|   कभी स्वपन में भी नहीं सोचा 
					था। कतई उम्मीद नहीं थी कि कभी ऐसा भी होगा। अभी–अभी पत्नी का 
					फ़ोन आया था–गाँव से तुम्हारे भाई तशरीफ़ लाए हैं। कोई ज़रूरी काम 
					बतलाते हैं। विश्वास नहीं हो रहा। हमारा संबंध टूटे तो दो वर्ष 
					से भी ज़्यादा हो चुके हैं। और इस दौरान आना–जाना तो एक तरफ़ 
					रहा, पत्र व्यवहार तक नहीं हुआ। 
 संबंध बने भी कैसे रहते? भैया ने कौन–सा मुझसे अच्छा सलूक किया 
					था। ऐसा तो कोई अपने दुश्मन से भी नहीं करता। मैं तो फिर भी 
					उनका छोटा भाई था। मैंने कौन–सा ऐसा गुनाह किया था जो मुझे घर 
					छोड़ने के लिए कहा गया। चाहता तो झगड़ा कर सकता था। कोर्ट में 
					अपील कर सकता था। क्या मैं आधी जायदाद का हकदार नहीं। लेकिन 
					बात का बतंगड़ बनाना उचित नहीं समझा था। घर की बदनामी होगी। लोग 
					तमाशा देखेंगे।
 
 दो–अढ़ाई साल की लंबी अवधि के बाद आज भैया क्या करने आए होंगें? 
					ख़ैर घर चल कर ही पता चल पाएगा। दिमाग़ पर यों बेवजह बोझ डालने 
					से क्या फ़ायदा। आधे दिन की छुट्टी लिखकर, घर की ओर चल पड़ा।
 
 जल्दी–जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। दरवाज़े को हल्का–सा खटखटाया। 
					पहली बार हाथ मारने से दरवाज़ा खुल गया। भिड़ा हुआ ही था। अंदर 
					से साँकल नहीं चढ़ी हुई थी।
 
 पत्नी रसोई घर में थी। सीधा वहीं चला गया। बाहर का दरवाज़ा 
					खुलते ही सामने रसोई घर ही आता है। मकान कुछ अजीब ढ़ंग का बना 
					हुआ है। रसोई घर में से भैया को ड्राइंग रूम में बैठे देख रहा 
					हूँ। वही पुराना पहरावा। सफ़ेद धोती कुर्ता। मगर कनपटियों पर 
					बाल पहले की अपेक्षा कहीं ज़्यादा सफ़ेद हो गए हैं। चेहरा भी 
					काफ़ी उतरा हुआ लगता है। गाल तो यों चेहरे में घँसे हुए हैं 
					जैसे किसी ने कच्ची गीली दीवार में घूसा मार दिया हो। माथे पर 
					बड़ी–बड़ी लंबी–लंबी और गहरी शिकनों से लगता है जैसे कोई बहुत ही 
					गंभीर बात सोच रहे हों। भैया को न जाने क्यों धोती कुर्ता ही 
					पसंद है। मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगा। कालेज के दिनों में 
					अक्सर उन्हें टोक दिया करता था, "क्या बड़े–बूढ़ों की तरह धोती 
					कुर्ता पहने रहते हो? पैंट नहीं तो कम से कम पजामा तो पहन लिया 
					करो।"
 
 मगर हर बार वही पहला–सा जवाब मिलता, "जब तुम नौकर हो जाओगे तो 
					सूट पहना करूँगा। हाँ, कहीं कुर्ते पजामे की बात न करने लग 
					जाना तब।" पल भर की हल्की–सी मुस्कराहट के बाद एकदम गंभीर हो 
					कर कहते, "फिलहाल तो तुम्हारी पढ़ाई का खर्चा ही निकलता रहे, 
					इतना ही काफ़ी है।"
 
 भैया के दाईं ओर सोफे पर ही एक मैला–सा थैला पड़ा लगता है। वही 
					पुराना थैला होगा, शायद। जगह–जगह पैबंद लगे हुए। क्या इतनी 
					छोटी–सी चीज़ भी नहीं बदल सकते भैया। थोड़ी झुंझलाहट होती है।
 
 रसोई घर में से मैं ड्राईंग रूम में आ जाता हूँ। भैया सिर 
					झुकाए न जाने किन विचारों में खोए हैं। मेरे वहाँ आने का आभास 
					उन्हें नहीं हुआ।
 
 क्या कह कर संबोधन करूँ? समझ नहीं आ रहा। भैया शब्द न जाने 
					क्यों गले में ही अटक रहा है। भाई क्या इतना निर्दयी होता है? 
					दिसंबर माह की जमा देने वाली सर्दी में घर से चले जाने को कहा 
					था। रात भर बिताना कठिन हो गया था। लगा था जैसे गाँव में नहीं 
					बर्फ़ीले पहाड़ों के ऐन बीच खो गया होऊँ। यह तो मन में पहले ही 
					आशंका थी कि भैया वंदना को स्वीकार नहीं करेंगे। मगर इतने कठोर 
					दिल होंगे और इतनी बेरहमी से पेश आएँगे, कभी भूल कर भी भेजे 
					में नहीं आया था।
 
