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बहुत बार करवट बदलता रहा पर नींद आँखों से कोसों दूर थी। वह समझ नहीं पा रही था कि आज अचानक ऐसा क्या हो गया है कि उसका मन इतना उड़ा हुआ है। वह बीमार भी तो पिछले पंद्रह दिनों से है...कभी भी तो ऐसा नहीं हुआ। जहाँ तक अकेलेपन की बात है, तो वह पद्मा के साथ रहते हुए भी अकेला ही रहा है और अब तक तो वह अकेले रहने का आदी भी हो चुका है। पद्मा और वह! एक साथ दोनों! पर दोनों एक-दूसरे से कितने जुदा और अकेले! वह हौले से बड़बड़ाया और तनिक हँसा भी!

देर तक छत की ओर ताकते रहने के बाद ज़रा-सी आँख लगी तो उसने महसूस किया कि वह एक ऐसे वीराने में पहुँच गया है, जहाँ किसी के होने की आहट भी नहीं है। धीरे-धीरे उसके सामने एक औरत का चेहरा उभरता प्रतीत हुआ।...दो सजल चमकदार बड़ी-बड़ी आँखें, माथे पर हल्की-सी लकीरें और सिर की उलझी हुई लटें कुछ जाने-से लगे। इधर फिर खाँसी उठी और पीठ में कुछ जलन-सी महसूस हुई। वह दो-एक बार हौले से कराह उठा। थोड़ी देर के बाद उसने महसूस किया कि वह दोबारा उसी वीराने में हैं। इस बार उस औरत की धानी साड़ी का आँचल हवा में लहराया और देखते-देखते उसका चेहरा साफ़ झाँकने लगा। उसे काटो तो खून नहीं। वह चीखना चाहता था पर प्रयत्न करने के बाद भी वह ऐसा न कर सका। धीरे-धीरे उसकी चेतना वापस लौटी। उसने कई बार अपना सिर झटका और सो रहा।

अभी दो साल पहले की ही तो बात है, गाँव गया था वह। गाँव पहली बार उसे काटने दौड़ा था। वहाँ का कुछ भी रास नहीं आया उसे। लगा कि यहाँ रहना तो दूर की बात है अब आना भी कठिन है। आठ-दस साल किसी बड़े शहर में रहने के बाद गाँव भी क्या अच्छी लगने वाली चीज़ है! हो भी तो उसे क्या, उसे तो अब मैले-कुचैले कपड़े पहने लोग ही नहीं सुहाते। जिधर मुड़ो उधर धूल या कीचड़। जाड़े में ठंड से ठिठुरकर मरो और गर्मी में तपन से। बरसात में मच्छर सीधे टाँग ले जाएँ।

किसी से बात करो तो अक्ल जड़ हो जाए। बेवकूफ़, अपढ़, फूहड़ और फटेहाल गाँव वाले क्या बात करने लायक होते हैं? जन्म हुआ सो हो गया अपना यहाँ। कान थोड़े काटकर रखे हैं यहाँ कि इसी के लिए जिए या मरे कोई! बहुत हो गया माँ-बाप का प्रेम और भाई-बहन का स्नेह। उस मेहरी को वह क्या कहे जो एक बला की तरह बचपन में ही चिपट पड़ी। उसे वह एकदम पसंद नहीं... गँवार, ज़ाहिल और मतिमंद देहातिन को जीवन भर ढोने का क्या उसने ठेका ले रखा है? जब भी कोई ऐसी-वैसी बात होती है तो चीख-चीखकर ससुरी आसमान सिर पर उठा लेती है... ''हम कइसे रह बऽ... हमका मुआयदऽ तब दोसर करीह बिआह... अरे बाप, अरे दादाऽ।'' इस पर भी किसी अच्छे पढ़-लिख चुके नौकरीशुदा व्यक्ति को दुखी होने की बात है! रो-रोकर मर जाए ससुरी, अपनी बला से, हमको क्या आफत पड़ी है उसके रोने की! अब से एक पैसा भी घर के खाते में हमसे न मिलेगा। और हमको जीना है तो अपनी मर्ज़ी से जिएँगे, इसमें किसी की सलाह-सीख की हमको कोई ज़रूरत नहीं है। अबकी अंतिम बार ही आए हैं इस गाँव में, दोबारा कदम अब शायद ही पड़े!

बाबूजी ने हाथ जोड़कर बहुत मिन्नत की, ''बेटा, ऐसा न करो। घर बर्बाद हो जाएगा। इस बुढ़ापे में बहुत बुरे दिन आ जाएँगे। तुम्हारे भाई-बहन अभी अबोध हैं, उन्हें कौन राह पर लाएगा। इलाके भर में नाक कट जाएगी... कुछ तो सोचो...इन बूढ़ी आँखों में आँसू भरकर गिलगिलाना क्या बेटे को अच्छा लग सकता है! बेशक, कमाई तुम्हारी है, न दो। पर अपनी ब्याहता के साथ अन्याय न करो। उसकी सुनो, उस पर दया करो। ऊँच-नीच की बातें त्यागो, नहीं तो बहुत पछताओगे, बेटा।'' कहते-कहते फूट-फूटकर रो पड़े थे बाबू जी।

उसे याद है कि तब गाँव भर के लोगों ने जमा होकर तरह-तरह के ताने मारे थे व मन ही मन खुश होकर एक खुशहाल घर को उजड़ते देखकर मग्न थे। माँ ने उससे कुछ नहीं कहा, बस सिसक-सिसककर रोती रही थी। आँचल से बार-बार आँसू पोछने के कारण उसका एक कोना भीग चुका था। भाई-बहन यों ही उदास खामोश खड़े होकर उसकी ओर टुकुर-टुकुर ताक रहे थे और घर के भीतर उसकी पत्नी दहाड़ मारकर रोए जा रही थी। पर उसे इसका कोई पछतावा न था। इस बार वह आया ही इसलिए था कि आए दिन के झंझट से बरी हो जाए और आने के दूसरे ही दिन उसने अपने फ़ैसले से सबको अवगत करा दिया। किसी को कोई मलाल हो भी, उसे इसका कोई अफ़सोस न था। और घर को उसी हाल पर छोड़ वह शहर लौट आया था।

शहर लौटकर पद्मा से अपने प्रेम संबंध को उसने स्थायी आधार दिया था। तेज़-तर्रार, आधुनिक और मुँहफट पद्मा बहुत भाती रही थी पहले, पर कुछ महीनों से उसके व्यवहार में अचानक बदलाव आ गया था। अब वह बात-बात में चिढ़ जाती थी और सीधे मुँह जवाब न देकर लड़ने तो आतुर हो जाती है। बात-बात में कह उठती, ''जो ब्याहता का न हुआ वह हमारा क्या होगा, जब तक निभे, निभा लो या चुप रहा करो। मैं ऐसी-वैसी नहीं कि छोड़ दूँ इस तरह। ब्याह नहीं किया तो क्या, अधिकार थोड़े छोड़ रक्खा है?''

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