इतवार को मेरी छुट्टी होती थी।
उस दिन मैं अपने गंदे कपड़े धोया करता। नल या बाथरूम को लेकर
ही नहान से टकराव हो सकता था। इसलिए मैं कपड़े धोने के पहले ही
नहान से पूछने चला गया - ''बाथरूम का कोई काम तो नहीं है? मैं
अपने कपड़े धो लूँ?''
आगे भी मैं उससे नियमित
अनुमति माँगता रहा। इसके चलते नहान की कृपा मुझ पर रहती। वह
मुझसे कहा करती, ''कभी कोई तकलीफ़ हो, कोई ज़रूरत हो तो बता
देना। मैं कभी-कभी छोटी मोटी चीज़ें उधार माँग लेता - जैसे
किरासन तेल, मोमबत्ती, माचिस, इस्तिरी। पर मेरे अलावा कोई और
पड़ोसी नहान के कमरे की तरफ़ झाँकता तक न था।
नहान उसका असली नाम नहीं था।
नहान शब्द किसी स्त्री का नाम होगा, यह सोचकर ही अटपटा लगता
था। लेकिन अटपटापन उत्सुकता तो पैदा कर ही देता है। मेरे मन
में यह सवाल कुलबुलाता रहा। इसलिए नहान के बारे में जो सूचना
सहज ही मिल जाती, मैं उसे अपनी स्मृति के खज़ाने में डाल लेता।
मैं चाहता तो उसके बारे में पड़ोसियों से पूछताछ कर सकता था।
लेकिन मैं उस मकान में नया था। उस मकान में कुल छ: बड़े-बड़े
कमरे थे एक कतार में बने। उन्हीं में से एक कमरे में नहान अपने
पति सूरज के साथ रहती थी। सूरज एक ढाबे में कारीगर था। कारीगर
यानि बावर्ची। दिन में दस बजे काम पर जाता तो रात में बारह बजे
लौटता। सुबह में देर तक सोता रहता। उसके पास नहान के लिए फुरसत
नहीं थी।
नहान को भी फ़ुरसत कहाँ थी?
वह भी पति के जाने के बाद चूड़ियों की टोकरी उठा सरकारी कॉलोनी
चली जाती। उसकी टोकरी में रंग बिरंगी सस्ती चूड़ियाँ होती। हर
तरह की कलाई में फिट आने वाली चूड़ियाँ। काँच और प्लास्टिक की
चूड़ियाँ। नहान कॉलोनी में जब पहुँचती तो वहाँ की औरतें फ़ुरसत
में होती। पति काम पर और बच्चे स्कूल। नहान अपने महीन मगर तेज़
सुर में आवाज़ लगाती - ''चूड़ियाँ रंग बिरंगी चूड़ियाँ। अगर
टेर के बाद भी दरवाज़ा नहीं खुलता तो वह बेहिचक कॉलबेल दबा
देती। पिछले कई सालों से वह इस कॉलोनी में फेरा लगाती थी इसलिए
उसे सब जानते थे। कई औरतें नहान को खुद ही बुला लेतीं। कुछ
खरीदतीं, कुछ सिर्फ़ चूड़ियों को देखतीं, खरीदने की इच्छा
दबातीं और महँगाई का रोना रोतीं।
नहान को मैंने अपने एक परिचित
के यहाँ चूड़ी बेचते देखा था। हम बैठक में थे। गृहस्वामिनी ने
दरवाज़े के पास गलियारे में नहान को बिठा रखा था। नहान
गृहस्वामिनी को चूड़ियों की किस्में दिखलाती जा रही थी - ''बुंदकी,
खिरकिया, झरोखनी, चंदा - तारा, सूरजमुखी... लोकतारनी। अच्छा ये
पसंद नहीं आई तो सादी चूड़ियाँ ले लो। आपकी गोरी कलाइयों पे ये
ऊदी रंग खूब फबेगा... थोड़ा लाल और थोड़ा काला मिला कर ऊदी रंग
बने बीबी जी... सात का जोड़ा डलवा लो... येल्लो! बगैर कंगन के
कहीं सादी चूड़ियाँ फबती हैं? दोनों कलाइयों के लिए चार कंगन
तो चाहिए। आगे पीछे एक-एक कंगन तभी तो काँच की चूड़ियाँ टूटने
से बचेंगी... आप पैसे की मत सोचो। पैसा नहीं है तो सिर्फ़
बोहनी कर दो। बाकी अगले चक्कर में दे देना। तीस रुपए होते हैं।
अभी दस दे दो। बीस हम फिर ले लेंगे। गृहस्वामिनी ने चूड़ियाँ
पहन लीं। नहान को दस रुपए देकर जब वह जाने लगी तब नहान बोली,
''बीबी जी, असीस की चूड़ी तो पहनती जाओ। गृहस्वामिनी ने कलाई
झट आगे बढ़ा दी। भूलसुधार के लिए। नहान ने उनकी बांई - दांई
कलाई में एक-एक और चूड़ी डाल दी। गृहस्वामिनी झुकीं, चूड़ियों
की झोरी से अपने माथे को लगाया। नहान बोली, ''सुहाग बना रहे
बीबी जी! नहान आवाज़ लगाती निकल गई। लेकिन मन में सवाल
कुलबुलाता रहा - असीस की जोड़ी क्या है? इन दो चूड़ी के लिए
उसने पैसे क्यों नहीं लिए? शायद यह कोई रिवाज़ होगा। इतनी
व्यवहार कुशल माला को नहान क्यों कहते हैं? इसके बाल - बच्चे
हैं नहीं? इसका पति पाँच हज़ार तक कमा लेता है। इस रकम में दो
लोगों की गृहस्थी आराम से चल सकती है। फिर यह चूड़ी की टोकरी
क्यों उठाए फिरती है?
