कुछ दिन तेरे पास रुककर फिर वहीं
से चला जाऊँगा। रास्ते में ही तो है। फिर बहुत दिनों बाद मिले
हैं कुछ बातचीत और मस्ती भी हो जाएगी।''
और अगले ही पल वो बिना किसी
इज़ाज़त के मेरे साथ ट्रेन की बोगी में था। 'अजीब आदमी है...'
सोचकर हैरानी हुई थी। मगर फिर लगा कि बचपन के घनिष्ठ मित्र ऐसा
ही करते हैं। और फिर उसका साथ अचानक अच्छा लगने लगा था और मैं
खुश था। '... लेकिन कहाँ अब मैं दोस्तों के लिए घंटे भी नहीं
निकाल पाता हूँ और इसने तो दिनों में बात कह दी'... सोच-सोच कर
आश्चर्य हो रहा था। मगर ट्रेन के प्लेटफॉर्म छोड़ते ही उसको
जानने की जिज्ञासा, फिर एक-दो सवाल और उस ओर से जवाब। दूसरी
तरफ़ से कोई खास पूछताछ नहीं की जा रही थी फिर भी प्रवाह में
सब कुछ भूलकर मैं कुछ ही देर में अपनी ऊँची-ऊँची सुनाने लगा तो
वो धीरे-धीरे मेरी बर्थ पर पसर चुका था। कंडक्टर नहीं आता तो
शायद मैं बोलता ही रहता। इस दौरान मैंने तो पूछा भी नहीं था कि
उसकी टिकट का क्या होगा। मेरे दिमाग में यह सवाल आता भी कैसे,
ओर फिर उसने इसका ज़िक्र भी तो नहीं किया था। कंडक्टर को देखकर
भी उसके चेहरे पर कोई शिकन न थी। चेहरे से निर्भय, तनावमुक्त।
मानो उसने कुछ किया ही न हो। मैं, अपनी टिकट दिखा चुका था
परंतु कंडक्टर के उसकी टिकट के लिए खड़े रहने से मुझे परेशानी
होने लगी थी। दूसरी बार उससे टिकट पूछे जाने पर उसके बेझिझक
होकर एक नज़र मेरी ओर डाली थी। और अंत में उसकी टिकट मुझे ही
लेनी पड़ी थी। पैनल्टी के साथ। और साथ थी टीटी की उलाहना भरी
नज़र। जिसके पास उसे गलत साबित करने के लिए पूरा प्रमाण था।
मगर उसके चेहरे पर कोई शरम न
थी जबकि मैं पानी-पानी हो रहा था। टिकट कलेक्टर के जाने के बाद
ही मैं लंबी साँस ले पाया था, मानो मैंने ही कोई चोरी की हो।
एक मिनट के लिए झुंझलाहट हुई थी। '...ये कोई बात हुई! ख़ैर,
बचपन के दोस्त आपस में ऐसा ही अधिकार दिखाते हैं।'' यही सोचकर
मैंने खिड़की से बाहर झाँका तो वहाँ अंधेरा हो चुका था। कुछ
देर बाद मैं फिर सामान्य क्या हुआ कि अचानक मन में भाव उमड़े
थे कि 'कम से कम धन्यवाद तो कहना था।' और मैं उसे इस बात का
अहसास दिलाने अंदर मुड़कर कुछ कहना चाहा तो देखा कि वो झोले
में से एक अंग्रेज़ी नॉवल निकालकर पढ़वे में मस्त हो चुका था।
'यह उसकी बचपन की आदत है।' देखते ही पुरानी यादें ताज़ा हुई
थीं। '...यह तो बिल्कुल भी नहीं बदला। और मैं? शायद में भी
नहीं। आदमी का मूल स्वभाव कहाँ बदलता है।' और मैं अचानक उससे
जुड़ी पुरानी यादों में खोने लगा था। वैसे मैं इतना ज़रूर
जानता था कि उसने होटल मैनेजमेंट का कोर्स किया था। उसके डैडी
के स्थानांतरण के बाद हम स्कूल से अलग-अलग क्या हुए, मुझे अपने
पापा से उसके बारे में जानकारी मिलती रहती थी। हमारे दोनों के
पिता एक ही विभाग में जो थे। इधर, मैंने इंजीनियरिंग कॉलेज में
दाखिला क्या लिया मेरी प्रतिष्ठा समाज में स्थापित होने लगी
थी। और दिनों में एक बार फिर मैं सुनील से अपने आपको ऊपर
रखवाने में सफल हुआ था। कालोनी में भी मम्मी-पापा की पूछ
ज़्यादा रहती जब मेरा नाम बेहतर ढंग से लिया जाता। और यह
सिलसिला कुछ सालों तक तब तक चलता रहा जब तक उसकी ख़बर मिलती
रही। शायद फाइनल ईयर में पता चला था कि वो दिल्ली के किसी फाइव
स्टार होटल में नौकरी करने लगा है।
'...उंह, बेयरे की नौकरी ही
