ही छोड़ गए थे। बिलकुल
नया या ठीक से सँभालकर इस्तेमाल किया हुआ। कैसे सलीकेदार लोग
होंगे जो इस घर में रहते होंगे। मैंने मन ही मन सोचा। इस
सौंदर्य को और भी सजाकर रखूँगी। खुद से वायदा किया और धीमे
कदमों से खुशी की इस नई सौग़ात को पूरी तरह महसूस करने लगी।
घर तो मनभावन था ही, पिछवाड़े
एक खूब ऊँचा पेड़ अपनी बाहें फैलाए चुपचाप खड़ा था। घनी छाया
के कारण ज़मीन पर घास नहीं पनप पाई थी। वैसे भी सामने का लॉन
सजा रहे इसके लिए पीछे तो नर्सरी ही बनाना ठीक रहता। कंपोस्ट
के गड्ढे खोदने के लिए भी तो कोई जगह चाहिए थी। वह सब काम यहीं
करना था। पर यह पेड़ है कौन-सा? ठीक
से पहचान नहीं पाई। इस चेहरे मोहरे से पहले कभी परिचय नहीं हुआ
था। वह घनी छतरी ताने चुपचाप खड़ा था अपने स्वाभाविक संकोच और
गरिमा के साथ। नरेन ने ही परिचय करवाया, ''इसे कदंब कहते
हैं।'' -
''ओह कदंब है ये?'' कितना पुराना
परिचय और मुलाकात आज हुई!
झूला पड़ा कदंब की डारी झूलें कृष्ण बिहारी ना
झूला पड़ा कदंब की डारी झूलें राधा प्यारी ना
संगीत प्रेमी होने के नाते अनायास ही ये शब्द मेरे कंठ से फूटे
और हवा में होते हुए कदंब की पत्तों में समा गए। पत्तियों से
झरती धूप में घुले और गहरी साँस में चैन बनकर रोम-रोम में बिखर
गए।
न जाने क्यों जब यह चैन
गहराया तो एक जिज्ञासा उपजी। तीन मंज़िलों से ज़्यादा ऊँचा
कदंब का पेड़... इस पर कोई झूला डालेगा तो कैसे?
...कृष्ण बिहारी कैसे झूला डालते होंगे... राधा प्यारी
कितनी ऊँची पेंगें भरती होंगी। इस कदंब की सारी शाखाएँ ऊपर ही
ऊपर क्यों है? हो सकता है नीचे वाली
सभी डालियाँ काट डाली गई हों। ब्रज में तो कदंब के प्रति उस
समय में लोग इतने निर्दयी नहीं रहे होंगे। तभी तो कदंब पर झूले
पड़ते होंगे। पर्यावरण पर पड़ती मार का अहसास हुआ तो
पेड़-पौधों पर और प्यार उमड़ आया।
फिर तो कदंब तले फुरसत में
डूबे पल रोज़ गुज़रते। नरेन के ऑफिस और अप्पू के स्कूल जाने के
बाद मेरा सारा समय कदंब के साथ ही व्यतीत होता। चाय की
चुस्कियों के साथ बरसात की नम हवा के नर्म झोंकों में मैंने
अपनी सहेलियों के बहुत से गीतों की बनाईं। जब तक माली नहीं आ
जाता कदंब की छाँह में ही कभी टहलती, कभी कुछ गुनगुनाती, कभी
बरामदे में लटके कुर्सीनुमा झूले पर बैठती, कुछ पढ़ती या नए
गमलों को सजाने की योजनाएँ बनाती। माली आ जाता तो मिलकर बगीचे
के काम निपटाते। नए गमलों को तैयार करना, पुराने पेड़ों की
छँटाई और बगीचे की सफ़ाई कराते दोपहर के खाने का समय हो जाता।
घर को सजाते, नए पड़ोस से
पहचान बिठाते एक महीना कब बीत गया पता ही नहीं चला। बरसात की
एक प्यारी सुबह जब मैं चाय का प्याला लिए बरामदे में आई तो
पेड़ पर आई बसंती कलियों को देख आश्चर्य चकित रह गई। ओह कदंब
की कलियाँ! कदंब फूल गया!
