रोज़ कोई ना कोई शिकायत लिए
चली आती है।
''इसने मेरी खिड़की का काँच तोड़ दिया।''
''अरे डाक्टर ने कहा था कि काँच लगवाओ खिड़की में? प्लाई नहीं
लगवा सकती थी क्या?''
''मनोज बाबू ने मेरी नई साड़ी की ऐसी-तैसी कर डाली।''
''ये साड़ी-साड़ी क्या लगा रखा है? यह क्या तरीका बना रखा है कि
हर वक़्त अपना पेट दिखाती फिरो। शरीफ़ों का मोहल्ला है ये।
लटके-झटके दिखाने हैं तो कहीं और जा के मुँह काला करो अपना।
कोई ज़रूरी नहीं कि सामने वाले मनोज बाबू को...छुप-छुप के ताकती
फिरो खिड़की से हर दम। ज़्यादा ही आग लगी हुई है तो भाग क्यों
नहीं खड़ी होती उनके साथ? दफा हो जाओ सब के सब।''
मेरी बीवी का यही तरीक़ा है- अपनी नौटंकी दिखाओ और सबको चलता
करो।
"पर शर्मा जी खड़े रहे। टस से
मस ना हुए। बोले,
''मेरे चश्मे का हाल तो देखो। अभी-अभी ही तो नया बनवाया था, दो
दिन भी टिकने नहीं दिया इन कमबख़्तों ने। बस मारा गुब्बारा खींच
के झपाक और कर डाला काम-तमाम। टुकड़े-टुकड़े कर के रख दिया। अब
पैसे कौन भरेगा?" शर्मा जी गुस्से से बिफरते हुए बोले।
बीवी ने आवाज़ सुन ली थी शायद, लौट के चली आई तुरंत बोली,
"अब शर्मा जी... बुढ़ापे में काहे अपनी मिट्टी पलीद करवाते हो?
और मेरा मुँह खुलवाते हो। राम कटोरी बता रही थी कि चश्मा लगा
है आँखे खराब होने से और आँखे ख़राब हुई हैं दिन-रात कंप्यूटर
पे उलटी-पुलटी चीज़ें देखने से। इसीलिए तो काम छोड़ चली आई ना
आपके यहाँ से?"
शर्मा जी बेचारे सर झुकाए पानी-पानी हो लौट गए। शर्मा जी की
हालत देख मेरी मन ही मन हँसी छूट रही थी। अभी दो दिन बचे थे
होली में, लेकिन अपनी होली तो जैसे कब की शुरू हो चुकी थी। बस
छत पर चढ़े और लगे गुब्बारे पे गुब्बारा मारने हर आते-जाते
बंदे पर,
ले दनादन और...दे दनादन...
"पापा!... पापा!...सामने वालों की हिम्मत तो देखो। अपुन के
मुकाबले पर उतर आए हैं।" अपना चुन्नू बोल पड़ा।
"हूँ...अच्छा! तो पैसे का रौब दिखा रहे हैं साले! इम्पोर्टेड
पिचकारियाँ क्या उठा लाए सदर बाज़ार से, सोचते हैं कि पूरी
दिल्ली को भिगो डालेंगे? अरे बाप का राज समझ रखा है क्या? अपुन
अभी ज़िंदा है, मरा नहीं। क्या मजाल जो हमसे कोई बाज़ी मार ले
जाए। दाँत खट्टे ना कर दिए तो अपुन भी एक बाप की औलाद नहीं।"
यह सामने वाले के प्रति मेरे मन की ईर्ष्या थी या होली का
उन्माद मैं खुद भी नहीं समझ सका पर जोश सातवें आसमान पर था तो
हो गया मुकाबला शुरू।
कभी वो हम पे भारी पड़ते तो,
कभी हम उन पे। कभी वो बाज़ी मार ले जाते तो कभी हम, कभी हमारा
निशाना सही बैठता तो, कभी उनका। गली मानो तालाब बन चुकी थी
लेकिन...कोई पीछे हटने को तैयार नहीं था। कभी अपने चुन्नू को
गुब्बारा पड़ता तो कभी उनके पप्पू का। धीरे-धीरे वो हम पे भारी
पड़ने लगे। वजह?