 जान–बूझ कर थोड़ा–सा खाँसता हूँ। भैया एकदम गर्दन उठा कर देखते 
					हैं, "राजीव।"
 एकटक उनकी ओर देखता हूँ, कुछ क्षणों के लिए। हाथ उनके पाँव 
					छूने के लिए बढ़े, मगर न जाने क्यों झुक नहीं पाया। सिर्फ़ 'कैसे 
					हो भैया' कह कर हाथ जो थोड़े–से आगे बढ़ पाए थे, पीछे खींच लेता 
					हूँ। वे उठ खड़े होते हैं। प्यार से आहिस्ता–आहिस्ता मेरे सिर 
					पर हाथ फेरते हैं। उनकी आँखें भर आई लगती हैं। चश्मे के शीशे 
					कुछ धुँधले लगे। शायद मेरा भ्रम हो।
 
 "बहुत दुबले हो गए हो। कुछ खाते–पीते नहीं क्या?"
 भैया शायद अपने आप से ही कह रहे हैं– मुझे लगता है।
 "बैठिए।"
 वे सोफे के एक ओर बैठ जाते हैं। मैं भी उनके पास ही बैठ जाता 
					हूँ।
 "आने से पहले लिख दिया होता। स्टेशन से ले आता।" न जाने कैसे 
					कह गया यह सब। दरअसल पूछना तो चाहता था, मेरे घर का पता 
					तुम्हें किस से चला।
 जवाब में भैया कुछ नहीं कहते। फ़र्श पर नज़रें गड़ाए शायद कुछ सोच 
					रहे हैं।
 "कैसे आना हुआ?"
 'हूँ' वह चौकतें हैं। सचमुच ही कुछ सोच रहे थे। मैं दोबारा 
					नहीं पूछ पा रहा।
 रसोई घर से पत्नी इशारा करके बुलाती है। उठ कर वहाँ चला जाता 
					हूँ। पूछती है, "भैया के लिए क्या पकाया जाए। अपने लिए तो मीट 
					बनाया है।"
 "मीट तो क्या, भैया तो अंडा भी नहीं खाते। कट्टर शाकाहारी 
					हैं।"
 "अजीब मुसीबत है। अब कौन दूसरी भाजी तैयार करे। महँगाई का 
					ज़माना है। रूखी–सूखी खाने को मिलती नहीं, दो–दो भाजियाँ कौन 
					बनाएँ?"
 "ख़ैर बाद में तय कर लेंगे। पहले चाय तो भेजो।"
 "चाय की क्या ज़रूरत थी। तुम जानते तो हो मैं चाय नहीं पीता।"
 'मुझे तो जैसे और कोई काम नहीं। बस यही याद रखता फिरूँ कोई 
					क्या खाता है, पीता है।' यह सब मन ही मन कह कर बस इतना ही कह 
					पाया– "एक कप ले लीजिएगा। क्या फ़र्क पड़ता है।"
 वे कुछ नहीं बोले। चुपचाप चुस्कियाँ भरने लगे।
 "कब आए?"
 "सुबह ग्यारह की गाड़ी से। घर ढूँढते–ढूँढते ही एक ड़ेढ़ घंटा लग 
					गया।"
 "सुबह ग्यारह की गाड़ी?" मन ही मन सोचता हूँ। अढ़ाई बजने को हैं। 
					शायद अभी तक खाना भी न खाया हो।
 "भूख लगी होगी। थोड़ा नाश्ता मँगवाऊँ?"
 "नहीं कोई आवश्यकता नहीं। मेरे पास है।" और अपने पास पड़े थैले 
					से कपड़े की एक पोटली निकाल कर खोलने लगे। दो रोटियों के बीच 
					थोड़ा–सा अचार और एक छोटा सा प्याज़ था।
 "हमें तो यही हज़म होता है। शहर की मसालेदार चीज़ें . . ." 
					कहते–कहते अचानक रुक जाते हैं। शायद गले में ग्रास अटक गया है। 
					जल्दी से चाय का एक घूँट भरते हैं। घूँट अंदर निगलने से 'गटक' 
					की आवाज़ होती है। एक लंबा–सा साँस खींचकर छोड़ते हुए मेरी ओर 
					देखते हैं।
 "कैसे आना हुआ?" न जाने क्यों मुझे उनकी यहाँ आने की वजह जानने 
					की इतनी बेचैनी है। शायद इसलिए कि अब उनका हमारे यहाँ आना 
					अविश्वसनीय लगता है।
 "वो दरअसल बात यों है . . ." वे उठ खड़े होते हैं। मैं भी खड़ा 
					हो जाता हूँ। वे मेरे कंधे पर हाथ रख कर एक ओर ले जाते हैं। एक 
					कंरट सा लगता है। शरीर में कंपकंपी दौड़ने लगी। भैया ने इसी तरह 
					कंधे पर हाथ रख कर एक ओर ले जाकर कहा था, "तुम ने अच्छा नहीं 
					किया राजीव। खानदान की नाक कटवा दी। न जाने किस जाति की है। 
					कुछ तो सोचा होता।"
 
