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'हाँ आ जाओ बाहर... कोई डर
नहीं है अब...चले गए हैं सब के सब।'
मैं कंपकंपाता हुआ आहिस्ता से जीने के नीचे बनी पुरानी कोठरी से
बाहर निकला। एक तो कम जगह
ऊपर से सीलन और बदबू भरा माहौल, रही-सही कसर इन कमबख़्त
मरे चूहों ने पूरी कर दी थी। जीना दूभर हो गया था मेरा। पूरे
दो दिन तक वहीं बंद रहा मैं। ना खाना,
ना पीना, ना ही कुछ और...
डर के मारे बुरा हाल था। सब
ज्यों का त्यों मेरी आँखों के सामने सीन-दर-सीन आता जा रहा था।
मानों किसी फ़िल्म का फ्लैशबैक चल रहा हो। बीवी बिना रुके
चिल्लाती चली जा रही थी...
'अजी सुनते हो? या आप भी बहरे हो चुके हो इन नालायकों की तरह?
सँभालो अपने लाडलों को, हर वक़्त मेरी जान पे बने रहते हैं। तंग
आ चुकी हूँ मैं...काबू में ही नहीं आते। हर वक़्त बस उछल कूद
और...बस उछल कूद और कुछ नहीं। ये नहीं कि टिक के बैठ जाएँ घड़ी
दो घड़ी आराम से... ना पढ़ाई की चिंता ना ही किसी और चीज़ का
फिक्र...हर वक़्त सिर्फ़ और सिर्फ़ शरारत...बस और कुछ नहीं। ऊपर
से ये मुआ होली का त्योहार क्या आने वाला है,
मेरी तो जान ही आफ़त में फँसा डाली है इन कमबख़्तों ने। दूसरे
हैं ये मोहल्ले वाले हरदम सिर पर सवार बच्चे तो बच्चे, बाप रे
बाप, जिसे देखो रंग से सराबोर है... कपड़े कौन धोएगा? तुम्हारा
बाप? भगवान बचाए ऐसे त्योहार से।
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