एक बीस बरस पुराना घर था। वहाँ
चालीस बरस पुरानी एक औरत थी। उसके चेहरे पर घर जितनी ही पुरानी
लकीरें थीं।
तब वह एक
खूबसूरत घर हुआ करता था। घर के कोनों में हरे-भरे पौधे और पीतल
के नक़्क़ाशीदार कलश थे। एक कोने की तिकोनी मेज़ पर ताज़े अखबार
और पत्रिकाएँ थीं। दूसरी ओर नटराज की कलात्मक मूर्ति थी।
कार्निस पर रखी हुई आधुनिक फ्रेमों में जड़ी विदेशी पृष्ठभूमि
में एक स्वस्थ - संतुष्ट दंपति के बीच एक खूबसूरत लड़की की
तस्वीर थी। उसके बगल में सफ़ेद रूई से बालों वाले झबरैले
कुत्ते के साथ एक गोल मटोल बच्चे की लैमिनेटेड तस्वीर थी। घर
के साहब और बच्चों की अनुपस्थिति में भी उनका जहाँ-तहाँ फैला
सामान साहब की बाकायदा उपस्थिति की कहानी कहता था।
उस फैलाव को समेटती और उस घर
को घर बनाती हुई यहाँ से वहाँ घूमती एक खूबसूरत औरत थी - आखिरी
उँगली पर डस्टर लपेटे, हर ओने कोने की धूल साफ़ करती हुई, हर
चीज़ को करीने से रखती हुई, लज़ीज़ खाने को धनिए की हरी-हरी कटी
हुई पत्तियों से सजाकर तरह-तरह के आकारों वाले खूबसूरत बर्तनों
में परोसती हुई और फिर रात को सबके चेहरे की तृप्त मुस्कान को
अपने चेहरे पर लिहाफ़ की तरह ओढ़कर सोती हुई। |