 मैं तब चुपचाप सुनता रहा था।
 कुछ क्षण बाद निश्वास छोड़ कर उन्होंने कहा था, "बेहतर यही होगा 
					तुम इसी वक्त यहाँ से चले जाओ। समझ लो आज के बाद हमारा 
					तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं। कुछ तो सोचा होता। बच्चे जवान हो 
					रहे हैं। उन पर क्या असर पड़ेगा।"
 न जाने भैया ने किस लहजे में कहा था। मगर वंदना के सामने मेरे 
					पौरुष को चुनौती थी, ललकार थी। जिनकी बेटी है उन्होंने तो कुछ 
					कहा नहीं, इनकी यों हीं नाक कटी जा रही है। इडीयट। एक भी पल और 
					वहाँ न ठहरा और वंदना को साथ लिए तुरंत लौट पड़ा।
 
 रात भर गाड़ी में सफ़र करते समय सर्दी से घिग्गी बँध गई थी। 
					रास्ते भर पत्नी के उलाहने, "तुम तो कहते थे मेरे भैया देवता 
					हैं, पितृतुल्य हैं। क्या यही वास्तविक रूप है उनका? क्या यही 
					सबूत है उनकी उदारता का?" मारे गुस्से के दिमाग़ की नाड़ी फटी जा 
					रही थी। मगर स्वयं पर कंट्रोल करता रहा। मेरे थोड़ा–सा कुछ कहने 
					पर बात का बतंगड़ बन जाना स्वाभाविक था। कई दिनों तक उससे आँख 
					मिलाने का साहस नहीं बटोर पाया था।
 यह तो मैरा सौभाग्य था कि वंदना के पिताजी के एक मित्र किसी 
					फ़र्म में जनरल मैनेजर निकले और मुझे शिफ्ट इंजीनियर की जगह मिल 
					गई। जल्दी ही सब कुछ सैटल हो गया वरना कहाँ लिए फिरता उसे अपने 
					साथ। भैया की महानता और उदारता के जो महल मैंने उसके सामने खड़े 
					किए थे वे तो पल भर में ही ध्वस्त हो गए थे।
 "अरुणा के लिए लड़का देखा है। तुम से मश्वरा . . ."
 
 "हूँ तो अब आए वास्तविक बात पर। लड़का देखा है तो देखते रहें। 
					मुझे क्या। मुझे काहे को बतलाने आए हैं। जो मन में आए करें। 
					मैं कौन होता हूँ सलाह मशवरा देने वाला। घर में मेरे रहने से 
					तो बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा। न जाने क्या कुछ मस्तिष्क में 
					रेंगने लगा है, ऐसा ही।
 
 उँगली से बालों में खुजली करते हुए भैया बतलाते हैं, "घर–बार 
					अच्छा है। बाप की पंसारी की दुकान है। तीन बेटे हैं। दो तो बाप 
					के साथ ही दुकान पर काम करते हैं और तीसरा, जिसे अरुणा के लिए 
					देखा है इसी शहर में कपडे की मिल में नौकर है।"
 
 'खुशी की बात है। अच्छा घर–बार मिल गया। लड़का नौकरी करता है। 
					घर–बार समृद्ध है।आजकल दोनों चीजें एक साथ मिलना तो मायने रखती 
					हैं। यह सब तो अच्छे कर्मों का फल है।' मगर इतना कुछ कहना चाह 
					कर भी कुछ नहीं कह पाया। मूक उस श्रोता की तरह सुनता रहा जिसे 
					उस विषय में कोई दिलचस्पी न हो और मजबूरन उसे सुनना पड़ रहा हो।
 