"सुबह से कुछ खाया-पिया जो नहीं था, बीवी जो तिलमिलाई बैठी थी
और वो साले! बीच-बीच में ही चाय-नाश्ता करते हुए वार पे वार
किए चले जा रहे थे। बिना रुके उनका हमला जारी था। और इधर अपनी
श्रीमती नाराज़ क्या हुई चाय-नाश्ता तो छोड़ो हम तो पानी तक को
तरस गए।
हिम्मत टूटने लगी थी
कुछ-कुछ...थक चुके थे हम और इधर ये पेट के नामुराद चूहे साले!
नाक में दम किए हुए बैठे थे। भूख के मारे दम निकले जा रहा था।
बदन मानो हड़ताल किए बैठा था कि "माल बंद तो काम बंद"। ठीक कहा
है किसी बंदे ने कि मरे बिना जन्नत नसीब नहीं होती सो...मन
मार, खुद ही बनानी पड़ी चाय।
"ये देखो! सालों, हम खुद ही बनाना और पीना जानते हैं...मोहताज
नहीं हैं किसी औरत के। पहनती रहो चूड़ियाँ जिगर में दम नहीं पर
हम किसी से कम नहीं। तुम्हारी तरह नहीं है हम, हम में है दम।
तुम्हें क्या पता कि अपने हाथ की में क्या मज़ा है? बंदर क्या
जाने अदरक का स्वाद।
अभी पहली चुस्की ही भरी थी कि
फटाक से आवाज़ आई और सारे के सारे कप-प्लेट हवा में उड़ते नज़र
आए, चाय बिखर चुकी थी और कप-प्लेट मानों अपने आखिरी सफ़र के कूच
की तैयारी में जुटे थे। ऐसा लगा जैसे मानों, समय थम-सा गया हो।
वही था मरा गुब्बारा, पड़ोसी की मारा हुआ। एक बार फिर मात खा
गया मैं। खून का घूँट पी के रह गया। लेकिन एक मौका ज़रूर मिलेगा
और सारे हिसाब-किताब पूरे हो जाएँगे, यही सोच मै खुद को तसल्ली
देने लगा। सौ सुनार की सही लेकिन जब एक लोहार की एक पड़ेगी तो
सारी की सारी हेकड़ी खुद-ब-खुद बाहर निकल जाएगी। मैं चुपचाप
बाहर आकर बालकनी में बैठ गया।
"देखो...देखो...साला! कैसे
बाहर खड़ा-खड़ा...गोलगप्पे पे गोलगप्पा खाए चला जा रहा है,
अपना चुन्नू बोल पड़ा,
"निर्लज्ज कहीं का...ना तो सेहत की चिंता और ना ही किसी और चीज़
का फिक्र। पहले अपनी सेहत देख, फिर उस गरीब बेचारे गोलगप्पे की
सेहत देख...कोई मेल भी है?
कुछ तो रहम कर साला! चटोरा कहीं का। देख बेटा, देख, अभी मज़ा
चखाता हूँ। ले साले! ले और खा गोलगप्पे... खुद खाता है और हमें
चाय भी नहीं पीने देता? और मैंने निशाना साध खींच के फेंक मारा
गुब्बारा... ये गया....और....वो गया...
"फचाक्क".... आवाज़ आई और कुछ उछलता सा दिखाई दिया।
"मगर ये क्या? जो देखा, देख के विश्वास ही नहीं हुआ। पसीने छूट
गए मेरे। थर-थर काँपने लगा, हाथ-पाँव ने काम करना बंद कर दिया।
दिमाग जैसे सुन्न-सा हुए जा रहा था...