तो है फिर चाहे बड़े होटल में क्यों न सही।' कभी माँ तो कभी
पड़ोस की आँटी बोल ही देती थीं। और सुनक मैं भी मन ही मन खुश
होता था। वो आखिरी ख़बर थी उसके बाद उसकी कोई जानकारी नहीं थी।
''खाने का क्या है?'' उसने बेझिझक होकर पूछा था। उसकी आवाज़ ने
मुझे भूतकाल से बाहर निकाला था।
''ऑर्डर दे दिया है। आगरा में सर्व होगा। आगरा शायद नौ बजे आता
है। अभी लगता है, टाइम लगेगा।'' मैंने एक बार फिर खिड़की से
बाहर देखते हुए कहा था। ताजमहाल के शहर की लाइटें अभी दूर थीं।
और मेरी निगाह घड़ी पर फिर वापस पहुँची थी।
''दारू चलेगी?'' कहते हुए
उसने अपने उसी बैग से शराब की छोटी-सी बोतल निकाली थी।
प्लास्टिक के दो गिलास उसने स्टेशन पर चाय वाले से जब माँगे तो
मैं कुछ समझा न था। अब वही काम में लिए जा रहे थे।
''नहीं-नहीं।... वैसे कभी-कभी लेता तो हूँ, मगर...'' देसी
देखकर मेरे चेहरे पर आड़ी-तेड़ी कुछ रेखाएँ उभरी थीं।
''अरे यार, देसी मस्त होती है, ऊपर से सस्ती भी पड़ती है। फिर
स्टेशन के बाहर यहीं मिल रही थी।'' शायद उसने मुझे पढ़ लिया
था।
मैं पीने तो लगा था लेकिन
देसी नाम से भी परहेज था। तभी तो उसे देख हैरानी हो रही थी
'...तो यही इसका स्टैंडर्ड है।' और फिर मैं जब स्वयं को रोक न
सका तो धीरे से बोल ही पड़ा,
''कोई बात नहीं, तुम लो। मैं सिर्फ़ अंग्रेज़ी लेता हूँ।''
''अच्छा...'' उसने मुस्कुराते हुए आँखों से मेरे बड़प्पन को
स्वीकारा था। अगले घूँट के साथ उसने एक निगाह सामने के बर्थ
वाले पर डाली थी और फिर बिना किसी परवाह के एक बार फिर गिलास
भरकर उसे बगल में रखा और नॉवल खोलकर पढ़ने लगा था। तभी सामने
वाले की निगाह मुझसे टकराई तो मैं झेंप गया था। दारू गिलास में
से छलक न जाए, सामने वाला यात्री कहीं कुछ टोके न, मुझे
ज़्यादा चिंता हो रही थी। और फिर हमें देसी पीता देख पता नहीं
दूसरे क्या सोचते होंगे। मगर वो बेपरवाह था। और फिर आगरा में
खा-पीकर वो तुरंत सो गया था। हाँ, लेटने पर उसने इतना ज़रूर
कहा था, ''कोई दिक्कत तो नहीं...?'' और मैंने अपना सिर हिलाते
हुए मन किया था।
सुबह भोपाल पहुँचकर फ्लैट में
मैं उसके साथ पहुँचा तो मेरा चेहरा कमरे की तरह सिकुड़ रहा था।
जिन लोगों के सामने अपने आपको छिपाना है उन्हें घर कभी नहीं
लाता था। उसने घर के अंदर पहुँचते ही चारों ओर नज़र डाली तो
लगा कि आज मेरा अभिमान इसके सामने टूट जाएगा। मगर उसने तुरंत
अपनी प्रसन्नता प्रकट की तो एक मिनट के लिए आश्चर्य हुआ था। और
क्यों न होता एक कमरे का फ्लैट अंदर से अव्यवस्थित और गंदा जो
था। साफ़-सफ़ाई कौन करता, प्राइवेट नौकरी में रात देर हो जाती
और फिर बीवी का इंतज़ाम भी अभी तक नहीं हुआ था। कैसे होता,
छोटी-सी नौकरी में इंजीनियरिंग कॉलेज की सारी हवा निकल रही थी
तो शादी की हवा कैसे बन पाती। शादी के पहले कुछ पैसा इकट्ठा हो
जाए, इस चक्कर में जवानी बेकार जा रही थी और मैं अक्सर रात में
हिंदुस्तानी इंग्लिश शराब के दो पैग लगाकर अपनी भड़ास निकाल
लिया करता था। '...तो क्या हुआ, इंजीनियर तो हूँ इससे बेहतर ही
है। तभी तो इसे ये भी अच्छा लग रहा है और क्या...।' और मैं
तुरंत घर में बिखरे सामान को समेटने की कोशिश में लगा तो उसने
किचन में घुसकर तांक-झांक कर चाय बना डाली थी।
''दूध तो होगा नहीं...'' मैंने सफ़ाई दी थी।
''कोई बात नहीं, ब्लैक-टी ज़्यादा अच्छी होती है।'' और वो चाय
की चुस्कियाँ ले रहा था। |