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अस्सी बरस के खिल्लन मियाँ को जब
से ये पता चला है कि श्रीनगर-मुज़्ज़फ़राबाद के बीच सरहद के आर-पार बसें चलने वाली
हैं, तब से मानो उनके पाँव ज़मीन पर पड़ ही नहीं रहे थे। आँखें ऐसे चमकने लगी थी,
मानो बुझते चराग़ों में किसी ने तेल डाल दिया हो। दिल में अपने खानदान के लोगों से
मिलने की हूक फिर से उठने लगी थी। मुर्दा हो चली ख़्वाहिशें फिर से साँस लेने लगी
थीं। चेहरे की झुर्रियों में उम्मीदों की लकीरें साफ़ पढ़ी जा सकती थी। चाल की
नज़ाकत और बेंत ज़मीन पर टिकाते वक्त गहरा आत्मविश्वास देखते ही बनता था। आठों पहर
बस यही ख़याल दिल में चलता रहता था कि ''बस कब चलेगी?''
चौख़ाने वाली लुंगी, चिकन का
कुर्ता, सिर पर कढ़ाईदार टोपी, सफ़ेद दूध-सी दाढ़ी, झुकी हुई कमर और हाथ में एक
तीनेक फुट का बेंत। बस, इतना-सा बयान काफ़ी है खिल्लन मियाँ की दरियाफ़्त के लिए।
पिछले पचपन सालों से खिल्लन मियाँ श्रीनगर के ही बाशिंदे हैं। किसी ज़माने में उस
इलाके में रहते थे, जो अब ''सरहद पार का'' कहलाता है। जिस्म बेशक श्रीनगर में है,
पर रूह आज भी उन गलियों में ही भटकती है जहाँ बचपन बीता था। जहाँ की ख़ाक में
माँ-बाप की यादें दफ़न हैं। श्रीनगर में चौक से बाईं ओर चलने पर ढलान से उतर कर
मुर्गीवालों की बस्ती के पिछवाडे पुराने मुसाफ़िरख़ाने के पास ही खिल्लन मियाँ रहते
हैं, अपनी शरीके हयात मेहरून्निसा के साथ। टूटा-फूटा-सा दो कमरों का वो घर खिल्लन
मियाँ का घर भी है और दुकान भी।
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