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इन एन.जी.ओ. वालों ने अपना संगठन बना कर, मोटी रकम देकर एक चोटी का वकील भाड़े पर ले लिया। कहते हैं कि चोटी के वकील में तो चोटी की ही अकल होती है। परन्तु भोले लोग यह नहीं जानते कि ऐसी अकल का और देशहित का तो कुत्ते बिल्ली वाला बैर होता है।

सुप्रीम कोर्ट में वन व पर्यावरण संबंधी कोई एक दर्जन केस पड़े थे। यह याचिका भी उनके साथ नत्थी हो गई। सब जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में हज़ारों अति महत्वपूर्ण केस रहते हैं और इस भीड़भाड़ में पर्यावरण वाला यह केस ऐसे ही पीछे धकेल दिया गया जैसे पापुलर फिल्म की खिड़की पर लगी लाईन से ताकतवर लोग कमजोर व्यक्ति को पीछे धकेल देते हैं। जब क्रिकेट प्रसारण का मामला हो, बेस्ट बेकरी की सुनवाई हो, ताज उत्सव का केस आ जाये, घूसखोरी की याचिका आ जाये तो भला पर्यावरण को कौन पूछे? इस ढील का लाभ उठा कर एन. जी. ओ वालों ने हर कॉटेज के गिर्द झाड़ी नुमा पौधे रोप दिये और बटुवे को थोड़ा हलका करके वन रक्षक से एक रिपोर्ट तैयार करवा ली, जिसमें कहा गया था कि इस क्षेत्र में पहले ही थोड़े पेड़ थे तथा कई वर्षों से भारी तूफ़ानों ने यहाँ के पर्यावरण पर कहर ढाया है जिसके कारण पुराने पेड़ लगभग पूरी तरह ख़त्म हो गए हैं।

कोई दो वर्षों के बाद याचिका बेंच के सामने लगी तब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका था। ग्रीन जज द्वारा सुनाए फ़ैसले रिवीजन में बदले जा चुके थे। दो जनहित याचिकाओं में याचिका डालने वालों पर भारी दण्ड भी लगाया जा चुका था। इसलिये यह याचिका, दायर करने वाले वकील के लिये गले की हड्डी बन गई। इसी वकील से सुझाव आया कि विशेषज्ञों की कमेटी बनाकर उसकी रिपोर्ट ले ली जाए। बेंच के एक जज ने अपने पड़ोस में रहने वाली एक ऐसी महिला का नाम सुझाया जिसने कभी अपने हाथों से एक लोटा पानी भी किसी पेड़ में डाल कर नहीं देखा था। दूसरे जज ने प्रांतीय वन महारक्षक का नाम देकर कमेटी बना दी और दो महीने के भीतर रिपोर्ट देने को कह दिया। पर्यावरणविद बनी महिला कमेटी की मीटिंग नैनीताल में मई के अन्त में रखना चाहती थीं जबकि नैनीताल में बैठा वन महारक्षक इस मीटिंग को अपनी छोटी साली की शादी के मौके पर दिल्ली में रखना चाहता था। इस कशमकश में दो महीने गुजर गए। समय बढ़ाने की प्रार्थना की गई। बात फिर पर्यावरण की थी- किसे फुरसत थी?

जुलाई के अन्त में कोर्ट ने चेतावनी देते हुए रिपोर्ट एक महीने में देने को कह दिया। उस समय पहाड़ों पर वर्षा का तांडव हो रहा था। कौन फिरे वर्षा में मारा-मारा? तय हुआ कि स्थानीय वन रक्षक से रिपोर्ट लेकर उसी को काट-छाँट कर रिपोर्ट बना ली जाये। देखा आपने? विशेषज्ञों की कार्य प्रणाली भी विशेष ही होती है। एन.जी.ओ. संगठन को जब यह सूचना मिली तो वे फूले नहीं समाए। वन रक्षक तो था ही उनका अपना आदमी। उसकी लड़की की शादी दशहरे पर होनी तय हो चुकी थी। एन. जी. ओ. संगठन ने एक चमचमाती सेंट्रो कार उसी पवित्र दिन पर भेंट कर दी। फिर भला रिपोर्ट एन. जी. ओ. के पक्ष में कैसे न आती? यह रिपोर्ट ऐसे ढंग से गढ़ी गई थी कि उसके सिर पैर का पता ही नहीं चलता था। वह शत-प्रतिशत चोर एन.जी.ओ की प्रशस्ति में लिखी गई थी। अन्त में यह भी लिखा था कि कुछ पर्यावरण प्रेमी अपने सुखों को तिलांजलि दे कर देश के पर्यावरण को तन मन धन से बचाने में लगे हैं।

एन.जी.ओ. संगठन ने पत्रकारों को भी खुश कर लिया था। वैसे भी पत्रकार तो इतने से ही प्रसन्न थे कि उन्होंने बड़े बड़ों की नींद हराम कर दी। "सारा जाता देखिये आधा लिये बटा", वाली युक्ति खेलते हुए, संपादक व उसके छोटे साले को दो कॉटेज साथ-साथ बना कर दोनों की चाबियां दीवाली पर भेंट कर दी गईँ। कुल मिला कर यह कि जंगल की क़ब्र पर हर इंसान के ठाठ बन रहे थे।

कोई आठ महीने बाद रिपोर्ट कोर्ट के सामने रखी गई। अब तक दो बार तो जज बदले जा चुके थे। हाथी अँगूठी से पार निकल गया। याचिका खर्च समेत खारिज हो गई। याचिका दायर करने वाला वकील हीरो से जीरो बन गया। वैसे हीरो तो उसे अखबार वालों ने ही बनाया था और ज़ीरो भी उन्हीं के कारण बन गया। इसलिये न तो कोई जीता और न ही कोई हारा। हाँ, इन अखबार वालों को संपादक की कॉटेज की छत से सारा दूर-दूर तक का क्षेत्र बिल्कुल हरा भरा नजर आता है। उनियाल व दूसरे एन जी ओ वाले पहले की ही भांति फलफूल रहे हैं। कुमाऊँनी विद्वान, बुद्धिजीवी तथा बड़े ओहदों पर बैठे अधिकारी मुझे क्या पड़ी वाला गुरुमंत्र धारण किये, मातृभूमि के प्रेम में ओत-प्रोत नजर आ रहे हैं।  परन्तु प्रकृति का यह भूस्वर्ग पर्यावरण पर मार का अभिशाप झेलने को पूर्णत: विवश होकर, भीतर ही भीतर देश की व्यवस्था को कोस रहा है। पेड़ अभी भी कट रहे हैं।
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1 जून 2007

 
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