इसका शरीर स्वस्थ है, मन से
दमित नहीं है फिर भी यह बार-बार क्यों नहाती है? उसकी नहाने की
आदत से सब परेशान थे। सबको नहाना धोना होता था। बच्चों को नहा
धोकर स्कूल जाना था, बच्चों को काम पर। नहान के चलते सबका
रूटीन बिगड़ जाता। चार बार तो वह नहाती ही थी। इसके अलावा वह
कभी भी नहाने पहुँच जाती। बाथरूम में कोई होता तो वह दरवाज़ा
पीट-पीट कर परेशान कर देती। लेकिन जब वह खुद बाथरूम में होती
और कोई दरवाज़ा पीटता तो ज़ोर-ज़ोर से गालियाँ देती बाहर
निकलती और मकान झगड़े के शोरगुल से भर जाता।
मैं जितना पड़ोस में घुलता
मिलता गया, नहान के बारे में नई-नई सूचनाएँ जुड़ती गईं। नहान
सुंदरी थी। उसकी चिकनी साँवली त्वचा के अंदर से गोरा रंग फूट
पड़ता था। इससे उसकी साँवली त्वचा दमकती। वह कोई पैंतीस साल की
होगी। लेकिन रोज़-रोज़ के शारीरिक श्रम ने देह की तराश को बनाए
रखा था। बदन में फालतू चर्बी कहीं नहीं थी। बड़ी-बड़ी कनपटी तक
फैली आँखें। गोल चेहरे पर छोटी-सी नाक बेडौल लगती थी पर पूरे
चेहरे का अक्स ऐसा था कि उसे भूलना असंभव था। जूड़े को लटकाने
के बजाय वह ऊपर की ओर बाँध कर हेयरपिन लगाती जिससे उसकी सुतवाँ
गर्दन और उजागर हो जाती। वह सजने सँवरने के लिए वैसा जूड़ा
नहीं बाँधती। बस माथे पर टोकरी उठाने में सुभीता रहे। हाँ,
उसके होंठों पर पान की लाली हमेशा रहती। पान खाने का शौक उसे
अपने पति से मिला था। भट्ठी के पास खड़े-खड़े उसका गला सूखता
इसलिए उसने पान खाने की आदत डाल ली थी।
नहान अपने पति को साँवरे कहकर
बुलाया करती। साँवरे यानि साँवरे कृष्ण। कृष्ण जैसा प्रेमी
पाने की चाहत लोक जीवन में कई प्रकार से अभिव्यक्त होती रही
है। इसी तरह पति को साँवरे कहकर बुलाने का चलन निकाला होगा।
उसका पति सूरज साँवला तो था पर कृष्ण वाली कोई चमक उसमें नहीं
थी। उलटे वह मनहूस था। काम से लौटता, दारू पीकर सो जाता।
पड़ोसी बताते थे कि नहान भी पीने में उसका साथ देती है। खैर हम
पड़ोसी महीने-महीने बाद सूरज का चेहरा देख पाते थे। उस निहायत
ही सादे मर्द में एक ख़ास बात थी। नहान के कोई बच्चा नहीं था,
फिर भी सूरज ने उसे कभी इसका ताना नहीं दिया, न दूसरी शादी की
बात चलाई। और तो और उसने कोई बच्चा भी गोद नहीं लिया।
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