वे जिस तरह मुझे घूर रहे थे, मैं भी एकटक उन्हें
देख रही थी। मेरी आँखों में उपालंभ की मात्रा शायद ज़्यादा गहरी थी। क्यों कि थोड़ी
देर बाद उन्होंने अपनी नज़रें फेर लीं। उनकी नज़रें हटते ही मैंने कॉर्डलेस पर
पड़ोस का नंबर मिलाया, "सॉरी नीतू डार्लिंग, तुम्हें फिर से कष्ट दे रही हूँ। पर
क्या है कि तुम्हारे जीजाजी आ गए हैं। एक कप चाय बनाकर दे जाओगी तो अच्छा रहेगा।"
"मेरे लिए पड़ोसियों को कष्ट देने की कोई ज़रूरत नहीं है।" उन्होंने कसैले स्वर में
कहा। अब वे दरवाज़ा छोड़कर सामने कुर्सी पर बैठ गए थे। "अगर घर में चाय बनाने में
कोई प्रॉब्लम है तो मैं बाहर पी सकता हूँ। वैसे भी मैं यहाँ रुकने वाला नहीं हूँ।
सिर्फ़ देखने चला आया था।"
मैं भी उन्हें चाय पिलाने के लिए बहुत व्यग्र नहीं
थी। बस चाहती थी कि इस समय हम दोनों के बीच में कोई तीसरा आकर बैठ जाए। मुझे पता था
कि जीजाजी का नाम सुनते ही नीतू दौड़ी चली आएगी।
और वही हुआ। पाँच मिनट में नीतू दो कप चाय लेकर हाज़िर हो गई।
"हाय जीजाजी।" नीतू ने चहककर स्वागत किया और हुलसकर पूछा, "आपको कैसे पता चला? दीदी
तो फ़ोन ही नहीं कर रही थीं।"
"पता करने वाले पता कर ही लेते हैं।" इन्होंने कुटिल मुस्कान के साथ कहा। बेचारी
नीतू! इनका मंतव्य समझ नहीं पाई। अपनी ही रौ में बोली, "मम्मी यही तो कह रही थीं कि
दिल से दिल को राह होती है। फ़ोन करने की क्या ज़रूरत है।"
फिर इन्हें चाय पकड़ाते हुए मुझसे बोली, "दीदी! अब आप भी उठकर ज़रा-सी चाय पी लो।
सुबह से बोल-बोलकर दिमाग़ चकरा गया होगा।"
वो मुझे सहारा देकर उठाने लगी और इनके चेहरे का
रंग बदलने लगा। मेरी अधलेटी मुद्रा को वे अनादर का प्रदर्शन समझ रहे थे। अब उन्हें
कुछ-कुछ समझ में आ रहा था। उठने की प्रक्रिया में जब मेरा शॉल कंधे से खिसक गया तो
उनकी प्लास्टर पर नज़र पड़ी, "अरे! ये हाथ को क्या हो गया?"
"गनीमत है कि सिर्फ़ हाथ ही टूटा है। आप खुशकिस्मत है जीजाजी कि ये सही सलामत बच
गई। वरना क्या से क्या हो जाता।"
"तुम्हें मैं सही सलामत नज़र आ रही हूँ?"
"अरे हाथ ही तो टूटा है। सब लोग कर रहे थे कि किस्मतवाली थी जो सड़क के किनारे
गिरीं। अगर बीच में गिरती तो सोचो क्या होता?"
उस कल्पना मात्र से ही मुझे झुरझुरी हो आई। मैंने नीतू से कहा, "थोड़ी हेल्प कर
दोगी तो भीतर जाकर थोड़ा लेट लूँगी।"
"हाँ, अब आप बिल्कुल आराम करो। कोई आएगा तो जीजाजी निपट लेंगे।"
बिस्तर पर लेटते हुए मैंने कहा, "बसंती को दो दिन की छुट्टी दे दी थी। अगर किसी के
हाथ ख़बर भिजवा दोगी तो वे आ जाएगी। दो रोटी ही डाल जाएगी।"
"बसंती को मैं ख़बर कर दूँगी। पर आप रोटी की इतनी चिंता क्यों कर रही हैं? हम लोग
क्या इतना भी नहीं कर सकते?"