 एकटक कुछ देर मेरी ओर देखने के बाद भैया पर्दा और उठाते हैं, 
					"लड़के वाले चाहते हैं शादी इसी माह कर दी जाए। वे ज़्यादा दिन 
					इंतज़ार नहीं करना चाहते। मगर इतनी जल्दी पैसों का बंदोबस्त 
					कैसे कर पाऊँगा? कुछ समझ में नहीं . . ." कहते–कहते रुक जाते 
					हैं। दरवाज़े की ओर देखने लगते हैं। वंदना खड़ी है। वे नज़रें 
					झुकाए दोबारा सोफे पर आ बैठते हैं। शायद उन्हें वंदना का आना 
					अच्छा न लगा हो। शायद बिना पर्दे के। वंदना ने तो दुपट्टा भी 
					नहीं ओढ़ रखा। वैसे भैया एकदम पुराने विचारों के हैं। आधुनिक 
					युग के अनुसार थोड़ा–सा भी स्वयं को नहीं बदले हैं। एक बार शहर 
					में किसी की शादी में गए थे। कई दिन तक घर आकर बोलते रहे थे, 
					"कैसे निर्लल्ज लोग हैं। ससुर से भी पर्दा नहीं, औरों की तो 
					बात ही क्या करनी। मान मर्यादा तो इन लोगों ने जैसे बेच खाई 
					है। हमारी बहू ने ऐसा किया तो उसी दिन बोल देंगे या तो हमें 
					छोड़ दो या फिर यह नया फ़ैशन।"
 
 "कहीं से दो चार हज़ार का बंदोबस्त हो जाए . . ." आखिर भैया के 
					कंठ से वास्ताविक बात फूट ही पड़ती है। उनका आशय मैं समझता हूँ।
 
 "क्यों नहीं, दो चार हज़ार तो कुछ भी नहीं, जितना चाहो ले लो।" 
					वंदना के इन शब्दों ने जैसे उनके लिए कुबेर के खज़ाने का दरवाज़ा 
					खोल दिया हो। चेहरे पर एक अजीब–सा रंग फैल गया लगता है।
 "हाँ, दो–चार हज़ार तो कुछ भी नहीं। बैंक वाले तो कई–कई हज़ार 
					लोन पर दे देते हैं।"
 ख़तरे का साइरन बजते ही लड़ाई के दिनों में जैसे एकदम लाइटें गुल 
					कर दी जाती हैं और घुप्प अँधेरा छा जाता है, वंदना के इन 
					शब्दों ने भी शायद ऐसा ही किया है। भैया के चेहरे पर दोबारा आए 
					परिवर्तन को देखने का साहस मुझ में नहीं। मैं नज़रें झुका लेता 
					हूँ।
 कुछ पल की खामोशी के बाद भैया फुसफसाते हैं, आवाज़ भर्राई हुई 
					लगी, "हाँ, इसी सिलसिले में शहर आया था। थोड़ी फुर्सत मिली सोचा 
					तुम लोगों से भी मिलता चलूँ।"
 अपना थैला उठा कर खड़े हो जाते हें। जेब में से पाँच का नोट 
					निकाल कर वंदना की ओर बढाते हैं, "तुम्हारे शगुन के हैं।"
 मुझे लगता है अभी विस्फोट होगा। वंदना नोट पटक कर फट पड़ेगी, 
					"सम्हाल कर रखिएगा इन्हें अपने पास। हमें नहीं ज़रूरत तुम्हारे 
					पैसों की . . ." मगर 'इतनी क्या जल्दी है कल चले जाना' कह कर 
					वह नोट पकड़ लेती है।
 "शादी ब्याह की बात है। ढ़ेरों काम पड़े हैं करने को . . .तुम 
					लोग ज़रूर आना।"
 भैया चलने लगे हैं। मैं निवेदन करता हूँ, "थैला मुझे पकड़ा दो, 
					स्टेशन तक छोड़ आता हूँ।"
 "अरे नहीं तुम आराम करो। थके टूटे आए होंगे। दफ़्तरों में कौन 
					सा कम काम रहता है। और यह शहर मेरे लिए नया थोड़े ही है। फिर 
					अरुणा की शादी के बाद तो अब अक्सर यहाँ आना ही पड़ा करेगा।"
 
 
  भैया 
					यों गर्दन झुकाए सीढ़ियाँ उतर रहे हैं जैसे सर पर बहुत भारी बोझ 
					उठाए हुए हो। दरवाज़े में खड़ा मैं उन्हें जाते हुए देख रहा हूँ। 
					सीढ़ियाँ उतर कर वे सामने वाले फुटपाथ पर चलने लगे हैं। निरंतर 
					आँखों से ओझल हुए जा रहे हैं। मन में आता है भाग कर उनसे जा 
					लिपटूँ। उन्हें वापस ले आऊँ। ज़ोर से चीख कर कहूँ, 'आप क्यों 
					चिंता करते हैं। दो–चार हज़ार तो कुछ भी नहीं। इतना तो मैं अभी 
					दे सकता हूँ। आपका मुझ पर हक है। यह सब आप की बदौलत तो है।' 
					मगर कदम आगे बढ़ा पाने से पहले ही वंदना मेरा हाथ पकड़ लेती है 
					और मैं यंत्रवत उसके साथ कमरे में जाने लगा हूँ। |