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मुझे लगा कि जंग बहादुर की परेशानी साधारण नहीं है, दूसरी तरफ़ यह भी लगा- उसे वास्तविकता से दूर किसी गलतफ़हमी का शिकार होना पड़ रहा है, उसे धीरज दिलाने के उद्देश्य से मैंने उससे कहा, "तुमसे कहा न -ऐसा ऊलजलूल सोचकर उदास न बैठो, जो सोचते हो उसे कह डालो- दिल में जो बात हो उसे निकाल लो, यही न कि सुनने वाले को अच्छा न लगे तो बुरा भी नहीं लगेगा, बल्कि मुझ जैसे को अच्छा लगता है, तुम्हारे विचारों को जानकर, देखो मेरी तरफ़, क्या मैं तुम्हारी बात सुनकर दु:खी हूँ-परेशान हूँ।"
उसके चेहरे पर खुशी की लहर-सी दौड़ गई, शायद उसे लगा हो-कोई न कोई है जो उसकी पीड़ा को समझता है, किंतु वह कुछ बोला नहीं, काफ़ी देर तक हवाघर की बैंच पर हम दोनों अपरिचित-से बैठे रहे- हिमाच्छादित चोटियों को देखते रहे- गोया वर्षों की जमी पीड़ा को बढ़ती तपिश में पिघलाने का उपक्रम कर रहे हों, आकाश में चंचल बादलों के बच्चों का खेल जारी था, वे अब भिन्न-भिन्न तरह के चित्र बना रहे थे, मैंने मौन तोड़ते हुए कहा - "जंग बहादुर देख रहे हो, आकाश में खेलते बच्चे एकदम झक सफ़ेद चूजे से सुंदर लग रहे हैं।"
"जी ठीक नहीं साब, अब हमको कुछ न कहो।"
"क्यों? अब क्या हुआ।"
"क्या इन बादलों के अच्छा लगने से मन ठीक होगा, मेरा पेट भर जाएगा, जंग बहादुर का बच्चा इससे कम सुंदर है क्या? जंग बहादुर की सैणी इनसे कम सुंदर है क्या? तुम लोगों का है ये सब हमारा तो डोटी अच्छा है, वहाँ भी ऐसा ही सूरज, ऐसा ही बादल और ऐसा ही जून दीदी और इससे अच्छी जूनाली रात।"

जंग बहादुर के कहने के अंदाज़ को मैं भली-भांति समझने लगा, मन ठीक नहीं तो दुनिया की हर चीज़ बेमानी हो जाती है, यह मन ही है जो हमेशा रस्सी की तरह बट जाता है और छोटी-सी बात पर टूट-टूट कर तार-तार हो जाता है, यही मन है जो शांति के फाखते उड़ाता है और यही व्यक्ति के स्वरूप में विद्रुप जगाता है। अच्छा ख़ासा शांत चित लग रहा था जंग बहादुर- मैंने उसके मन को कुरेदकर अच्छा नहीं किया। फिर भी उसे धैर्य दिलाने के लिए कहा, "अपना घर अपना ही होता है, अपना बच्चा अपनी सैणी सबसे सुंदर होते हैं- ओ बातों में समय का पता ही नहीं रहा।"
मैं उठने लगा।
जंग बहादुर मुझे उठता हुआ देख, बोला, "अब सौदा करेगा साब।"
"हाँ, थोड़ा खील बतासे बस-।" मैंने सहजभाव में कहा।
"खिलौने भी लेगा साब।" उसने झटके से पूछा।
"खिलौने, अब बच्चे खिलौनों से खेलने की उम्र के कहा रहे- बच्चे बड़े हो गए हैं।" मैंने स्पष्ट किया।
"उम्र बढ़ने के साथ खेल भी बदल जाता हैं- खिलौने भी। परंतु उम्र के बढ़ने के साथ खेल खेलना बंद तो नहीं हो जाता, बड़ा लोगों का बड़ा खेल और छोटे लोगों का छोटा खेल, खेल तो खेल है जो जीवन के साथ चलता रहता है।" उसने कहा।

