सारी खुशियाँ तो मिली थी पर तब अंदर से दुख का
सागर क्यों उमड़ा आता था। अवसाद और अपराध बोध की एक रेखा हर सुख के पीछे से झाँकती
नज़र आ जाती। आँसुओ में डूबा एक मासूम चेहरा क्यों उसका बार-बार पीछा करता था। जो
बीत गया उसे लेकर अपना वर्तमान विभु क्यों ख़राब करे। वह हर ओर से मन को समझाता है
पर मुक्ति नहीं मिलती है। कैरी सब समझती है। पर इस अपराध-बोध के बोझ से विभु को
कैसे मुक्त कराए। उसकी उँगलियाँ विभु की हथेली को सहलाती रहती है। पूरा रास्ता ऐसे
ही बीत जाता है।
ऐशली का घर आ गया है। खूबसूरत दो तले के प्यारे
बंगलों की कतार। सामने हरा लॉन। पेड़ो से घिरे रास्ते। काफ़ी सारे मेहमान आ गए थे।
अंदर रोशनी थी, संगीत था, शोर था। लीज़ा हाथ पकड़ कर दोनों को लाउंज में ले गई थीं।
ड्रिंक्स पकड़ाया। काउंटर पर प्लेटों और बड़े-बड़े प्यालों में अपेटाइज़र सजे थे।
शाम पूरी रंगीनी पर थी। कुछ ही देर बाद विभु बाहर टैरेस पर आ गया था। यहाँ शांति
थी। गिलास पूरा भरा था।
छोटी-छोटी चुस्कियाँ। अंदर गर्माहट और तीखेपन की धार काटती हुई।
बहुत दिनों बाद आज अम्मा से बात हुई थी, काफ़ी देर
तक। वरना इधर तो ऐसा था कि उसकी आवाज़ सुनते ही उनकी आवाज़ सर्द हो जाती। एकाध
जुमलों के बाद,
"तुम फ़ोन मत किया करो।" कह कर लाइन काट देतीं।
आज बात भी हुई। मन और भी उद्वेलित हो गया।
"हमने अपने ज़ख्म सूखने दिए हैं। तुम बार-बार फ़ोन करके उन्हें मत कुरेदो। तुमने जो
भी किया वो ग़लत तो था ही पर जिस तरीके से किया वो भी ग़लत था। तुमने नहीं देखा कि
मनु की कैसी हालत हुई। ये सब तो हमलोगों ने देखा। पहले कैसे एकदम सुन्न हो गई थी।
फटी आँखों से देखती, कुछ बोलती ही नहीं थी। डीप शॉक बताया था डाक्टर ने। उससे उभरी
तो एकदम से बोलना शुरू किया।
"रात भर उसका प्रलाप चलता। कभी रोती कभी हँसती। कभी तुम्हें कोसती, बद्दुआ देती,
फिर तुरंत भगवान से प्रार्थना करती कि तुम्हे कुछ न हो। उसका बोलना एकदम अनवरत
चलता। तुम्हारे साथ के अंतरंग क्षणों को भी बोल-बोल कर फिरसे जीती। मेरे हाथों को
पकड़ कर एकदम याचना करती, अम्मा विभु को बुला दो! अम्मा विभु को बुला दो! एक बार
वापस आ जाए फिर कैसे भी मैं उसे जाने नहीं दूँगी। अम्मा अब दुबारा वो जाएगा ही नहीं
बस एक बार बुला दो।"
ये सब कहते फ़ोन पर ही अम्मा की आवाज़ टूट गई थी।
"मनु की ऐसी हालत और हमारा अपना दुख। तुम ये कभी समझ पाओगे विभु? शायद कभी नहीं।
फिर एक दौर था जब मनु पीरों और पंडितों के पास जाने लगी थी। पूजा, पाठ, टोटके,
ताबीज़। कभी कहती, फलाँ मज़ार पर चादर चढ़ाने से मुराद पूरी होती है। मेरी तो एक ही
मुराद है, बस विभु उस फ्रैंच औरत के चुंगल से छूट कर वापस आ जाए।
"कैसे मैंने और तुम्हारे बाबा ने उसे सँभाला है ये हम ही जानते हैं। एक मासूम लड़की
की तुमने ज़िंदगी तबाह की, विभु। मैं डरती हूँ तुम्हें उसका फल ना भोगना पड़े। कैसे
उत्साह से बिन माँ की बेटी को हम खुद माँगकर लाए थे इस घर में बहू बनाकर। आज उसे
अपनी बेटी माना है। तुम चले गए अमेरीका, वहाँ उस लड़की से शादी कर ली।" अम्मा की
आवाज़ में कड़वाहट आ गई थी।
"तुम सुख से अपने परिवार के साथ रहो। यहाँ मैं, बाबा और मनु हैं। हमारी तो जैसे
तैसे कट जाएगी, मनु की चिंता होती है। हमारे समाज मे परित्यक्ता स्त्री की कैसी
दुर्दशा होती है ये तुम भी जानते हो। अब तो जीवन का एक ही उद्देश्य है, मनु को इतना
मज़बूत बना देना कि वो आत्मविश्वास से अपने पैरो पर खड़ी हो सके। बस यही कहना है।"
अम्मा ने उसकी कोई सफ़ाई नहीं सुनी थी, फ़ोन रख दिया था।
आज दिन भर उन्हीं बातों का मंथन विभु करता आया है। उसकी ग़लती तो है। इस सच्चाई को
कैसे वो झुठलाए।
पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा- ऐशले था।
"यहाँ अकेले क्या कर रहे हो? वो भी खाली ग्लास के साथ।" खींच कर अंदर ले गया उसे।
कैरी परेशान-सी उसके पास आई, बाहों में बाहें फँसाए।
"कहाँ गायब हो गए थे?"