हरे पत्तों पर छाए वे बसंती सफेद गुच्छे बेहद आकर्षक लग रहे
थे। फिर तो सुबह के काम पूरे होने के बाद कदंब की कलियों को
बढ़ते हुए देखना रोज का नियम-सा हो
गया। नरेन ऑफ़िस चले जाते और अप्पू स्कूल तो मेरा समय तो इस
कदंब के साथ ही कटना था। धीरे-धीरे बसंती कलियाँ फूटीं और
नारंगी सफ़ेद फूलों ने आकार लेना शुरू किया।
इसी बीच मुझे अप्पू के स्कूल
में नौकरी मिल गई। घर, नौकरी, परिवार के बीच झूलते कदंब के साथ
गपशप का वह दोपहर से पहले का समय हाथ से निकल गया। सुबह की चाय
का समय भी न मिलता। अप्पू के साथ ही सुबह स्कूल के लिए निकलना
होता और लौटकर घर का काम, एक मीठी नींद, फिर नरेन का घर लौटना
और शाम की चाय। पड़ोस में भी हमारी जान-पहचान बढ़ गई थी। अक्सर
ही हम एक दूसरे के घर आते जाते और रात कब हो जाती पता ही न
चलता। सोने से पहले जब पीछे वाली खिड़की खोलती तो मीठी मंद
सुगंध कमरे के भीतर आ जाती। कदम्ब के सुगंधित फूलों का यह
संदेश मुझे तरावट भरी मीठी नींद में सुला देता। अप्पू और नरेन
के साथ समय पंख लगाकर उड़ने लगा। सामने का बगीचा हरा भरा हो
रहा था। माली बदस्तूर काम कर जाता था कदंब खिल रहा था पर कदंब
के पास बैठने का समय नहीं बचा था।
एक दिन शाम को धुले हुए कपड़े
तहाते हुए मैंने नरेन की सफ़ेद कमीज़ पर नारंगी धब्बा देखा। न
जाने कहाँ से लग गया, न जाने क्या गिर गया किसी ने कुछ फेंका
हो जैसे। प्रेस करने से पहले ही इसको दुबारा धो डालना चाहिए।
यह सोचकर मैंने कमीज़ को फिर से वाशिंग मशीन में डाल दिया। मगर
दाग साफ़ नहीं होना था तो नहीं हुआ। नारंगी से बदलकर भूरा हो
गया। चुपचाप कमीज़ माली को दे दी और उसी ब्रांड की वैसी ही एक
नई कमीज़ लाकर नरेन की वार्डरोब में रख दी। फिर तो इन धब्बों
की कहानी ही शुरू हो गई। दरअसल कपड़े सुखाने के लिए एक रस्सी
हमने कदंब के नीचे बाँधी थी। कदंब के फल पकने लगे थे और वे दिन
भर तड़ातड़ टपकते रहते। मानो कदंब हमसे बात न करने की खुंदस
निकाल रहा हो। हार कर हमें वहाँ कपड़े सुखाना बंद करना पड़ा।
छत के सिवा इस काम के लिए कोई दूसरी जगह न थी और वहाँ पर रस्सी
बाँधने की कोई जगह नहीं थी सो कपड़े सुखाने का नया सटैंड
ख़रीदा, वाशिंग मशीन को ऊपरवाले बाथरूम में शिफ्ट किया, उसके
लिए कुछ वायरिंग भी बदलवानी पड़ी। पैसे जो खर्च हुए सो हुए
बेमतलब की भागदौड़ में सारी शाम खराब हो गई। इतने से भी
मुसीबतों का अंत नहीं हुआ। |