"तुम्हीं लोग तो कर रहे हो।"
"पड़ोसी और होते किसलिए हैं?"
नीतू जब चली गई तो ये कमरे में आकर बोले, "इतना सब हो गया तो क्या मुझे फ़ोन नहीं
कर सकती थी?"
मैंने एक क्षण उनकी ओर देखा और कहा, "फ़ोन कर भी देती तो क्या आप विश्वास कर लेते?
या इसे भी एक बहाना समझते?"
वे चुप हो गए। फिर बड़ी देर तक एक मौन हम दोनों के
बीच पसरा रहा। फिर कुछ देर बाद फ़ोन बजा। मेरा कॉर्डलेस बाहर ही छूट गया था इसलिए
फ़ोन इन्हें ही उठाना पड़ा। शायद बड़े भैया का था, "मेरा हालचाल पूछ रहे थे। मैं जब
तक उन्हें सावधान करती वे सब ब्यौरा दे चुके थे। फिर तो मेरी पेशी होनी ही थी।"
"ये क्या कर बैठीं तुम? और रात को मुझे बताया क्यों नहीं? मैं उसी समय चला आता।"
"मुझे मालूम था इसीलिए नहीं बताया। आप आ भी जाते तो सुबह फिर मेहमानों के लिए भागना
पड़ता अब आपकी उम्र इतनी भागदौड़ करने की नहीं है। वैसे चिंता की कोई बात नहीं है।
पड़ोसी बहुत अच्छे हैं, और अब तो ये भी आ गए हैं।"
"हाँ, अभी फ़ोन पर उनकी आवाज़ सुनकर थोड़ा संतोष तो हुआ। अच्छा तो हम लोग सुबह आते
हैं। टेक केअर।"
भैया के फ़ोन के बाद फिर से सन्नाटा छा गया। ये
पेपर पढ़ते रहे, मैं सोने की कोशिश करती रही। नीतू दोनों की थालियाँ लेकर आई तभी यह
नीरवता भंग हुई।
नीतू बोली, "मम्मी तो कह रही थीं जमाई जी को यहीं बुला लो। ठीक से खा लेंगे। पर
मैंने कह दिया कि दीदी अकेली बोर हो जाएँगी। वो अच्छी हो जाएँ फिर दोनों को एक साथ
बुलाकर खूब ख़ातिरदारी कर लेना।"
"एक बात और। जाते हुए मैं बाहर से ताला डालकर जा रही हूँ। नहीं तो मोहल्ले भर की
आँटी लोग तंग करने आ जाएँगी। रातभर की जागी हो, थोड़ा आराम कर लो।"
"खोलोगी कब?"
"चार बजे चाय लेकर आऊँगी न!"
और सचमुच वह हमें ताले में बंद करके चली गई। वह जब
तक रहती है पटर-पटर करती रहती है। घर भरा-भरा लगता है। उसके जाते ही एक निचाट
सूनेपन ने घेर लिया। उस असहज एकांत से निजात पाने के लिए मैंने कहा, "आप तो आज ही
जाने वाले थे न! तो दिन में निकल जाते। रात में ठंड से परेशान हो जाएँगे।"
वे एक क्षण मुझे घूरते रहे। फिर बोले, "मुझे क्या इतना गया-गुज़रा समझ लिया है कि
तुम्हें इस हाल में छोड़कर चला जाऊँगा।"
एक तरह से बात यहीं पर एक अच्छे बिंदु पर समाप्त
हो जानी थी। पर मेरे मन में तो प्रतिशोध की आग धधक रही थी। वह हुस्नपरी वाला डायलॉग
मेरे कलेजे में कील की तरह गड़ा हुआ था। उसी ने मुझे चुप नहीं बैठने दिया। मैंने
बड़े नाटकीय अंदाज़ में कहा, "मेरी ऐसी हालत है तभी तो कह रही हूँ, रुककर क्या
करेंगे।"
वे अवाक होकर मुझे देखते रह गए, "व्हॉट डू यू मीन?"