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, यह कौन कह गया। जंग बहादुर तो ऐसा नहीं कह सकता, किंतु डोटी न जा सकने की कुंठा से जोड़ते हुए मैंने सोचा -उसका डोटी नहीं जा सकने के पीछे भी तो जीवन का खेल था, जिसको सत्ता के गलियारों में खेला गया है। जिसमें हार जंग बहादुर की हुई है -"कभी-कभी ऐसा भी होता है जंग बहादुर खेल कोई और खेलता है, और हार किसी और की होती है, हम सब की होती है, हम सभी की होती है।"
"साब जी ठीक कहा तुमने," जंग बहादुर ने कहा, "सब किस्मत का ही खेल होता है साब, उसी का रंग होता है," ऐसा कहकर जंग बहादुर ने जैसे अपने अधूरे छूटे पाठ को पूरा करने का प्रयास किया। वही लय, वही शब्द मेरे लिए ज़रूरी हो गया कि अब उसकी बात को सुन लूँ, उससे उस अधूरे छूटे पाठ को पूरा करवा लूँ, मैंने कहा, "तुम खिलौनों की बात कह रहे थे जंग बहादुर।"
"तुम बड़ा लोग हमारी छोटी बात को कितना ध्यान से सुनता है साब।" कहते उसके चेहरे पर खुशी दौड़ गई। उसने बिना किसी लाग लपेट के आगे बात बढ़ाई, "बार बग्वाल है न साब, सैणी हर बार खिलौनी मँगवाती है-साबुत खिलौना-हाथी, घोड़ा, हिरण, खरगोश, एक बार तो-।"
मैंने उत्सुकता से उसको टोकते हुए कहा, "किसलिए।"
"पूजा को, पूरा बार -बग्वाल मनाती है सैणी, बड़ा मज़ा आता है साब-एक बार की बात बताऊँ साब।"
"हाँ बताओ," मैंने उत्सुकता से कहा।
"अपना रामबहादुर है न साब, उसने सभी खिलौना तोड़ दिया, अपशकुन हो गया, सैणी ने बहुत-बहुत पीटा, हमने कहा बच्चा है- बच्चा लोग ऐसा ही करता है, वह जानता तो ऐसा कभी नहीं करता, तब से हमने सोच लिया कि सैणी का खिलौना अलग और रामबहादुर का अलग से ले जाएगा।"
"तो फिर ले जाते हो।"
"एक बग्वाल पर ले गया, अपना राम बहादुर एक ही बार में वह खरगोश खा गया," कहते-कहते जंग बहादुर खिलखिला पड़ा, मुझे अच्छा लगा कि वह अपनी सोच की पीड़ा से उबर रहा है, वह बात आगे बढ़ाते हुए बोला-"फिर बोला मैं तो हाथी खाऊँगा।"
"तो फिर-।"
मैंने कहा- ''रामबहादुर खरगोश खाने के लिए लाया था-वह दे दिया, अब हाथी कहाँ से लाएगा।"
"ईजा से लेकर दे दो न?" उसने कहा।
"वह पूजा का है, हाथी को खाते थोड़ा हैं, उसका तो सवारी करता है आदमी, ऐसा रामबहादुर को बहलाने के लिए कहा।"
"तो फिर-।"
"तब तो मैं हाथी में जाऊँगा," कहकर उसने ज़ि पकड़ ली, हमने समझाया-रामबहादुर हाथी में राजा लोग बैठता है, हम तो साधारण लोग हैं, साब एक बात कहूँ मैं - राम बहादुर को हाथी की सवारी कैसे करवाता और हमारे मुलुक में हाथी आता कहाँ से, घोड़ा तक तो जाता नहीं वहाँ, खच्चर होता है-उसी को घोड़ा मानता है लोग।"
कहते-कहते जंग बहादुर अटक गया, मैंने फिर पूछा, "तो फिर क्या हुआ जंग बहादुर-रुक क्यों गए?"
"साब क्या बताऊँ, मेरा तो मन ही डर गया, सोचा कि अब यह घोड़ा सवारी की हठ करेगा, तो उससे पहले कह दिया-घोड़ा सवारी तूने किया था न उस दिन, आ, अब हाथी की सवारी करवा देता हूँ।"
"अच्छा।" यकायक मेरे मुँह से निकल गया, वह मुझे आश्चर्य की गर्त में डूबने से बचाने में सफल रहा-मेरा कुछ कहने से पहले वह बैंच से उठा और ज़मीन पर बैठ गया, फिर धीरे से बोला, "साब ऐसा ही होता है न हाथी।"
जंग बहादुर घुटनों के बल बैठा, फिर कुहनियाँ टिकाईं और फिर हाथी की मुद्रा में बैठ गया, फिर धीरे से बुदबुदाया-राम बहादुर, आ हाथी में बैठ।" एक पल की चुप्पी के बाद अपनी बात को जोड़ते हुए बोला, "बड़ा मज़ा आएगा रामबहादुर, ठीक से बैठ गया न।"

