"भाई मक्खन, तुम जो मेरे लंगोटिया यार ठहरे,
तुम्हें भला अपने दोस्त के सुख-दुख से क्या मतलब।" मैंने दुबारा चुटकी ली थी।
"अच्छा तो ये अंदाज़ हैं जनाब के। किस शायर का असर हो रहा है?" मक्खन हल्के मूड में
लग रहा था।" मैं और शायरी! क्या कमाल करते हो मक्खन।" हम दोनों का ठहाका फिर
साथ-साथ गूँजा था।
मक्खन के घर पहुँचा तो मेरा स्वागत मक्खन के घर के कुछेक कर्मचारियों ने किया।
ज़ाहिर है इस स्वागत में अपनापन कम औपचारिकता ज़्यादा थी। ऐसा लग रहा था जैसे किसी
कैंप ऑफ़िस में आ गया हूँ।
घर में खाना बनाने वाला एक महाराज था और अन्य घरेलू काम-काज़ के लिए एक नौकर। एक
चपरासी को अपने कार्यालय से भी मक्खन ने बुलवा लिया था। मेरे खाने और चाय आदि की
विधिवत हिदायत देकर, मेरे साथ चाय पीने के बाद मक्खन ऑफ़िस चला गया और जाते-जाते
बोल गया था कि शाम का खाना साथ ही खाएगा।
यात्रा की थकान यों तो कुछ ख़ास नहीं थी, लेकिन
सुबह जल्दी ट्रेन पकड़ने की चिंता में रात तीन बजे ही आँख खुल गई थी। अत: शरीर पर
खुमारी का असर था। मैं खाना खाकर आराम करते-करते सो गया।
जब तक मेरी नींद टूटी, मक्खन भी ऑफ़िस से वापस आ गया था।
"अरे, तुम ने तो देर से आने की बात कही थी इतनी जल्दी कैसे?" मैंने पूछा।
"हाँ एक मीटिंग थी। बॉस के आने से मीटिंग कैंसिल हो गई।" मक्खन ने बात स्पष्ट की थी
और साथ ही महाराज को आवाज़ देते हुए बोला, "महाराज तुम फटाफट चाय नाश्ता लाओ हम लोग
घूमने जाएँगे।"
"कौन सी जगह घुमाओगे मुझे?"
"प्रवीण तुम पहली बार इत्मीनान से कानपुर आए हो। शुरुआत जे।के। मंदिर से ही करेंगे।
फिर मोती झील की हवाखोरी करेंगे और बाद में मालरोड घूमते हुए वापस आ जाएँगे। मक्खन
ने जैसे पहले ही सोच रखा हो।
जब तक मैं फ्रेश होकर बाथरूम से बाहर आया- चाय तैयार हो चुकी थी। ड्रायवर गाड़ी
साफ़ करने में लगा था, चाय पीकर हम दोनों गाड़ी में बैठ गए।
जे.के. मंदिर के दर्शन के बाद मुख्य द्वार के बाहर संगमरमर से बने दूधिया फ़र्श पर
हम दोनों न चाहते हुए भी बैठ गए थे। फ़र्श की शीतलता अपूर्व सुख की अनुभूति दे रही
थी।
"मक्खन यहाँ आने के बाद से एक बात मैं बड़ी देर से सोच रहा हूँ लेकिन तुम अपनी तरफ़
से कोई पहल ही नहीं कर रहे हो।"
"ऐसी भी क्या बात है?"
"भाभी के क्या हालचाल है? कहीं विवेक की तरह तुमने भी तो नहीं?" मैं कहते-कहते
संकोच में पड़ गया।
"क्या किया विवेक ने?" मक्खन का चेहरा आशंकाग्रस्त हो आया था।
"तो तुम्हें पता नहीं?"
"मक्खन, हम लोग भगवान के घर में हैं। फिर तुमसे झूठ और छिपाव क्या।"अफ़सर बनने के
बाद उसने अपनी बीवी बदल ली।
"क्या मतलब?"
"मतलब यह है कि उसने एक और बीवी 'रख' ली है। पहली बीवी अब गाँव में रहती है। शहर के
लिए उसने एक दूसरी लड़की को बीवी की तरह रख लिया है और तो और, सालों से गाँव भी
नहीं गया है। माँ बाप बहुत दुखी और चिंतित रहते हैं।"
"लेकिन उसकी पहली बीवी बुरी तो नहीं थी।"
"विवेक कहता है कि वह बैकवर्ड लगती है। उसकी सोसायटी में फिट नहीं बैठती नई वाली
बीवी क्रिश्चियन है। जींस टॉप वाली।"
"अरे हाँ मक्खन तुम भाभी वाली बात टाल ही गए। कहाँ है भाभी? ठीक तो हैं न? जे।के।
मंदिर घुमाया या नहीं।"
"नहीं प्रवीण, लाली घर पर ही रहती है। एक बच्चा भी है सोचता हूँ कुछ और बड़ा हो जाए
तो अपने पास ले आऊँ और किसी स्कूल में डाल दूँ।"
"और भाभी?"
"लाली तो गाँव में ही रहेगी। माँ भी तो है न। जब तक माँ है। माँ को अकेले तो नहीं
छोड़ा जा सकता न।"
"लेकिन माँ तो भाभी को बहुत प्रताड़ित करती होगीं?"