"पकड़ो साले को, "भागने ना पाए" जैसी आवाज़ों से मेरा माथा
ठनका। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ध्यान से आँखे मिचमिचाते हुए फिर
से देखा तो अपना पड़ोसी सही सलामत भला चंगा, पूरा का पूरा, जस
का तस खड़ा था और बगल में शंभू गोलगप्पे वाला सोंठ से सना
चेहरा और बदन लिए गालियों पे गालियाँ बके चला जा रहा था। उसका
नया कुर्ता झख सफ़ेद से चाकलेटी हो चुका था।
"दर असल हुआ क्या कि बस पता
नहीं कैसे एक छोटी-सी चूक से बहुत बड़ी गल्ती हो गई। ना जाने
कैसे निशानची का निशाना चूक गया, गुब्बारा सीधा दनदनाता हुआ
गोलगप्पे वाले के चटनी भरे डिब्बे में जा गिरा धड़ाम और बस हो
गया काम..."
"पापा!...भागो....सीधा ऊपर ही चला आ रहा है लट्ठ लिए।" चुन्नू
की मिमियाती आवाज़ सुनाई दी।
मैंने आव देखा ना ताव कूदता-फांदता जहाँ रास्ता मिला भाग लिया।
कुछ होश नहीं कि कहाँ-कहाँ से गुज़रता हुआ कहाँ का कहाँ जा
पहुँचा। हाय री मेरी फूटी किस्मत...
साला! इसी समय निशाना चूकना था? जैसे ही छुपता-छुपाता किसी के
घर में घुसा ही था कि वो लट्ठ बरसे बस... वो लट्ठ बरसे कि बस
पूछो मत कोई गिनती नहीं।
उफ़ कहाँ-कहाँ नहीं बजा लट्ठ? सालों! कोई जगह तो बख्श देते कम से
कम, सुजा के रख दिया पूरा का पूरा बदन। ऐसे खेली जाती है होली?
अरे रंग डालो और बेशक भंग डालो लेकिन ज़रा सलीके से, स्टाईल से,
नज़ाकत से, ये क्या कि आव देखा ना ताव और बस सीधे-सीधे भाँज
दिया लट्ठ? ठीक है माना कि रिवाज़ है आपका ये लेकिन पहले देखो
तो सही कि सामने कौन है? कैसा है? कहाँ का है? कुछ जान-वान भी
है कि नही? स्टैमिना तो देखो कि सह भी सकेगा या नहीँ? स्सालों!
खेलना है तो टैस्ट मैच खेलो... आराम से खेलो मज़े से, मज़े-मज़े
में खेलो। ये क्या कि सीधा ही टवैंटी-टवैंटी? ये बल्ला घुमाया
वो बल्ला घुमाया और कर डाली चौकों-छक्कों की बरसात। ठीक है
बाबा, माना कि इसमें जोश है जुनून है, एक्साईट्मैंट है,
दिवानापन है, खालिस एंटरटेनमैंट है लेकिन...