सचमुच का दृश्य मेरी आँखों में उतर आया हाथी बन गया जंग बहादुर पीठ पर सवार उसका बेटा राम बहादुर फिर वह उसी मुद्रा में चार कदम चला और फिर लौट कर आ गया। सवार उतरा। जंग बहादुर लौट आया यथास्थिति में। उठा और बैंच पर बैठ गया।
जंग बहादुर ने अपनी कुहनियाँ झाड़ी, हथेलियाँ और कपड़े झाडे और बड़ी देर तक वह शरीर के कपड़ों पर लगी धूल झाड़ता रहा।
"तुम्हें कुहनियों में चोट तो नहीं आई जंग बहादुर।"
"मैं रामबहादुर के लिए कुछ भी कर सकता हूँ। पिछले तीन-चार वर्षों से बग्वाली के दिन या फिर दूसरा दिन पहुँचा था साब डोटी, बाज़ार से खिलौना ख़रीद नहीं सका, रामबहादुर हाथी माँगता-मैं हर साल ऐसा ही हाथी बन जाता, वह बहुत खुश होता।"
"हाथी की सवारी किसे बुरी लगती है जंग बहादुर," मैंने कहना चाहा, होठों से फिसलती हँसी को रोक नहीं सका, मुझे लगा जंग बहादुर बिफर गया तो अभी हाथी बनकर मुझे कुचल देगा, वह आक्रोश में था परंतु एक तरह से संतुष्टि के भाव इस समय चेहरे पर दिख रहे थे, मैंने जब उसकी आँखों में झाँका और कहना चाहा- "सचमुच बहुत प्यार करते हो बेटे से।"
जंग बहादुर बहुत खुश हुआ वह मुस्कराते हुए बोला-"जी साब, इस बार तो उसे शेर की सवारी करवाने को कहा था।"
"शेर की सवारी, वह कैसे? शेर खा नहीं जाएगा!" मैंने उससे चुहल करते हुए कहा।
"खिलौना में शेर भी होता है, उसी का सवारी ।" उसने गंभीर होकर कहा।
"इस बार यहीं से ख़रीद ले जाते। यहाँ भी तो त्यौहार में ये सब चीज़ें मिल जाती हैं," मैंने सुझाव दिया।
"ख़रीद लिया था-पूरा बार बग्वाल के लिए, क्या मालूम था कि वह खिलौने वाला शेर सचमुच का शेर बन जाएगा, ज्योंही अपनी बार्डर पर पहुँचा - सभी बड़ा-बड़ा शेर बंदूक लेकर मेरे सामने खड़ा हो गया, सबने मेरी तरफ़ देखा-मैं डर गया, बोला - "तुम्हारा नाम-जंग बहादुर, बाप का नाम-तोप बहादुर, दादा का नाम।"
"दादा का नाम-।" मैंने उसे स्मरण दिलाने के लिए पूछा वह सचमुच दादा का नाम भूल गया था। बड़ी कोशिश की याद करने की, एक अजीब किस्म का भयावह दृश्य उसकी आँखों में तिर गया।
मैंने पुन: याद दिलाने के लिए कहा- "हाँ, याद करो दादा का नाम, अभी-अभी थोड़ी देर पहले तुमने बताया था, याद करो?

जंग बहादुर ने अपनी स्मृति पर ज़ोर डाला उसे कुछ भी याद नहीं आया, उसके अश्रुपूरित गालों को देखकर लगा- अभी बहुत कुछ है उसके चेहरे पर पढ़ने को- मैं जितना ग़ौर से उसको देखता रहा उतना ही अधिक कुछ छूट जाने का अहसास होता गया। सचमुच कहीं कुछ छूट गया है, मैंने उससे कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ उसकी ओर देखता रहा।
वह उठा और हवाघर की उतराई उतरने लगा।

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16 अक्तूबर 2006

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