"कुछ नहीं। एक पुरानी बात याद आ गई। एक बार आए थे और मैं -(संकोच के मारे मैं
क्षणभर को चुप रह गई) उस दिन आप कितना नाराज़ हुए थे। कहा था कि फ़ोन तो कर देतीं।
बेकार में दो ढाई सौ रुपए को चूना लग गया।"
उनका चेहरा फक पड़ गया। डूबती सी आवाज़ में बोले, "उस बात को अब तक गाँठ बाँध बैठी
हो?"
"यही क्यों? और भी बहुत-सी हैं। सारी गाँठे खोलने बैठूँगी तो सुबह से शाम हो
जाएगी।"
"तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं तुम पर बहुत अत्याचार करता रहा हूँ।"
"प्रचलित मायनों में जिसे अत्याचार कहते हैं वह तो आप कर नहीं सकते थे क्यों कि मैं
उतनी बेचारी नहीं हूँ। आपका तरीका बड़ा सोफिस्टिकेटेड है और एप्रोच बहुत ही
प्रेक्टिकल। बहुत आसानी से आप सामने वाले की भावनाओं को अनदेखा कर देते हैं।"
"मसलन?"
"मसलन - अब कहाँ से शुरू करूँ। चलिए शुरू से करते हैं। याद है जब शादी के बाद पहली
बार हम लोग इस घर में आए थे। मेरी सहेलियों ने घर को बहुत कलात्मक ढंग से सजाया था।
हमारा स्वागत भी बहुत शानदार हुआ था। हार-फूल, संगीत, उपहार, मिठाई - और लोग इतने
कि पैर रखने को जगह नहीं थी। उसके बाद जब हम अकेले हुए तो आपका प्रश्न था- फ्लैट तो
बहुत सुंदर है, कितने का पड़ा?"
"क्या मुझे यह पूछने का हक नहीं था?"
"ज़रूर था पर आपकी टाइमिंग गल़त हो गई। उस निभृत एकांत की अवहेलना कर आप इंदौर और
भोपाल की कीमतों की तुलना करते रहे। बातों-बातों में आपने यह भी पूछ लिया कि मैंने
लोन बैंक से उठाया था या जी प़ी ए़फ स़े लिया था? और यह भी कि किश्तें पट गई हैं या
कि अभी बाकी है!"
"मेरे ख़याल से मुझे यह भी पूछने का हक नहीं था।"
"हक सौ फीसदी है। पर यह विषय उस दिन के लिए नहीं था। मुझे मालूम है मेरी शादी में
मेरी नौकरी, मेरा वेतन, मेरा फ्लैट प्लस पाइंटस थे। पर वे ही अहम मुद्दा होकर रह
जाएँगे और मैं गौण हो जाऊँगी यह नहीं सोचा था। अगली बार आप जब आए तो आपने नॉमिनेशन
के बारे में पूछा था। मैंने दोनों भाइयों के बेटों को फ्लैट और जीपीएफ के लिए
नॉमिनेट किया था। आपने कहा कि अगर नामाँकन बदलना है तो फुर्ती करनी होगी। नहीं तो
बाद में बहुत परेशानी होती है।"
"इसमें गल़त क्या था। सरकारी दफ़्तर में काम करता हूँ। रोज़ देखता हूँ कि लोग बाद
में किस तरह परेशान होते हैं।"
"मैं भी जानती हूँ। पर महीने भर पहले ब्याही औरत भविष्य के सपने देखती है। उसे
वसीयत के बारे में सोचना ज़रा अच्छा नहीं लगता। बदली हुई परिस्थिति में शायद मैं
खुद इस विषय में पहल करती। पर आपकी उतावली देखकर वितृष्णा हो आई।"
"इसके बाद तो शोषण का एक अनवरत सिलसिला शुरू हो गया। मेरे टेलीफ़ोन का बिल दुगुना
तिगुना आने लगा। सब लोग छेड़ते कि रात-रात भर मियाँ से बात करती होगी। उन्हें क्या
पता कि मियाँ ने घर पर बात करने के लिए एकदम मना किया हुआ है। और दफ़्तर में बात
