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पूरा घर भांय-भांय कर रहा था। कमरे में नारायणदत्त
अकेले थे। उनके सामने गहनों का डिब्बा खुला पड़ा था, गहने इधर-उधर बिखरे पड़े थे।
सामने से गायत्री उनकी ओर चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई।
नारायणदत्त को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। पर वही थी, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती
हुई। उन्होंने बाँयी ओर देखा, बाँयी ओर से गायत्री चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई,
धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई।
''मुस्कुरा क्यों रही हो? बोलो।'' वो पूछना चाहते थे मगर उनके गले से आवाज़ नहीं
निकली। वह मुस्कुराती हुई उनकी ओर बढ़ती रही। नारायणदत्त ने दायीं ओर देखा, वह उधर
से चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई। नारायणदत्त ने पीछे
मुड़कर देखा वह चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई।
नारायणदत्त चीखना चाहते थे, चिल्लाना चाहते थे। वे चीखे-चिल्लाए भी पर उनके गले से
कोई शब्द न निकला, निकला तो बस गों-गों का दबा-घुटा स्वर। अलमारी, सीढ़ी, कमरे की
हर दीवार, हर कोने से गायत्री चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई, धीरे-धीरे उनकी ओर
बढ़ती हुई।
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