"वो भी दिन थे जब सामने वाले
को भी मौका दिया जाता था कि ले बेटा! हो जाएँ दो-दो हाथ। कमर
कस,तू भी कर ले तू भी हाथ-साफ़। ये क्या कि सामने वाले को न
सफ़ाई का मौका न दम लेने का, बरसा दो ताबड़-तोड़? इंसान है वो
भी, कुछ तो हक बनता है उसका भी। धोखा है ये तो सरासर धोखा।
सालों ने अपनी प्रैक्टिस-प्रैक्टिस के चक्कर में अपुन पर ही
हाथ साफ़ कर डाला"
"जानी! होली खेलने का शौक तो हम भी रखते है और खेल भी सकते हैं
होली लेकिन तुम छक्कों के साथ होली खेलना हमारी शान के खिलाफ़
है।" इस डायलॉग से खुद को समझाता, बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ा
जैसे ही बाहर निकला तो जैसे आसमान से गिरा और खजूर पे अटका।
बाहर लट्ठ लिए नत्थू गोलगप्पे वाला पहले से ही मौजूद था, मेरा
ही इंतज़ार था उसे। दौड़ फिरे शुरू हो चुकी थी मैं आगे-आगे और
वो पीछे-पीछे। ये तो शुक्र है उस कुत्ते का जिसे मैंने कुछ
ख़ास नहीं बस तीन या चार गुब्बारे ही मारे थे कुछ दिन पहले,
जिसे सफ़ेद से बैंगनी बना डाला था पल भर में, वही मिल गया
रास्ते में, मुझे देख ऐसे उछला जैसे बम्पर लाटरी लग गई हो,
पीछे पड़ गया मेरे। पैरों में जैसे पर लग गए हों मेरे। हाथ
कहाँ आने वाला था मैं ये गया और वो गया।
"नत्थू क्या उसका बाप भी नहीं
पकड़ पाया। हाँफते-हाँफते सीधे जीने के नीचे बनी कोठरी में
डेरा जमाया। और आखिर चारा भी क्या था? साला! नत्थू जो दस-बीस
को साथ लिए चक्कर पे चक्कर काटे जा रहा था बार-बार। ये तो बीवी
ने समझदारी से काम लिया और कोई ना कोई बात बना उन्हें चलता कर
दिया तो कहीं जा के जान में जान आई।
यह तो पिछले साल की वारदात थी इस साल मैंने जी पक्का कर लिया
कि कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार।
"कान खोल के सुन लो...कहे देती हूँ कसम से,'' बीवी भाषण पे
भाषण पिलाए चली जा रही थी।
"खबरदार! जो इस बार होली का नाम भी लिया ज़ुबान से, छोड़-छाड़
के चली जाऊँगी सब, फिर भुगतते रहना अपने आप पिछली बार का याद
है ना? या भूले बैठे हैं जनाब कि कितने डंडे पड़े थे? और
कहाँ-कहाँ पड़े थे? सिकाई तो मुझी को करनी पड़ी थी ना? तुम्हारा
क्या है? मज़े से चारपाई पे लेटे-लेटे कराह रहे थे चुप-चाप हाय!
मैं मर गया हाय! मैं मर गया हुँह! बड़े आए थे कि इस बार
पडोसियों के दाँत खट्टे करने हैं, मुँह की खिलानी है
वगैरह-वगैरह। थोथा चना बाजे घना आखिर! क्या उखाड़ डाला था
उनका? बित्ते भर का मुँह और ये लंबी चौडी ज़बान आखिर जग हँसाई
से मिला ही क्या? बीवी मेरा मज़ाक-सा उड़ाती हुई गुस्से से बोली।
"धरे के धरे रह गए तुम्हारे
सब अरमान कि मैं ये कर दूँगा और मैं वो कर दूँगा। अरे! जो करना
है सब ऊपरवाले ने करना है, हमारे तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं।"
वह बिना रुके बोलती ही चली जा रही थी,
"मैं भी तो यही समझा रहा हूँ भागवान, अब जा के कहीं घुसी
तुम्हारे दिमागे शरीफ़ में बात कि बाज़ी तो वो ही जीतेगा जो ऊपर
से निशाना साधेगा।" मेरा इतना कहना भर था कि बीवी का शांत होता
हुआ गुस्सा फिर से उबाल खाने लगा।
"हाँ! हाँ... पिछली बार तो जैसे तहखाने में बैठ के गुब्बारे
मारे जा रहे थे, "ऊपर से ही मारे जा रहे थे ना? "फिर भला कहाँ
चूक हो गई हमारे इस निशानची जसपाल राणा से? ना काम के ना काज
के बस दुश्मन अनाज के।", बीवी का बड़बड़ाना जारी था। "अरे! एक
निशाना क्या सही नहीं बैठा तुम तो बात का बतंगड़ बनाने पे उतारू
हो।"
"और नहीं तो क्या करूँ?"