करना मुझे अच्छा नहीं लगता। उन्हें कैसे बताती कि यहाँ आकर श्रीमान को सारे दोस्तों
के, भाई भतीजों के जन्मदिन याद आ जाते हैं। सारे रिश्तेदारों की मिजाज़पुरसी और
मातमपुरसी यहाँ से होती है।"
"यह तो शायद तुम्हें भी पता होगा कि लांग डिस्टेंस कॉल्स संडेज़ को सस्ती पड़ती है।
और अक्सर संडेज़ को मैं यही होता हूँ।"
"हाँ, मुझे पता है और मुझे यह भी पता है कि इंदौर का कपड़ा मार्केट बहुत अच्छा है।
इसलिए चादरें और परदे यहीं से ख़रीदना चाहिए। यहाँ के रेडीमेड गारमेंट्स की मंडी भी
बहुत मशहूर है इसलिए बच्चों के जन्मदिन के कपड़े यहीं से लेना चाहिए। यहाँ जब तब
गरम कपड़ों की 'सेल' लगती है इसलिए अम्माजी के लिए शाल और स्वेटर यहीं से जाएगा।
इसके अलावा और भी फर्माइशी चीजे हैं। जैसे फरियाली सामान, नमकीन, राहुल के लिए
कैमरा, एटलस, रीना के लिए बार्बी का सेट, कलर बॉक्स वगैरह- और मुझे यह भी मालूम है
कि आपने घर पर यह कभी नहीं जताया होगा कि ये फ़र्माइश कौन पूरी कर रहा है।"
"देखो ज़्यादा एहसान जताने की ज़रूरत नहीं है। हिसाब लगाकर रखना, अगली बार आऊँगा तो
सब चुकता कर जाऊँगा।"
"हिसाब करने की ज़रूरत नहीं, क्यों कि यह सब मैंने अपने घर के लिए, अपने बच्चों के
लिए किया था। जिस तरह शादी के बाद यह घर आपका हो गया, मैंने सोचा कि वह घर भी अब
मेरा ही है। इसलिए एहसान की कोई बात नहीं है। बात अधिकार की है। राहुल को जन्मदिन
पर डांस करना था, आप यहाँ का म्यूज़िक सिस्टम ले गए। बच्चों को गर्मियों में
पिक्चर्स देखनी थीं, आप यहाँ से वीसीडी प्लेयर ले गए, बार-बार बिजली गुल होने से
बच्चों की पढ़ाई हर्ज़ होती है इसलिए मेरा इमर्जेंसी लैंप भी भोपाल पहुँच गया- मैं
शिकायत नहीं कर रही हूँ। आपको अधिकार था और आपने उसका उपयोग किया। पर यह तो वन-वे
ट्रैफिक हो गया। मुझे तो कोई अधिकार मिला ही नहीं। मेरा तो सिर्फ़ एक्सप्लायटेशन
किया गया।"
"वाह?"
"सुनने में बुरा लगता है न? शोषण कहूँगी तो और भी बुरा लगेगा। पर मेरे साथ यही हो
रहा था और वह मेरी समझ में भी आ रहा था। पर मैंने मन को बहला लिया था कि मैं घर की
किश्तें चुका रही हूँ। घर- जिसकी मुझे अरसे से तलाश थी। घर जो रिश्तों की मज़बूत
ज़मीन पर खड़ा हो, घर जो आपसी सामंजस्य और सद्भाव के सहारे टिका हो। पर वह घर तो
मुझे मिला नहीं। आपने दिया ही नहीं।"
"देखो, तुम्हारी तरह मैं साहित्यिक भाषा तो बोल नहीं सकता। लेकिन. . ."
"आप खूब बोल सकते हैं। आपका हुस्नपरी वाला जुमला तो अब तक मेरे कलेजे में गड़ा हुआ
है। कल रातभर मैं दर्द के मारे सो नहीं पाई थी। पर यह दर्द उस दर्द के मुक़ाबले कुछ
नहीं था जो उस रात आपने मुझे दिया। ये घाव तो कल को भर भी जाएँगे पर यह घाव ताउम्र
हरा रहेगा।"
"और आज तो आपने कमाल ही कर दिया?"