"तो क्या हुआ। जो माँ को करना है वह माँ कर रहीं हैं, जो लाली को करना चाहिए वह
लाली कर रही है। माँ हम लोगों के लिए अच्छा करें तभी हम लोग उसके लिए कुछ करें यह
तो कोई बात नहीं हुई। अपने कर्तव्य के निर्वाह में कैसी शर्त और कैसा संकोच।"
"तो क्या माँ ने भाभी को स्वीकार कर लिया?"
"बिल्कुल नहीं। वह अब भी लाली से उतनी ही नफ़रत करती हैं। यही नहीं, नौकरी मिलने के
बाद एक बार फिर माँ ने कोशिश की थी कि लाली को छोड़ दूँ। लेकिन मेरी तरफ़ से हरी
झंडी न पाकर चुप हो गई।"
"विश्वास नहीं होता मक्खन कि एक औरत किसी दूसरी औरत के खिलाफ़ इस हद तक भी जा सकती
है।"
"मेरा दुर्भाग्य है प्रवीण, और कुछ नहीं। तुम्हीं बताओ क्या ऐसा नहीं हो सकता कि
मैं लाली की किस्मत से ही नौकरी पाने में सफल हुआ हूँ। मुझे माँ के ऊपर तरस आता है
कि जो बहू उनकी तमाम गाली-गलौज के बाद भी पूरे मन से उनकी सेवा में लगी रहती है।
उससे अच्छी बहू कौन हो सकती है यह ज़रा-सी बात भी उनकी समझ में नहीं आती।"
मक्खन थोड़ा-सा भावुक हो उठा। गले में जैसे कुछ
आकर फँसने सा लगा था। कुछ क्षण की चुप्पी के बाद वह फिर बोला,
"सच कहूँ प्रवीण, भाई लाली की जिस्मानी सुंदरता को लेकर मेरे मन में भी एक कुंठा हो
जाया करती है, लाली मेरी इस कुंठा को समझती है। शायद इसीलिए मेरे एक दो बार कहने पर
भी वह मेरे साथ शहर आने के लिए राज़ी नहीं हुई। बस चिठ्ठी-पत्री आती रहती है। साल
छ: महीने में मैं भी गाँव हो आता हूँ।"
मक्खन को लगा कि जैसे बहुत देर हो गई। झटके से अपनी बात पूरी करते वह उठ खड़ा हुआ।
मैं भी उठ खड़ा हो गया। रात हो जाने के कारण चारों कोनों से पड़ने वाली सोडियम लैंप
की लाइट में मंदिर की आभा स्वर्णिम हो आई थी।
घर वापसी तक रात के नौ बज चुके थे। मक्खन तो फ्रेश
होने चला गया और मैं उसके ड्राइंग रूम का जायज़ा लेने लगा।
अचानक एक रैक से इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का एक वाल्यूम निकालते हुए कई लिफ़ाफ़े
गिरकर फ़र्श पर बिख़र गए। उत्सुकतावश मैंने उन्हें उठा लिया। सभी लिफ़ाफ़ों पर एक
ही जैसी लिखावट थी तथा सभी डाक से आए थे। थोड़ा ध्यान से देखा तो सभी लिफ़ाफ़ों पर
भेजने वाले का नाम अंग्रेज़ी में लिखा था।
'हैं! भाभी ने अंग्रेज़ी सीख ली! और मक्खन ने बताया तक नहीं। बड़ा छुपा रूस्तम है।'
मेरे मन के कोने में हलचल-सी हुई। तभी मेरा ध्यान गया कि लिफ़ाफ़े तो अभी खोले ही
नहीं गए हैं। मैं अचानक किसी उलझन में फँस गया। खैर पूछूँगा बच्चू से। मैं यह सोच
ही रहा था कि मक्खन वापस आ गया।
मैंने नाराज़गी भरे स्वर में उससे शिकायत की, "मिस्टर मक्खन लाल जी, भाभी की इतनी
सारी चिठि्ठयाँ आईं और तुम ने उन्हें खोलकर पढ़ने तक की ज़रूरत नहीं समझी। एक तरफ़
तो भाभी के हमदर्द बनते हो और दूसरी तरफ़ ऐसी निष्ठुरता। इसे मैं तुम्हारी कुंठा
समझूँ या हिकारत। भाई माजरा क्या है?"
"चलो तुम्हीं खोलकर देख लो माजरा समझ में आ जाएगा।" मक्खन गंभीर हो गया।
"तो ये बात है!" कहते हुए एक-एक कर सारे लिफ़ाफ़े मैंने खोल डाले। लेकिन ये क्या?
सभी लिफ़ाफ़ों में पत्रों की जगह मुडें हुए सादे काग़ज़ भर निकले।
"इन में तो कुछ लिखा ही नहीं है?" मैं हैरान था।
"फिर?" मेरी उलझन बढ़ रही थी।
"प्रवीण, तुम तो मेरे अपने हो। तुम से क्या छिपाना। जब मैं घर जाता हूँ तो अपना पता
लिखकर तथा भेजने वाले कि जगह लाली का नाम लिख कर कुछ टिकिट लगे लिफ़ाफ़े रख आता
हूँ। लाली महीने भर में उन्हीं लिफ़ाफ़े में सादे काग़ज़ रख कर मेरे पास भेजती रहती
है। अनपढ़ जैसी होने की वजह से कुछ लिख नहीं पाती। इन पत्रों को पाकर मुझे लगता है
कि लाली सही सलामत है, ज़िंदा है।
मक्खन के स्पष्टीकरण से मैं ठगा-सा रह गया।
उधर मक्खन की पलकों में आँसू की कुछ बूँदे आकर ठहर गईं थीं।
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