"बे-इज़्ज़ती तो मेरी होती है ना मोहल्ले में कि बनने चले थे
तुर्रम खाँ और रह गए फिस्सडी के फिस्सडी। किस-किस का मुँह बंद
करती फिरूँ मैं? या फिर किस-किस की ज़बान पे ताला जडूँ? अरे!
कुछ करना ही है तो प्रक्टिस-शरैक्टिस ही कर लिया करो कभी-कभार
कि ऐन मौके पे कामयाबी हासिल हो। और कुछ नहीं तो! कम से कम
बच्चों के साथ गली में क्रिकेट या फिर कंचे ही खेल लिया करो।
निशाने की प्रैक्टिस की प्रक्टिस और लगे हाथ बच्चों को भी कोई
साथी मिल जाएगा।" बीवी मुझे समझाती हुई बोली। और कोई तो खेलने
को राज़ी ही नहीं है ना तुम्हारे इन नमूनों के साथ मैं भी भला
कब तक साडी उठाए-उठाए कंचे खेलती रहूँ गली-गली? पता नहीं क्या
खा के जना था इन लफूंडरों को मैंने।" उसका बड़बड़ाना रुक नहीं
रहा था।
"स्साले!...सभी तो पंगे लेते
रहते हैं मोहल्ले वालों से घड़ी-घड़ी। अब किस-किस को समझाती
फिरूँ? कि इनकी तो सारी की सारी पीढ़ियाँ ही ऐसी हैं, मैं क्या
करूँ? पता नही मैं कहाँ से इनके पल्ले पड़ गई? अच्छी भली तो
पसंद आ गई थी उस इलाहाबाद वाले को लेकिन! अब किस्मत को क्या
दोष दूँ? मति तो आखिर मेरी ही मारी गई थी न? इस बावले के चौखटे
में शशि कपूर जो दिखता था मुझे। अब मुझे क्या पता था कि ये भी
असली शशि कपूर के माफिक तोन्दूमल बन बैठेगा कुछ ही सालों में?
तोन्दूमल सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया और ज़ोर से चिल्लाता हुआ
बोला, "क्या बक-बक लगा रखी है सुबह से? चुप हो लिया करो कभी कम
से कम।" ये क्या कि एक बार शुरू हुई तो भाग ली सीधा सरपट
समझौता एक्सप्रेस की तरह पता है ना! अभी पिछले साल ही बम
फटा है उसमें? चुप हो जा एकदम से कहीं मेरे गुस्से का बम ही
ना फट पड़े तुझ पर।" मैं दाँत पीसता हुआ बोला।
"बम? कहते हुए बीवी खिलखिला के हँस दी।
"अरे! ऐसे फुस्स होते हुए बम तो बहुतेरे देखे हैं मैंने।''
"क्यों मिट्टी पलीद किए जा रही हो सुबह से?'' मैं उसकी तरफ़
धीमे से मिमियाता हुआ बोला,
"इस बार सुलह हो गई है अपनी पडोसियों से, अब उनसे कोई खतरा
नहीं।"
"और उस नास-पीटे! गोलगप्पे वाले क्या क्या जिसे सोंठ से सराबोर
कर डाला था पिछली बार?"
"अरे! वो नत्थू?"
"हाँ वही! वही नत्थू"...