"बस यों ही टेरेस में था।"
"खाना खाएँ, ग्यारह बज रहे हैं। मिसेज नार्टन को भी वापस अपने घर जाना है।"
घर पहुँचे तो मनन को सोया पाया। शांत, मासूम
चेहरा। लालिमा लिए, भूरे बाल, हरी भूरी आँखे और गोरी रंगत, बिलकुल अपनी माँ की तरह।
पर शक्ल हूबहू विभु की थी। विभु को बेहद हैरानी होती। "अगर मैं काकेशियन होता तो
बिलकुल ऐसा ही दिखता।"
आँखो की बनावट, भौहों का चढ़ाव, नाक का गठन, होठों को थोड़ा टेढ़ा कर हँसने की अदा,
यहाँ तक की ठुड्ढ़ी पर हल्का कटाव, सब तो उसने विभु से ही पाया था। काश मनन को
अम्मा, बाबा देख पाते।
कमरे में अँधेरा था, सुकून भरा। कैरी उसके छाती में दुबकी गहरी नींद में थी, पर
विभु की आँखों में नींद कहाँ।
बिलकुल ऐसे ही मनु भी उसकी छाती में समा जाती थी।
उसे याद आया जब पहली बार मनु को देखा था, प्रभा की शादी में। भारी बनारसी साड़ी
उससे सँभल नहीं रही थी। हाथों से साड़ी थोड़ी उठाए इधर-उधर व्यस्त दौड़ रही थी।
नाज़ुक, कमसिन, मासूम। विभु को उसे देखकर मज़ा आ रहा था। अगले दिन गुलाबी सलवार
कुर्ते में लंबे बालों को ढ़लकते जूड़े में समेटे, क्लांत बैठी हुए देखा था। एकदम
से एक अनजाना-सा भाव उमड़ा था विभु के मन में। बाहों में समेट कर उसके चेहरे से
सारी उदासी पोंछ देने का। विभु को खुद आश्चर्य हुआ था।
"अम्मा तुम्हें वो लड़की कैसी लगी।"
अम्मा तुरंत समझ गई थी। कोई लड़की उसे पसंद नहीं आती थी और आज खुद कह रहा है।
शादी हो गई थी। मनु एकदम विस्फारित आँखों से देखती। उसके स्पर्श से एकदम घबड़ा
जाती।
नाक का कोना थरथरा जाता, कानों की लवें लाल हो
जातीं, चेहरा तप जाता। विभु को उसे छेड़ने में मज़ा आता। उसकी बातें वो तन्मय हो कर
सुनती। ऐसा श्रोता विभु को कभी नहीं मिला था। वो उसे कविताएँ सुनाता, शास्त्रीय
संगीत सुनाता, घुमाने ले जाता। मनु उसकी हर मर्ज़ी में ऐसे उत्साह और खुशी से शरीक
होती कि विभु को अक्सर हैरानी होती। उसकी किसी भी बात पर मनु की ना नहीं होती, पर
अधिक मीठा भी, जुबान को एकरसता देता है। ये मनु शायद नहीं समझ पाई थी।
ये नौवेल्टी भी पुरानी पड़ने लगी थी। विभु की
मर्ज़ी होती वो बैठ कर उससे कोई गंभीर चर्चा करे, पर मनु तो कपड़ो में, गहनों में
घर के काम में डूबी रहती। साहित्यिक चर्चा में उसकी कोई रुचि नहीं होती। वो किताबें
कम पढ़ती। विभु उसे लाकर देता तो शेल्फ़ के कोने पर धूल खाती। टोकने पर कान पकड़ कर
माफ़ी माँगती और फिर उसके गले में बाहें डालकर झूल जाती।
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