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रेवत बाबू को लगा जैसे फ्लैट में नहीं किसी
मायालोक या फिर उससे भी बढ़कर कहें तो किसी आश्चर्यलोक में वे आ गए हैं। इसे ही
कहते हैं ज़मीन से उठकर आसमान में टँग जाना। आठवें तल्ले से वे नीचे झाँकते तो
अनायास गिरने के बारे में सोचने लगते। अगर वे फिसलकर ऊपर से नीचे गिर जाएँ। अगर
उन्हें कोई धक्का दे दे! उन्हें यहाँ का सब कुछ अपरिचित और अजीबोग़रीब लग रहा था।
दोनों बेटे रतन और जतन उन्हें ताड़ रहे थे, उन्हें भाँप रहे थे।
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रतन ने उनकी उड़ी हुई रंगत और सहमी हुई आँखों की दयनीयता पर तरस खाते हुए कहा,
"बाउजी, अब आप अपने को इस माहौल में ढालिए। निचले तबके के शोरगुल और झंझटों से
निकलकर हम शिष्ट, सुखी और संभ्रांत समाज में आ गए हैं। सफ़ाई, सुंदरता, सहूलियत,
सुरक्षा, सुख और शांति के मामले में फ्लैट कल्चर से अच्छा दूसरा कोई विकल्प नहीं हो
सकता।"
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रेवत बाबू ने अपने बेटे के इस मंतव्य का कोई काउंटर नहीं किया। उन्होंने मन ही मन
तय कर लिया था कि वे अपने बच्चों पर अपनी कोई नसीहत, अपना कोई संस्कार या अपना कोई
जीवन-मूल्य जबरन नहीं थोपेंगे। चूँकि अक्सर यह थोपना ही नयी पीढ़ी की नज़र में
बुजुर्गों को विलेन बना देता है। बच्चों की तरह उन्हें डॉक्टर या इंजीनियर बनना
नसीब न हुआ, फिर भी वे अपने ख़यालों से लकीर के फकीर कभी नहीं रहे।
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