"उसको? उसको तो कब का शीशे में उतार चुका हूँ।"
"कैसे?" बीवी उत्सुक चेहरा बना मेरी तरफ़ ताकती हुई बोली। "अरी
भलीमानस! बस.. यही कोई दो बोतल का खर्चा हुआ और बंदा अपने काबू
में।"
"अब ये दारू चीज़ ही ऐसी बनाई है ऊपरवाले ने।"
"हूँ, इसका मतलब इधर ढक्कन खुला बोतल का और उधर सारी की सारी
दुशमनी हो गई हवा।" बीवी बात समझती हुई बोली।
"और नहीं तो क्या?" मैं अपनी समझदारी पे खुश होता हुआ बोला।
"ध्यान रहे! इसी दारू की वजह से कई बार दोस्त भी दुश्मन बन
जाते हैं।" बीवी मेरी बात काटती हुई बोली।
"अरे! अपना नत्थू ऐसा नहीं है।" मैं उसे समझाता हुआ बोला।
"क्या बात? बड़ा प्यार उमड़ रहा है इस बार नत्थू पे?" बीवी कुछ
शंकित-सी होती हुई बोली।
"पिछली बार की भूल गए क्या, याद नहीं कि कितने लठैतों को
लिए-लिए तुम्हारे पीछे दौड़ रहा था। ये तो शुक्र मनाओ ऊपरवाले
का कि तुम जीने के नीचे बनी कोठरी में जा छुपे थे, सो! उसके
हत्थे नहीं चढे, वर्ना ये तो तुम भी अच्छी तरह जानते हो कि
क्या हाल होना था तुम्हारा, वो मुझे सावधान करती हुई बोली।
"अरी बेवकूफ़! बीती ताहि बिसार के आगे की सोच, इस बार ऐसा कुछ
नहीं होगा सारा मैटर पहले से ही सैटल हो चुका है।" मैं उसे
डाँटता हुआ बोला, और तो और... इस बार दावत का न्योता भी उसी की
तरफ़ से आया है।"
"अरे वाह! इसका मतलब कोई खर्चा नहीं?" बीवी आशान्वित हो खुश होती
हुई बोली।"
"जी! जी हाँ! कोई खर्चा नहीं" मैं धीमे-धीमे मुस्करा रहा था।
"यार! तुम तो बड़े ही छुपे रुस्तम निकले। काम भी बना डाला और
खर्चा दुअन्नी भी नहीं। हवा ही नहीं लगने दी कि कब तुमने रातों
रात बाज़ी खेल डाली, " बीवी मेरी तारीफ़ करती हुई बोली।
"बाज़ी खेल डाली नहीं! बल्कि जीत डाली कहो"
"हाँ-हाँ! वही..."
"आखिर हम जो चाहें, जो सोचें, वो कर के दिखा दें, हम वो हैं जो
दो और दो पाँच बना दें।"
"बस! दावत का नाम ज़ुबाँ पर आते ही मुँह में जो पानी आना शुरू
हुआ तो बस आता ही चला गया। आखिर! मुफ्त में जो माल पाड़ने का
मौका जो मिलने वाला था। अब ना दिन काटे कट रहा था और ना रात
बीते बीत रही थी। इंतज़ार था तो बस होली का कि कब आए होली और कब
दावत पाड़ने को मिले लेकिन अफसोस! हाय री मेरी फूटी किस्मत, दिल
के अरमान आँसुओं में बह गए।
"होली से दो दिन पहले ही खुद मुझे अपने गाँव ले जाने के लिए आ
गया था नत्थू कि खूब मौज करेंगे। मैं भी क्या करता? कैसे मना
करता उसे? कैसे कंट्रोल करता खुद पे? कैसे उभरने नहीं देता
अपने लुके-छिपे दबे अरमानों को? आखिर! मैं भी तो हाड़-माँस का
जीता-जागता इनसान ही था ना? मेरे भी कुछ सपने थे, मेरे भी कुछ
अरमान थे। पट्ठे ने! सपने भी तो एक से एक सतरंगी दिखाए थे कि
खूब होली खेलेंगे गाँव की गोरियों के संग और मुझे देखो! मैं
बावला... अपने काम-धंधे को अनदेखा कर चल पड़ा था बिना कुछ सोचे
समझे उसके साथ...
"आखिर में मैं लुटा-पिटा-सा चेहरा लिए भरे
मन से घर वापस
लौट रहा था, यही सोच में डूबा था कि घर वापस जाऊँ तो कैसे
जाऊँ? और किस मुँह से जाऊँ?" "बडी डींगे जो हाँकी थी कि मैं ये
कर दूँगा और मैं वो कर दूँगा। पिछली बार का बदला ना लिया तो!
