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यह शाम फिर मेरे क़रीब है।
सोचता हूँ कि इसे किसी तरह मनाऊँ
और कहूँ कि यह यहाँ से चला जाए और फिर कभी न आए। दुनिया की
तमाम घड़ियों में समा जाए और गुम हो जाए। फिर एक गुमनाम शाम का
आखिर वजूद ही क्या है? जब कभी मैं बाहर से हारा-थका आता हूँ तो
इसे यहीं पाता हूँ... यहीं अपने आस-पास और पूछता हूँ कि तुम
चुपचाप क्यों हो। वह ठिठक जाती है। उसकी ठिठकन देखकर मुझे
चिमकेन और तराज के रास्ते खड़े वे स्तूप याद आते हैं जो अपने
बीते दिनों के साक्षी हैं। उनकी आवाज़ वक्त के गुबार में कहीं
खो गई लगती है। अलमाटी से चिमकेन या तराज जाएँ तो ऐसे कई स्तूप
मिलते हैं- अपनी बाँहें फैलाए। ये स्तूप दूर से आपको बुलाते
हुए नज़र आते हैं। पास जाएँ तो कुछ कहने के प्रयास में ठिठके
नज़र आते हैं। बीते समय के साक्षी इन स्तूपों को देखकर वक्त के
छूटे पाँव के निशान पढ़े जा सकते हैं। इसी तरह कोई मकबरा, कोई पहाड़नुमा टीला या फिर ढलान से उतरती कोई पगडंडी, कोई गुमनाम
राह, ठूँठ हो चुका कोई बूढ़ा पेड़, जीर्ण-शीर्ण हो चुका कोई
भुतहा बंगला, कोई बाँझ नदी जिसका प्रवाह कभी था ही नहीं... ये
सब किसी गुम होती शाम के धुँधलके में समा जाते हैं।
जब मैं घर लौटता हूँ तो इन सब
स्मृति बिंबों को अपने आगोश में समेटे यह शाम फिर-फिर मेरे
करीब होती है और यादों का अनवरत सिलसिला शुरू हो जाता है। |