"आज? आज मैंने क्या किया?" वे हैरान थे। "आज आप सिर्फ़ मेरे सच को परखने यहाँ चले
आए। मान लो मैं चली ही गई होती तो- तो आपकी क्या इज़्ज़त रह जाती? या मेरी ही क्या
इमेज बनती? आपकी तो यह दूसरी शादी है। इतना तो आप भी समझते होंगे कि दांपत्य का
आधार होता है विश्वास- और मिस्टर कश्यप, आपने उसे ही नकार दिया। फिर शेष क्या रहा?"
तभी दरवाज़ा खड़का, नीतू शायद चाय लेकर आई थी। हम
दोनों अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप बैठ गए। वैसे भी बोल-बोल कर मैं इतना थक गई थी कि
कुछ देर आँख बंद करके लेटने को जी चाह रहा था। और चाय पीकर मैं सचमुच लेट गई। नीतू
बोली, "जीजा जी! शाम को क्या खाना पसंद करेंगे बताइए।"
व्यंग्यपूर्ण मुस्कुराहट के साथ वे बोले, "मैं ग़रीब क्या बताऊँगा, अपनी दीदी से
पूछो। गेस्ट ऑफ ऑनर तो वो हैं" और इतना कहकर वे बाथरूम में घुस गए। नीतू थोड़ी देर
बैठी बतियाती रही पर मेरी ओर से कोई प्रोत्साहन न पाकर चुपचाप उठकर चली गई।
वे फ्रेश होकर आए और बालों में कंघी फेरते हुए बोले, "अच्छा मैं निकल रहा हूँ।"
मैंने प्रश्नार्थक नज़रों से उनकी ओर देखा।
"रतलाम वालों के आने तक रुकने का इरादा था। पर देखता हूँ उसकी कोई ख़ास ज़रूरत नहीं
है। तुम्हारे अड़ोसी-पड़ोसी बहुत अच्छे हैं। खूब अच्छी सेवा टहल कर रहे हैं। मेरी
वजह से बल्कि असुविधा ही हो रही है।
"-और हाँ, तुम्हारी सारी चीज़ें अगली बार ले आऊँगा, अगर आया तो वरना किसी के हाथ
भिजवा दूँगा।"
मैंने उठने का उपक्रम किया तो बोले, "लेटी रहो। मेरे लिए फॉर्मेलिटीज़ करने की
ज़रूरत नहीं है। वैसे भी आदर मान बहुत हो चुका है।"
"सी ऑफ करने के लिए न सही, दरवाज़ा बंद करने के लिए तो उठना होगा।"
मैं लड़खड़ाते हुए उठ खड़ी हुई। लंगड़ाते हुए जब
तक दरवाज़े पर पहुँची, ये दो मंज़िल उतरकर बिल्डिंग के गेट तक पहुँच चुके थे।
खिड़की से मैं उन्हें जाते हुए देखती रही।
फिर मैंने बहुत मुश्किल से दरवाज़ा बंद किया। इतने से श्रम से भी मैं हांफ गई थी।
देर तक बंद दरवाज़े के सामने वहीं खड़ी रही जहाँ से मैंने उन्हें जाते हुए देखा था।
मुझे लगा, वे मेरे घर से ही नहीं जीवन से भी चले गए हैं।
"अलविदा मि. कश्यप" मैंने कहा, "आज से मेरे घर और
मेरे मन के, दरवाज़े आपके लिए बंद हो चुके हैं। घर का दरवाज़ा तो शायद कभी मजबूरी
में खोलना भी पड़ेगा क्यों कि इस शादी को इतना आसानी से मैं नकार नहीं सकती। इसके
लिए मेरे भाइयों ने बहुत सारा श्रम और पैसा खर्च किया है, इसलिए इस शादी को तो मुझे
ढोना ही पड़ेगा। पर मेरे मन का दरवाज़ा अब आपके लिए कभी नहीं खुलेगा, कभी नहीं।"
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