मेरा भी नाम राजीव नहीं, कोई कसर बाकी नहीं रखूँगा।"
"अब क्या बताऊँगा और कैसे बताऊँगा बीवी को कि मैं तो बिना खेले
ही बाज़ी हार चुका हूँ, क्या करूँ? अब इस कमबख़्त मरी भांग का
सरूर ही कुछ ऐसा सर चढ़ कर बोला कि सब के सब पासे उलटे पड़ते
चले गए। कहाँ मैं स्कीम बनाए बैठा था कि मुफ़्त में माल तो
पाडूँगा ही और रंग से सराबोर कर डालूँगा सबको सो अलग! हालाँकि
बीवी ने मना किया था कि ज़्यादा नहीं चढ़ाना लेकिन अब इस कमबख्त
नादान दिल को समझाए कौन? अपुन को तो बस! मुफ़्त की मिले सही
फिर कौन कंबख्त देखता है कि कितनी पी और कितनी नहीं पी? पूरा
टैंकर हूँ! पूरा टैंकर, कितने लोटे गटकता चला गया, कुछ पता ही
ना चला। मदमस्त हो भांग का सरूर सर पे चढ़ता चला जा रहा था,
लेकिन! सब का सब इतनी जल्दी काफूर हो जाएगा ये सोचा ना था। पता
नहीं किस-किस से पिटवाया उस नत्थू के बच्चे ने। स्साले ने!
पिछली बार की कसर पूरी करनी थी, सो मीठा बन अपुन को ही पट्टू
पा गया था इस बार। उल्लू का पट्ठा! दावत के बहाने ले गया अपने
गाँव और कर डाली अपनी सारी हसरतें पूरी। शायद! पट्ठे ने सब कुछ
पहले से ही सेट कर के रखा हुआ था। वर्ना मैं? मैं भला किसी के
हत्थे चढ़ने वाला कहाँ था?
स्साले! वो आठ-आठ लाठियों से
लैस एक तरफ़ और दूसरी तरफ़ मैं निहत्था अकेला, बेवकूफ़! अनपढ़
कहीं के भला ऐसे भी कहीं खेली जाती है होली? अरे! खेलनी ही है
तो रंग से खेलो, गुलाल से खेलो, जम के खेलो और...ज़रा ढंग से
खेलो। कौन मना करता है और! करे भी क्योंकर? आखिर! त्योहार है
होली, पूरी धूमधाम से मनाओ।" ये क्या कि पहले तो किसी निहत्थे
को टुल्ली करो तबीयत से फिर उठाओ और पटक डालो सीधा बासी गोबर
से भरे हौद में? ऊपर से! बाहर निकलने का मौका देना तो दूर अपने
मोहल्ले की लड़कियों से डंडों की बरसात करवा दी सो अलग! हुँ...ह!
बड़ी आई लट्ठमार होली।"
"स्साले! अनपढ कहीं के, पता नहीं कब अकल आएगी इन बावलों को कि
मेहमान तो भगवान का ही दूसरा रूप होता है। उसके साथ ऐसा बरताव?
चुल्लू भर पानी में डूब मरो। खैर! अब पछताए होत क्या जब चिड़िया
चुग गई खेत वाली कहावत, आज पल्ले पड़ी मेरे। पहले ही समझ जाता
सब कुछ! तो ये नौबत ना आती। रह-रह कर बीवी के डायलाग रूपी
उपदेश याद आ रहे थे कि कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार।
अच्छा होता! जो उसकी बात मान लेता। कम से कम आज ये दिन तो नहीं
देखना पड़ता। खैर! कोई बात नहीं, कभी तो ऊँट पहाड़ के नीचे आएगा।
उस दिन कमबख़्त को मालूम पड़ेगा कि कौन कितने पानी में है। सेर
को सवा सेर कैसे मिलता है। इस बार नहीं तो अगली बार सही, दो का
नहीं तो चार का खर्चा ही सही, हाँ! कोई होली-वोली नहीं खेलनी
है इस बार...
"सच!...कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार।"
|