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वापस घर लौटने पर तुझे विदा करते समय मैं मुँह से कुछ न कह पाई मगर आँखों ने आँसू गिराकर बहुत कुछ कह दिया। तेरा माथा चूमकर मैंने तुझे विदाई दी और तूने मेरे पैर छुए। तूने भरी आँखों से मेरे हाथों को अपने हाथों से दबाते हुए कहा था, 'मम्मी, आज आपका साथ मुझे बहुत-बहुत अच्छा लगा, जितना मैंने सोचा था, उससे कहीं अधिक।' मैं भी ऐन यही बात कहना चाहती थी।
उस रात तो मैं बिल्कुल भी न सो सकी। रात भर खुशी से रोती रही।
सुबह सबसे पहला फ़ोन मिसेज़ वर्मा का आया था। हालाँकि मैं सोच रही थी अंचित मुझे फ़ोन करेगी लेकिन बाद में तो उसका फ़ोन आ ही गया था। मिसेज़ वर्मा काफ़ी उत्सुक थी, हमारी 'डेट' के बारे में जानने के लिए। मैंने उसे विस्तार से बताया था। सुनकर वो भी भावुक हो गई थी। उसने कहा था, 'काश! मेरी औलाद भी मेरे लिए कुछ ऐसा ही करे।'
'काश' शब्द कितना उम्मीदों से भरा होता है, नहीं? इसी के सहारे हम ज़िंदगी को अंतिम सिरे तक ले जाते हैं। लेकिन उस दिन वो 'काश' मेरे लिए नहीं था, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ मिसेज वर्मा के लिए था।
जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है, मैं इस बात को फिर दोहरा रही हूँ कि उस एक दिन को मैंने कितने ही दिन जिया है और आज भी जी रही हूँ। यहाँ मैं उन बातों को नहीं लिखना चाहती या बताना चाहती कि हम कैसे और किन हालातों में रह रहे हैं। मैं नहीं जानती कि तुम लोग मुझे अपने साथ रखना चाहते हो या नहीं लेकिन मैं तुम लोगों के साथ नहीं रहना चाहती क्यों कि मैं अपने घर में रहना चाहती हूँ, अपनी तरह, अपने नियमों से जीना चाहती हूँ और सबसे बड़ी बात, मेरे पति ने इस घर में दम तोड़ा था इसलिए मैं भी यहीं मरना चाहती हूँ।

तुम सभी मेरा परिवार हो और मेरा परिवार मुझे प्रिय है। तू, योगेंद्र और सुमित्रा, तुम तीनों के परिवार के लिए मैं भगवान से सदा सुखी रहने की प्रार्थना करती हूँ।
मैं एक बात और कहना चाहूँगी। वो शाम हमारे जीवन में चाहे किसी वजह से आई हो और जिसकी वजह से आई थी उसे धन्यवाद देना चाहूँगी, मैं उसे फिर से दोहराना चाहूँगी, कई-कई बार दोहराना चाहूँगी। कोई क्षण किसी को कैसे खुशी दे सकता है यह मुझे उस दिन महसूस हुआ। जब तू यह पत्र पढ़ेगा तो तुझे भी वह शाम ऐसी ही याद आ जाएगी जैसे मुझे लिखते हुए याद आ रही है। मैं चाहती हूँ मैं योगेंद्र के साथ भी ऐसी ही शाम गुज़ारूँ। क्या तू अपने भाई से मेरे लिए ऐसा कह सकता है? अपने छोटे बेटे के साथ भी मुझे ऐसी ही शाम चाहिए, मरने से पहले।
क्या ऐसा हो सकता है?
काश! ऐसा हो।
सचमुच 'काश' शब्द कितना उम्मीदों से भरा होता है। मैं अपनी उम्मीद को पूरा होते देखना चाहती हूँ।
पता नहीं मैं तुझे यह पत्र क्यों लिख रही हूँ, पर मुझे अच्छा लग रहा है, मज़ा आ रहा है।
सस्नेह!
तुम्हारी माँ

उसकी छोटी बहन सुमित्रा का फ़ोन आया था। वह मम्मी से मिलने आई थी। सुबह अखबार पढ़ते हुए जो फ़ोन सुना था, उससे अखबार हाथों से फिसलकर फ़र्श पर बिखर गया था। साथ ही बहुत सारी यादें भी बिखर गईं थीं।
सुमित्रा ने बताया था कि मम्मी रात को जो सोई तो सोती ही रह गई। मम्मी के सिरहाने यह पत्र रखा था। क्रियाकर्म के बाद उसने यह पत्र पढ़ा था। उसे भी वो शाम याद है, जैसी माँ को याद थी। दो महीने से अधिक हो गए थे, वह ऐसा समय फिर नहीं निकाल पाया था। पत्र पढ़ने के बाद उसे बहुत अफ़सोस हुआ। उसे वक्त निकालना चाहिए था। इतने बरसों में वह अपनी माँ के लिए सिर्फ़ एक शाम ही निकाल पाया था। उसी शाम को अपनी स्मृति में संजोये वह चली गई। उसे सचमुच वक्त निकालना चाहिए था मगर अब क्या हो सकता था, अब तो वक्त ही निकल चुका था।
उसने पत्र एक बार और पढ़ा फिर उसे मोड़कर कुर्ते की जेब में सहेज कर रख लिया। अपनी माँ की सबसे अनमोल चीज़ उसे विरासत में मिल चुकी थी और वो उसी के पास रहेगी। चाहे कितने ही बँटवारे क्यों न हो जाए, इसे कभी कोई क्लेम नहीं करेगा।

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१८ फरवरी २००८

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